वीडियो एडिटर- संदीप सुमन
प्रोड्यूसर- शादाब मोइज़ी
10 सितंबर 2018. बरेली का गांव नूरपुर. घोड़ा बग्गी चलाने वाले छोटेलाल के पास ऐसा भाड़ा आया, जिसे मना करने का विकल्प उनके पास नहीं था. उनके गांव के प्रेमपाल को तेज बुखार था. वो प्रेमपाल और उनके परिवार को लादकर दो किलोमीटर दूर मझगवां ब्लॉक के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पहुंचे. यहां पहले से इतनी भीड़ थी कि आधी रात तक भी नम्बर आने के आसार नहीं थे. लिहाजा वो एक निजी क्लिनिक चले गए.
निजी क्लिनिक के डॉक्टर ने प्रेमपाल की स्थिति देखकर हाथ खड़े कर दिए. उसने सलाह दी कि मरीज की जान बचाने के लिए उन्हें अलीगंज या बरेली ले जाएं. छोटेलाल को पता था कि प्रेमपाल की बीवी नन्ही देवी के पास टेम्पो के भाड़े के भी पैसे नहीं हैं. गांव से चलते वक्त नन्ही ने अपनी कुल जमा पूंजी चालीस रुपए उन्हें सौंप चुकी थी. वो जैसे-तैसे प्रेमपाल को अलीगंज लेकर पहुंचे. लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. प्रेमपाल ने अस्पताल के मुहाने पर दम तोड़ दिया.
प्रेमपाल ऐसे अकेले नहीं हैं. पिछले एक महीने से बरेली, बदायूं, सहित कई जिले मलेरिया फेल्सीफेरम या मलेरिया पीएफ की मार झेल रहे हैं. उत्तर प्रदेश सरकार के आधिकारिक आंकड़े के मुताबिक, इस बुखार से अब तक मरने वालों की तादाद 84 पर पहुंच चुकी है.
अकेले बरेली में 13 से 24 सितंबर के बीच सरकारी जांच में मलेरिया के 17,110 रोगी पाए गए हैं. इसमें से 6071 मामले जानलेवा मलेरिया (पीएफ) के हैं. आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, 25 सितंबर तक इस रोग से बरेली जिले में 25 लोग मारे गए हैं. जिले के चार ब्लॉक मझगवां, रामपुर, फरीदपुर और भमौरा बुरी तरह से इस बीमारी की चपेट में हैं. मझगवां के बेहेटा बुजुर्ग में हालात सबसे ज्यादा खराब हैं. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, यहां बुखार से अब तक 9 मौतें हो चुकी हैं.
बेहेटा बुजुर्ग: मच्छरों की चांदमारी क्षेत्र
बगल के गांव बेहेटा बुजुर्ग के हालत तो और भी खराब हैं. आठ हजार की आबादी वाले इस गांव में अब तक बुखार की वजह से सबसे ज्यादा लोग मारे गए हैं. 25 सितंबर को जब हम इस गांव में पहुंचे, तो सुबह के दस बज रहे थे. गांव से नजदीकी कस्बे बिसारतगंज जाने वाली सड़क पर लोगों का तांता लगा हुआ था. लोग साइकिल और बाइक पर मरीजों को लादकर इलाज के लिए जा रहे थे. कई लोग ऐसे भी थे, जिनके लिए दवाइयां नाकाफी साबित हुई थीं और ऐसे लोगों की तादाद दर्जनों में हैं.
हालांकि गांव के प्रधान भगवान दास का आंकड़ा 9 और सरकारी आंकड़ा 4 पर रुका हुआ है. लेकिन जो भूपराम पर बीती, उसेआंकड़ों की जबानी बयान नहीं किया जा सकता.
भूपराम गांव के कश्यप मोहल्ले में रहते हैं, लेकिन यह उनका दस्तावेजी नाम है. गांव के लोग उन्हें नन्हे के नाम से बुलाते हैं. उनकी दाएं हाथ पर बड़े-बड़े अक्षरों में दर्ज है, 'नन्हे पुष्पा'. अपनी बीवी से बेइंतहा प्यार के चलते या फिर लड़के की उम्मीद में वो इसी महीने की 13 तारीख को पांचवीं दफा बाप बने हैं.
