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भीमा कोरेगांव केस में नया खुलासा: ऐसे सबूत बढ़ रहे हैं जो जांच पर उठाते हैं सवाल

Bhima Koregaon case:क्या कोर्ट बिना दोष साबित हुए जेलों में बंद एकैडमिक्स और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को रिहाई देगी?

Published
भारत
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सितंबर 2018 में जब भीमा कोरेगांव मामले (Bhima Koregaon Case) की शुरुआत हुई थी और महाराष्ट्र पुलिस एक्टिविस्ट्स के दूसरे समूह (सुधा भारद्वाज और गौतम नवलखा सहित) को गिरफ्तार करने की कोशिश कर रही थी, तो सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने कहा था- “महाराष्ट्र पुलिस ने निष्पक्ष जांच एजेंसी के रूप में काम किया है या नहीं, इस पर शंका जताने वाली परिस्थितियों को हमारे संज्ञान में लाया गया है. स्वतंत्र जांच की जरूरत जताने वाली सामग्री भी अदालत के सामने रखी गई है."

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बदकिस्मती से, यह राय सिर्फ जस्टिस चंद्रचूड़ की थी. बेंच के दो दूसरे जजों ने फैसला दिया था कि स्वतंत्रत जांच की कोई जरूरत नहीं है और देवेंद्र फडणवीस सरकार के तहत महाराष्ट्र पुलिस को बेकाबू होकर काम करने की इजाजत मिल गई थी.

लगभग चार साल बाद उन सबूतों के पुलिंदे बढ़ रहे हैं जो बताते हैं कि यह जांच कभी निष्पक्ष या सही थी ही नहीं.

हाल ही में वायर्ड मैग्जीन ने अपनी एक रिपोर्ट में काफी सनसनीखेज खुलासा किया है. इस रिपोर्ट में साइबर सिक्योरिटी फर्म सेंटीनलवन के नतीजों को शामिल किया गया है, जिनसे पता चलता है कि भीमा कोरेगांव मामले के आरोपियों को निशाना बनाने और उनके कंप्यूटरों में “आपत्तिजनक सामग्री” प्लांट करने वाले मालवेयर और पुणे पुलिस के एक अधिकारी की आपसी मिलीभगत है. यह अधिकारी इस जांच में शामिल था.

आर्सेनल कंसल्टिंग की पिछली डिजिटल फोरेंसिक जांच में कहा गया था कि रोना विल्सन और सुरेंद्र गाडलिंग के कंप्यूटरों में मामले (यह मामला प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रचने से संबंधित एक चिट्ठी मिलने का था) से जुड़े डॉक्यूमेंट्स को प्लांट करने के लिए नेटवायर मालवेयर का इस्तेमाल किया गया था.

अब सेंटिनलवन की जांच में पाया गया है कि मालवेयर का इस्तेमाल करके रोना विल्सन, वरवर राव और हनी बाबू के ईमेल एकाउंट्स के साथ छेड़छाड़ की गई थी, और हैकर्स ने उनके ईमेल अकाउंंट में नए रिकवरी ईमेल एड्रेसेज और फोन नंबर्स एड किए थे ताकि अगर वे तीन अपने पासवर्ड बदलने की कोशिश करें तो भी उन पर हैकर्स का कंट्रोल बना रहे.

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रिकवरी के लिए इस्तेमाल किए गए ईमेल एड्रेस और फोन नंबर कथित तौर पर पुणे पुलिस के एक अधिकारी के हैं जो जांच में शामिल था, जब तक कि इसे 2020 की शुरुआत में राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने अपने कब्जे में नहीं ले लिया था.

अब, जब हैंकिंग और पुलिस के बीच के रिश्ते के बारे में इतना बड़ा खुलासा हुआ है तो कोई पूछे- कोई इस मामले को इतनी सामान्य तरीके से कैसे ले सकता है?

क्या अदालत अब भी यही दिखावा करेगी कि सब कुछ सामान्य है और इन खतरनाक रिपोर्ट्स को अनदेखा करती रहेगी? या इस मामले में गलत तरीके से सलाखों के पीछे धकेले गए- वह भी दोष साबित हुए बिना- एकैडमिक्स, एक्टिविस्ट्स और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को सालों बाद आखिरकार रिहाई मिलेगी?

छेड़छाड़ और हैकिंग के बारे में इन खुलासों का आरोपी कैसे इस्तेमाल कर सकते हैं?

मालवेयर का इस्तेमाल, 'अपमानजनक' डॉक्यूमेंट्स को प्लांट करना और अब इससे पुलिस के रिश्ते, बेशक ये सब इस मामले में प्रासंगिक साबित होने वाले हैं.

