जुलाई 1897. हैदराबाद से सटे सिकंदराबाद में ब्रिटिश आर्मी के सर्जन रोनाल्ड रॉस दिलचस्प प्रयोग कर रहे थे. मानसून के दौरान वो बीस 'भूरे मच्छरों' को पकड़ने में कामयाब रहे थे. अब उन्हें एक शिकार की जरूरत थी. हुसैन खान नाम के मलेरिया से पीड़ित एक मरीज ने उनकी यह मुराद भी पूरी कर दी. दोनों के बीच में समझौता हुआ कि हुसैन मच्छर के एक डंक के लिए रॉस से 1 आना वसूलेंगे. आठ डंक झेलने के बाद उन्होंने रॉस से आठ आने सिक्का वसूला और अपने घर चले गए.
रॉस को खुद उम्मीद नहीं थी कि वो इतने मजाकिया अंदाज में इंसानी तारीख में नया पन्ना जोड़ देंगे. रॉस ने जबी हुसैन का खून पिए मच्छरों की चीर-फाड़ की तो पाया कि मच्छरों की लार ग्रंथियों में वही 'गोल कोशिकाएं' पाई गई, जो मलेरिया के रोगियों में पाई जाती हैं. मलेरिया शब्द 'ग्रीक' जुबान से आया था. पुराने जमाने में ग्रीक लोग ये मानते थे कि जाड़ा लग कर आने वाले इस बुखार की वजह 'बुरी हवाएं' हैं. इस खोज ने साफ कर दिया कि मलेरिया के फैलने का हवा से कोई लेना-देना नहीं है. उनकी इस खोज की वजह से 1902 का नोबेल पुरस्कार उनके नाम कर दिया गया.
रॉस के प्रयोग के 121 साल बाद बरेली में उनकी इस खोज को पूरी तरह भुला दिया गया. अगस्त का महीना रूहेलखंड के लिए अच्छा नहीं बीता. यह साल भयंकर बरसात वाला साल था. औसतन बरेली में अगस्त महीने में 324 एमएम बरसात हुआ करती है. बरेली में इस साल अगस्त में 724.55 एमएम बारिश हुई थी, जोकि औसत से ढाई गुना ज्यादा था. अखबार घरों के गिरने, सड़कों पर पानी भरने और गाज गिरने की खबरों से भरे हुए थे. 25 अगस्त को बांदा के सूतइया गांव 58 साल के फतेह सिंह की मौत हो गई. उनकी कच्ची छत उनके सिर पर आकर गिर गई थी. लेकिन मौतों के दौर की शुरुआत होने में अभी 24 घंटे का वक़्त बाकी था.
26 अगस्त 2018 को जनपद में मलेरिया पीएफ से होने वाली पहली दो आधिकारिक मौतें फरीदपुर ब्लॉक से दर्ज की गई. पहली मौत पीतम गांव की रहने वाली 19 साल की खुशबू की थी. उन्होंने चार दिन तक बुखार में तपने के बाद दम तोड़ दिया. दूसरी आधिकारिक मौत रजाऊ परसपुर की रहने वाली 22 साल की अनीता की हुई. उन्होंने महज एक दिन में दम तोड़ दिया. हालांकि यह अभी तक इसे मलेरिया (पीएफ) घोषित किए जाने में 15 दिन लगने थे. तब तक अखबारों ने अपनी सुविधा के हिसाब से इस बीमारी को 'रहस्यमयी बुखार' का नाम दे दिया था.
मंत्री का दौरा और अफरातफरी
रहस्यमयी बुखार की वजह से बदायूं में मौतों को सिलसिला 20 अगस्त के बाद ही शुरू हो गया. बरेली में मौत की पहली खबर 27 तारीख से शुरू हुई. इसके बाद हर दिन 2 से लेकर 5 मौतों की खबर छपने लगी. सूबे के वित्त मंत्री राजेश अग्रवाल 2017 में बरेली कैंट विधानसभा से पांचवीं बार विधायक चुने गए हैं. बरेली उनका इलाका है. 1 सितंबर की सुबह वो बिना किसी को बताए जिला अस्पताल पहुंच गए.