पांचवीं जचगी की वजह से कमजोर हो चुकी उनकी बीवी अभी बिस्तर पर ही थीं कि मुसीबतों ने उनके ऊपर धावा बोल दिया. 22 और 23 सितंबर की दरम्यानी रात उनकी सबसे छोटी लड़की बुखार से तपने लगी. उसे पिछले 3 दिन से बुखार आ रहा था, लेकिन 22 की शाम को उसकी हालत पहले से ठीक थी. वो आराम से खेल रही थी.
रात को 12.30 के आस-पास 2 साल की मीनाक्षी को तेज बुखार ने घेर लिया. पेशे से किसान भूपराम के पास साधन के नाम पर कुछ भी नहीं था. बाहर बारिश हो रही थी. उन्होंने मजबूरी में अपने पड़ोसी वीरपाल को जगाया. रात को एक बजे वो तेज बारिश में भीगते हुए बिसारतगंज के लिए रवाना हुए. वहां पहुंचते-पहुंचते मीनाक्षी ने दम तोड़ दिया. यह इस मोहल्ले की 10वीं मौत थी.
बेहटा बुजुर्ग में मौतों का आंकड़ा बड़ा गड्ड-मड्ड है. सरकारी आंकड़ों में इस गांव में अब तक चार मौतें मलेरिया फेल्सीफेरम की वजह से हुई हैं. वहीं गांववालों का आंकड़ा 40 से ज्यादा का है.
जब हम गांव से बरेली की तरफ लौट रहे थे, तो गांव के मुहाने पर मौजूद बब्बू अब्बासी के मकान के बाहर लोगों की भीड़ लगी हुई थी. 55 साल के बब्बू मियां का इंतकाल 25 सितंबर की सुबह ही हुआ था और लोग मातमपुर्सी के लिए यहां जुटे हुए थे. यह बुखार की वजह से उनके घर की तीसरी मौत थी.
23 अगस्त को बब्बू मियां की 25 साल की बहू नरगिस की मौत बुखार के चलते हुए हो गई थी. इसके 12 दिन बाद ही 3 सितंबर को बब्बू मियां के बड़े बेटे लक्की मिस्त्री का इंतकाल हो गया था.
बब्बू अब्बासी के पड़ोसी बाबू हसन भी मातमपुर्सी की लिए उनके घर पहुंचे हुए थे. मौत के सरकारी आंकड़े सुनने के बाद वो गुस्से से भर गए. बाबू कहते हैं:
“ये लोग क्या कह रहे हैं 9 ही मौतें हुईं. जिस दिन लक्की की मौत हुई थी ना, उस दिन गांव में एक साथ 6 लाशें उठी थीं. इसके सात दिन पहले 5 लोग एक साथ मरे थे. हर मोहल्ले में 10-5 आदमी मरे हैं. सिर्फ 9 मौतें कैसे हो सकती हैं? सरकार झूठ बोल रही हैं.”
नूरपुर के प्रधान देवीदास का बयान बाबू खान के दावों की तस्दीक करता है. वो कहते हैं, "हमारी ग्राम पंचायत में नेहरा-हसनपुर, प्रह्लादपुर और नूरपुर, तीन गांव लगते हैं. आदमी अस्पताल के चक्कर काट-काटकर परेशान है. हर घर में कोई न कोई बीमार है. इन तीनों गांवों में हर गांव में 8-10 लोगों की मौतें बुखार की वजह से हो चुकी हैं."
सरकारी आंकड़ों में नूरपुर से एक भी मौत दर्ज नहीं है. मीनाक्षी, प्रेमपाल, लक्की, नरगिस, हनीफ, बांके, मोतिनी, ओमपाल, गंगादेवी, चन्द्रकली, ओमपाल जैसे दर्जनों नाम भी इन दस्तावेजों में नहीं हैं.
सरकारी तंत्र के काम करने का अपना तरीका है. यह किसी भी आपदा को दो स्तर पर नियंत्रित करता है. पहला जमीन पर और दूसरा दस्तावेजों में. जिला प्रशासन की तरफ से मीडिया को मलेरिया फेल्सीफेरम से हुई मौतों के बारे में जो आंकड़ा उपलब्ध करवाया जा रहा है, वो महज 25 का है. कमाल की बात यह है कि अगर एक केस को छोड़ दें, तो इनमें से एक भी मौत जिला अस्पताल में नहीं हुई है. ये वो लोग हैं, जिनकी मौत घर या निजी अस्पतालों में हुई है.