जैसा कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस गोविंद माथुर कहते हैं, “अदालतों को ट्रायल के हर चरण में, और ट्रायल के बाद भी जांच की निष्पक्षता पर ध्यान देना चाहिए. यहां तक कि बेल एप्लिकेशन या सजा को रद्द करने की मांग करने वाली एप्लिकेशंस पर विचार करते समय, और दूसरी सभी कार्यवाहियों के दौरान यह देखा जाना चाहिए कि जांच निष्पक्ष थी या नहीं.”

लेकिन समस्या यह है कि अगर पारंपरिक प्रक्रिया का इस्तेमाल किया जाए या पूर्व मामलों को देखा जाए तो आरोपियों की रिहाई में काफी लंबा समय लगेगा.
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बदकिस्मती यह भी है कि ट्रायल से पहले, अदालतें किसी आरोपी के खिलाफ सबूतों की विस्तार से जांच नहीं कर सकतीं. चूंकि यह मामला गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) एक्ट से जुड़े आतंकी आरोपों का है, तो ऐसे में अदालतों से बेल मिलना बहुत मुश्किल है.

एनआईए ने आरोपियों के कंप्यूटरों की हैकिंग के दावों का खंडन किया है, इसलिए चाहे दावे कितने भी विश्वसनीय क्यों न हों, उनका इस्तेमाल करके यह साबित नहीं किया जा सकता है कि यह मुकदमा दुश्मनी और दुर्भावना से प्रेरित है. यानी वे दुर्भावनापूर्ण अभियोजन के स्पष्ट सबूत हैं. इन्हीं के आधार पर अंतरिम रिहाई या बेल हासिल की जा सकती है.

नतीजतन, भले ही निचली अदालत आरोपी के कंप्यूटरों की स्वतंत्र जांच करने को कहे, और अगर दोनों पक्षों की सुनवाई के बाद हैंकिंग का पता लग जाए, फिर भी, यह तभी हो सकता है, जब ट्रायल कोर्ट, सही तरीके से ट्रायल करे.

बेशक, समस्या यह है कि ‘ट्रायल चलते ही रहते हैं’, जैसा कि भारत में क्रिमिनल लॉ की मशहूर एक्सपर्ट सीनियर एडवोकेट रेबेका जॉन कहती हैं.

"इस मामले में आरोप तय नहीं हुए हैं, आरोपों पर बहस नहीं हुई है. ऐसे में ट्रायल कब शुरू होगा? ट्रायल शुरू होने के बाद 300-400 गवाहियां होंगी, तो आरोपी (महाराष्ट्र पुलिस के आतंकवादी रोधी दस्ते के) मनगढ़ंत सबूतों को कब चुनौती देंगे और इसके लिए एनआईए की मंजूरी कब मिलेगी? तो इन लोगों को इतने लंबे समय तक हिरासत में क्यों रहना चाहिए?”
द क्विंट से सीनियर एडवोकेट रेबेका जॉन ने कहा

अगर स्पेशल एनआईए कोर्ट बेल के समय इन बातों को ध्यान में नहीं रखती और ट्रायल कोर्ट सिर्फ बाद में इन पर गौर करता है तो इसक मतलब यह है कि व्यावहारिक तौर से इस समय ये खुलासे बेकार हैं? - बिल्कुल नहीं.

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अपने खिलाफ मालवेयर के इस्तेमाल का खुलासे होने के बाद रोना विल्सन ने बॉम्बे हाई कोर्ट में इस पूरे मामले की वैधता को चुनौती दी थी. कुछ दूसरे आरोपियों ने भी इसी आधार पर याचिकाएं दायर की थीं.

रेबेका पूछती हैं, "बॉम्बे हाई कोर्ट, जो एक ट्रायल कोर्ट के मुकाबले ज्यादा शक्तियों वाली संवैधानिक अदालत है, यहां कार्रवाई क्यों नहीं कर सकती?"

"आर्सेनल की रिपोर्ट बॉम्बे हाई कोर्ट में रखी गई है और मुझे लगता है कि अब समय आ गया है कि हाई कोर्ट इनका संज्ञान ले और इलेक्ट्रॉनिक डेटा की स्वतंत्र जांच का निर्देश दे, जो इस मामले का सार है," वह कहती हैं.

निष्पक्ष ट्रायल का अधिकार हमारा मौलिक अधिकार है जोकि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के दायरे में आता है. जस्टिस माथुर कहते हैं. इसका मतलब यह है कि हाईकोर्ट संवैधानिक अदालत के तौर पर अपने क्षेत्राधिकार का इस्तेमाल कर सकता है, और अगर उसे पता चलता है कि आरोपी के अधिकार का उल्लंघन हुआ है तो इस संबंध में कार्रवाई कर सकता है.