राजेश अग्रवाल ने वहां वार्ड से लेकर सरकारी दवा की दुकान तक हर चीज को ठोक-बजाकर देखा. हर चीज में खड़खड़ाहट की आवाज आई. उन्होंने शौचालय दुरुस्त करने, सब-स्टोर में दवा रखने, वार्ड साफ-सुथरा रखने का आदेश दिया और जाते-जाते सीएमओ डॉ.विनीत शुक्ला को ठीक से अस्पताल चलाने या फिर छुट्टी पर चले जाने की सलाह देते हुए लखनऊ चले गए. अग्रवाल के दौरे के बाद हेल्थ डिपार्टमेंट कुछ हरकत में दिखा. इलाके में फॉगिंग शुरू हुई. लोगों के खून के सैम्पल लिए जाने लगे.
4 सितंबर को राज्य स्तर की चार सदस्यों वाली टीम बरेली पहुंच चुकी थी. इस टीम ने सबसे ज्यादा प्रभावित गांव बेहेटा बुजुर्ग से कुछ ब्लड और वाटर सैम्पल भी लिए. इन सैम्पलों की जांच लखनऊ की लैब में होनी थी जिसकी रिपोर्ट वो सीएमओ को दी जानी थी. इस समय तक भी यह साफ नहीं हो पाया कि आखिर पूरे इलाके में कौन सी बीमारी फैली हुई है. राज्य स्तर की इस टीम के दौरे के समय हालात यह थे कि जिला अस्पताल में मलेरिया (पीएफ) के लिए जरुरी दवा ACT (Artemisinin-based Combination Therapy) की एक भी खुराक जिला अस्पताल में मौजूद नहीं थी.
चीजें असल में बदली दिल्ली से आई National Center for Disease Control (NCDC) की दो सदस्यों वाली टीम के बरेली पहुंचने से. NCDS की टीम 9 तरीख की रात को पहुंची. इस टीम ने सुबह तक 'रहस्यमयी बुखार' को मुकम्मल नाम दे दिया. बेहेटा बुजुर्ग गांव से लिए गए कुल 16 में से 14 सैम्पल मलेरिया (पीएफ) संक्रमित निकले. 24 घंटे के भीतर दूसरे जिलों से लेकर दूसरे राज्यों तक से ACT किट मंगवाए गए. इसके बाद मलेरिया (पीएफ) के खिलाफ ठीक तरीके से बचाव अभियान की शुरुआत हो पाई. लेकिन अब तक काफी देर हो चुकी थी. लोगों के मरने का सिलसिला जारी था. इलाके में मच्छरों की आबादी सामान्य से तीन गुना ज्यादा घनी हो चुकी थी. काबू में आने तक बीमारी अभी और नुकसान पहुंचाने वाली थी.
एक खत जिसका समय पर जवाब नहीं आया
राजेश अग्रवाल 1 सितंबर को बरेली जिला अस्पताल के दौरे पर थे और इसके ठीक एक महीने पहले जिले के चीफ मेडिकल ऑफिसर एक खत लिख रहे थे. यह खत मलेरिया और वेक्टर जनित रोग विभाग के अपर डायरेक्टर के नाम लिखा गया था, जिसकी एक कॉपी डायरेक्टर जनरल (हेल्थ) को भी भेजी गई थी. इस खत का मजमून इस तरह से है-
“महोदय,सादर अवगत कराना है कि वर्तमान में जनपद बरेली में स्वास्थ्य कार्यकर्ता (पुरुषों) के स्वीकृत 181 पदों के सापेक्ष मात्र 12 कार्यकर्ता ही कार्यरत हैं. तथा मलेरिया कार्यक्रम के अंतर्गत स्वीकृत 16 प्रयोगशाला प्रविधिज्ञों के सापेक्ष 04 प्रयोगशाला प्रविधिज्ञ ही कार्यरत हैं. मानसून के उपरांत मच्छर ब्रीडिंग के कारण मलेरिया का प्रकोप की संभावनाएं प्रबल हो जाती हैं. ग्रामीण क्षत्रों में सक्रिय सर्वेक्षण (Active Surveillance) ना होन पाने के कारण वास्तविक मलेरिया रोगियों की खोज प्रभावित होगी. एवं कभी भी मलेरिया संबंधी विषम स्थितियां पैदा हो सकती हैं.”
जैसा कि पहले ही कहा गया कि यह अगस्त बरेली के लिए अच्छा नहीं बीता था. ढाई गुना बरसात और तीन गुना घने मच्छरों के मुकाबिल डिस्ट्रिक्ट मलेरिया ऑफिसर की फ़ौज निहत्थी थी. 181 के मुकाबले 12 स्वास्थ्य कार्यकर्ता. 16 के मुकाबले 4 टेक्नीशियन और 50 के मुकाबले 31 लैब असिस्टेंट. ऊपर मलेरिया ऑफिसर के पास अपना कोई वहां नहीं. गांवों दौरे के लिए दूसरों पर निर्भर विभाग कितना लड़ता. बरेली सीएमओ की तरफ महीने भर पहले चेतावनी देने के बावजूद हेल्थ डिपार्टमेंट के आला अधिकारीयों ने लोगों की बहाली की जहमत नहीं उठाई. मलेरिया के रोग से महामारी बनने की यह सबसे उर्वरक स्थिति थी.