मेडिकल विभाग ने उन लोगों की मौत की जांच करवाई, जिनके मरने की वजह बुखार बताई जा रही थी. इसमें से लक्षणों के आधार और लैब रिपोर्ट के हिसाब से 25 लोगों की मौत की वजह मलेरिया फेल्सीफेरम पाई गई. इस जांच में 21 ऐसे लोग भी हैं, जिनकी मौत की वजह मलेरिया फेल्सीफेरम की बजाए डेंगू या दूसरे किस्म के बुखार हैं. इस सरकारी दस्तावेजों में ही यह आंकड़ा 46 का हो जाता है.
इसके अलावा इस दस्तावेज में एक और बात गौर करने वाली है. 14 सितंबर और उसके बाद हुई चार मौतों की वजह के खांचे में मलेरिया फेल्सीफेरम साफ तौर पर लिखा गया है. इससे पहले हुई 21 मौतों में एक वजह के खांचे में एक ही मजमून चिपका दिया गया है, जो कि कुछ इस तरह है:
"एपडीमीओलॉजिकल ओरल ऑटोप्सी और मरीज की मेडिकल हिस्ट्री जांचने से मरीज के प्लेटलेट्स और हीमोग्लोबिन में गिरावट की बात सामने आई है. स्ट्रेन इंफेक्शन के साथ वायरल फीवर जैसे लक्षण दिखाई देते हैं."
हालांकि मेडिकल विभाग फिलहाल इन मरीजों की मौत की वजह मलेरिया फेल्सीफेरम मान तो रहा है, लेकिन यह सिर्फ जुबानी गुणा-भाग है. लिखित तौर पर इनमें से 21 लोगों की बीमारी के बारे में साफ तौर पर कुछ नहीं कहा गया है. शहर में निजी अस्पताल चलाने वाले एक डॉक्टर इस हवाले से मौजूं बात कहते नजर आते हैं:
दरअसल पिछले कई सालों से बरेली और आस-पास के इलाकों में अगस्त से अक्टूबर तक इस किस्म के रोगों की भरमार रहती है. पिछले तीन सालों से डेंगू के काफी मामले देखे गए थे. इस बार मलेरिया फेल्सीफेरम का जोर है. जब इस किस्म के रोग बेकाबू हो जाते हैं, तो प्रशासन का दबाव बढ़ जाता है.पिछले कुछ सालों में डेंगू के मामले में भी यही देखा गया. सरकार शुरुआत में मानने को तैयार नहीं थी कि यह डेंगू है. उस समय निजी अस्पताल सरकारी दबाव से बचने के लिए ‘डेंगू लाइक फीवर’ कहने लगे थे. यह इस साल भी हो रहा है.मलेरिया (पीएफ) संभलने का बहुत मौका नहीं देता. झोलाछाप डॉक्टर के भरोसे बैठे ग्रामीण लोग सबसे ज्यादा इसका शिकार बन रहे हैं. मौत का असल आंकड़ा सरकारी आंकड़े से काफी बड़ा है.
बरेली में 13 सितंबर से 24 सितंबर के बीच महज 10 दिनों में मलेरिया के 17,110 मामले सामने आए हैं. यह आंकड़े सिर्फ सरकारी एजेंसियों के हैं. इसके अलावा हेल्थ सेक्टर में निजी क्लिनिक से लेकर बड़े अस्पतालों तक का एक मकड़जाल है. यहां आ रहे रोगियों की संख्या अभी गणना से बाहर है. ऐसे में महज दो दर्जन लोगों के आंकड़ों को कितना भरोसेमंद माना जा सकता है?
इस बार बरेली में अगस्त के महीने में औसत से ढाई गुना ज्यादा बारिश हुई. मच्छरों के पनपने के लिहाज से यह उपजाऊ स्थिति है. लेकिन क्या सिर्फ बरसात को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है?
(इस रिपोर्ट की अगली कड़ी में जानिए कि कैसे सरकारी तंत्र के लचर होने के चलते एक आसानी से नियंत्रित हो सकने वाली बीमारी महामारी में तब्दील हो गई.)
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