इन रिपोर्ट्स के साथ बॉम्बे हाई कोर्ट क्या कर सकता है?

हालांकि भीमा कोरेगांव के आरोपियों के डिवाइसेज को हैक करने वाली रिपोर्ट भरोसेमंद लगती है, लेकिन हाई कोर्ट तकनीकी रूप से किसी भी तरह की कार्रवाई करने के लिए उन पर भरोसा नहीं कर सकता.

एक काम जो वह कर सकता है, वह यह है कि रोना विल्सन और अन्य द्वारा दायर मामले के संबंध में, वह अपनी पसंद के किसी डिजिटल फोरेंसिक एक्सपर्ट से इसकी स्वतंत्र जांच करवाए. रेबेका जॉन का सुझाव है कि इसके लिए उसे किसी घरेलू एक्सपर्ट की बजाय किसी इंटरनेशनल एक्सपर्ट की मदद लेनी चाहिए. इससे यह सुनिश्चित होगा कि जांच निष्पक्ष तरीके से की गई है. इसके अलावा इंटरनेशनल एक्सपर्ट पर यहां के अधिकारी दबाव भी नहीं डाल पाएंगे.

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लेकिन सिर्फ यही नहीं. रेबेका जॉन का यह भी मानना है कि हाईकोर्ट इस मामले में पूरी जांच के लिए एक जांच आयोग नियुक्त कर सकता है, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में चार कथित बलात्कारियों के एनकाउंटर की जांच के लिए जस्टिस वीएस सिरपुरकर आयोग बनाया था.

आयोग ने हाल ही में अदालत को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि यह मुठभेड़ नकली थी और इसमें शामिल पुलिस अधिकारियों पर हत्या का मुकदमा चलाया जाना चाहिए.

रेबेका जॉन कहती हैं, “कम से कम आपके पास यहां भी सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज की अध्यक्षता वाला एक जांच आयोग होना चाहिए. अगर उस मामले में ऐसा हो सकता है जिसमें नेताओं से लेकर मशहूर हस्तियों तक ने पुलिस की पीठ थपथपाई थी, तो यहां ऐसा क्यों नहीं हो सकता?"

यह आयोग सबूत जमा करके, उन्हें बॉम्बे हाई कोर्ट के सामने रख सकता है. हाई कोर्ट, उस समय जैसा उचित हो, वैसा आदेश दे सकता है, जैसे आरोपी की अंतरिम रिहाई.

जस्टिस माथुर का मानना है कि इन हालिया खुलासों के मद्देनजर आरोपियों की अंतरिम रिहाई में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, क्योंकि अदालतें उनके सामने यह शर्त रख सकती हैं कि उन्हें मुकदमे के दौरान मौजूद रहना होगा.

क्या इन खुलासों के आधार पर कार्रवाई करना एक खतरनाक मिसाल कायम करेगा?

इस पर यह सवाल उठाया जा सकता है कि क्या हर आपराधिक मुकदमे में ऐसा होने लगेगा? आरोपी यह आरोप लगाते रहेंगे कि उनके खिलाफ सबूत प्लांट किए गए हैं, और फिर हाई कोर्ट उनकी रिहाई का आदेश दे देगा? क्या उचित प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया जाना चाहिए, और क्या ट्रायल के दौरान सभी मैटीरियल की जांच की जानी चाहिए?

आखिरकार भारत में यह पहला मामला नहीं, जब पूरा मामला झूठे सबूतों पर आधारित है या जबरन अपराध कबूल करवाया गया है या पुलिस ने हेराफेरी की है.

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"हम इसे सामान्य नहीं बना सकते," रेबेका जॉन कहती हैं. "लेकिन असाधारण परिस्थितियों में, जहां बहुत अधिक मैटीरियल है, आपको कम से कम यह दिखावा करने के तरीके और साधन तलाशने होंगे कि आप न्याय कर रहे हैं."

और रेबेका जॉन का मानना है कि पुलिस ने भीमा कोरेगांव मामले में जिस गलत तरीके से काम किया है, वह उन असाधारण स्थितियों में से एक है.