जैसे उधो, वैसे भान
ऐसा नहीं है कि सिर्फ राज्य सरकार की तरफ से हुई नजरअंदाजी की वजह से हालात इतने बदतर रहे. इसके लिए जनपद के स्वास्थ्य विभाग का शुतुरमुर्गी रवैया भी बराबर जिम्मेदार है. उन्हें बेतहाशा फैलते मलेरिया के बारे में हवा तक नहीं लगी. आलम यह था कि 10 सितंबर तक चिकित्सा विभाग इसे 'रहस्यमयी बुखार' कहता रहा.
सरकारी नियमों के मुताबिक हर प्राइमरी और कम्युनिटी हेल्थ सेंटर हर महीने अपने इलाके में पाए गए मलेरिया रोगियों की रिपोर्ट मलेरिया अधिकारी को सौंपता है. बरेली का मलेरिया विभाग लोगों की कमी से जूझ रहा था. ऐसे में विषम परिस्थतियों से निपटने के लिए उनके पास एक मात्र रणनीति यह थी कि वो प्राइमरी हेल्थ सेंटर और कम्युनिटी हेल्थ सेंटर की तरफ आने वाली मासिक रिपोर्ट को एनालाइज करते रहें. जहां मलेरिया या दूसरे वेक्टर जनित रोगों के रोगी मिलने की सूचना मिले, उस इलाके में खून की जांच, दवा छिड़काव जैसे सुरक्षात्मक कदम उठाएं.
बरेली के चार ब्लॉक भमौरा, मझगंवा, फरीदपुर और रामनगर मलेरिया (पीएफ) की मार सबसे ज्यादा झेल रहे हैं. इस साल जनवरी से लेकर अगस्त 2018 तक पूरे जिले में कोई भी मलेरिया (पीएफ) केस दर्ज नहीं हुआ है. वास्तव में मलेरिया पीएफ का दर्ज आखिरी केस 2008 है. वो भी महज दो केस. इस बात को एक दशक बीत चुका है. हालांकि पिछले चार महीने में मझगंवा में 24, भमौरा में 7, रामनगर में 32 और फरीदपुर में 38 केस दर्ज किए गए. लेकिन यह सब के सब केस मलेरिया (पीवी) के थे जो कि घातक नहीं होता है. मलेरिया (पीएफ) का एक भी केस इस दौरान दर्ज नहीं किया गया.
मलेरिया की सामने दिख रही चुनौती की तरफ से आंख मूंदने में जिला अस्पताल की पैथ लैब भी पीछे नहीं रही. पैथ लैब ने IDSP को 10 सितंबर तक किए गए मलेरिया के टेस्ट के बारे में अपनी रिपोर्ट पेश की. इस रिपोर्ट के मुताबिक इस साल की जनवरी से लेकर 10 सितंबर तक पैथ लैब ने कुल 8862 मलेरिया टेस्ट किए. इसमें से एक भी टेस्ट पॉजिटिव नहीं था. जनवरी 2018 से 10 सितंबर 2018 तक मलेरिया के कुल 381 कार्ड टेस्ट किए गए. इसमें से महज एक रोगी को मलेरिया (पीवी) पाया गया. पैथ लैब के द्वारा किए गए कुल 9243 टेस्ट में से एक भी रोगी जानलेवा मलेरिया (पीएफ) से संक्रमित नहीं पाया गया.
यह डाटा बताते हैं कि सूबे के स्वास्थ्य विभाग ने चेतावनी देने के बावजूद जनपद में जरूरी संसाधन उपलब्ध नहीं करवाए. इधर जनपद के स्तर पर भी खतरे को पहले भांपने में बुरी तरह नाकाम रही. जनपद का स्वास्थ्य विभाग तब जाकर चेता जब स्थितियां हाथ से निकल गई थीं. उनकी इस लापरवाही की सजा दर्जनों लोगों को अपनी जान देकर भुगतनी पड़ी.
पढ़िए, इस सीरीज की पिछली कड़ी : बरेली: क्या बुखार से मरने वाले लोगों के आंकड़े छुपा रही है सरकार?
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