"यह काफी अविश्वसनीय है; एक आम आदमी को यह भी नहीं पता होगा कि ऐसी चीजें संभव हैं. यह सोचा नहीं जा सकता कि जिस समय आप कंप्यूटर का इस्तेमाल नहीं कर रहे, उस समय भी मैटीरियल्स आपके कंप्यूटर में डाले जा सकते हैं. यह एक आला दर्जे का अटैक है. यह देखते हुए कि किस तरह एक आम आदमी पर इस खतरे की आशंका है, और कैसे उसके खिलाफ एक मनगढ़ंत मुकदमा चलाया जा सकता है, और जबकि एक व्यक्ति की इस दौरान मृत्यु हो गई हो- हमें पूछना होगा कि कानून की प्रक्रिया का कैसे पालन किया जा रहा है."
द क्विंट से सीनियर एडवोकेट रेबेका जॉन ने कहा

रेबेका कहती हैं कि अधिकारी कानूनी प्रक्रिया का पालन करने के लिए वचनबद्ध हैं लेकिन वे बिल्कुल भी ईमानदारी से यह काम नहीं करते.

अगर प्रक्रिया संबंधी गलती होती है, तो कह दिया जाता है कि यह बहुत छोटी सी बात है, जैसे ट्रांजिट रिमांड हासिल न करना, या जैसा कि हमने भीमा कोरेगांव मामले में देखा है, ऐसी अदालत ने पुलिस को आरोप पत्र दायर करने के लिए अधिक समय दे दिया, जिसके पास ऐसा करने का अधिकार ही नहीं था.

लेकिन जैसे ही किसी व्यक्ति को जेल में रखने की प्रक्रिया में ढिलाई देने की बात आती है तो अभियोजन पक्ष और अदालतें कानूनी प्रक्रिया का सख्ती से पालन करने की बात करने लगती हैं.

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रेबेका 2005 के दिवाली विस्फोट मामले का उदाहरण देती हैं. उनके मुवक्किल, मोहम्मद रफीक शाह, उन आरोपियों में से एक थे जिन्हें आखिर में अदालत ने बरी कर दिया था.

उन पर दिल्ली आने और बम रखने का आरोप था. लेकिन वह शुरू से ही कह रहे थे कि वह उस दिन कश्मीर में अपने कॉलेज में थे और कॉलेज के रिकॉर्ड इसे साबित करेंगे.

दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल ने कथित तौर पर उनके कॉलेज के रजिस्ट्रार को एक चिट्ठी भेजी, लेकिन कथित तौर पर कोई जवाब नहीं मिला, जबकि रफीक ने 11 साल हिरासत में बिताए. अंत में, मुकदमे के दौरान रेबेका जॉन की टीम ने यूनिवर्सिटी के सभी रिकॉर्ड लाकर अदालत में जमा कराए जो साबित करते थे कि रफीक ने हमेशा सच कहा था.

क्या कानूनी प्रक्रिया का गुलाम होना और किसी व्यक्ति को वर्षों तक जेल में ठूंसे रखना सही है, भले ही इस बात के पुख्ता सबूत हों कि उस व्यक्ति को किसी मामले में झूठा फंसाया गया है?

चूंकि आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया गया, इसलिए भीमा कोरेगांव मामला नैतिक रूप से किसी भी अन्य मामले से बदतर नहीं, जहां पुलिस मनगढ़ंत सबूत ला रही है या बुरे इरादे के साथ काम कर रही है.

बल्कि ऐसे तकनीक को तो संवैधानिक अदालतों को शुरुआत में ही रोक देना चाहिए, यह देखते हुए कि कानून का पालन करने वाले नागरिकों को फंसाना कितना आसान है, चाहे वे कितने भी निर्दोष हों और चाहे वे कितनी भी सावधानी बरतें.

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रेबेका जॉन कहती हैं, "अदालतें और ट्रायल्स, और कानूनी प्रक्रियाएं ऐसी हैं कि हम सच्चाई तक पहुंच सकते हैं. जब आप सच्चाई की खोज में होते हैं, तो मुझे लगता है कि एक संवैधानिक अदालत को इनमें से कुछ चीजों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए जो उसके सामने आई हैं."

यूं सुप्रीम कोर्ट भी ऐसा कर सकता है, लेकिन 2018 में जिस तरह बहुमत का निर्णय कार्रवाई करने में असफल रहा, तो इसका मतलब यही है कि इसे नागरिक स्वतंत्रता के रक्षक के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए जो कि वह करेगा, जो जरूरी होगा.

बॉम्बे हाई कोर्ट के सामने आर्सेनल कंसल्टिंग रिपोर्ट के संबंध में कई अर्जियां हैं. इसे देखते हुए अदालत के पास यह सुनिश्चित करने का एक स्पष्ट मौका है कि वह भारतीय नागरिकों को राज्य की शक्ति के दुरुपयोग से बचाने के लिए खड़ी है.

हम सिर्फ यह उम्मीद कर सकते हैं कि वह तत्काल ऐसा करेगी, और इस समझ के साथ कि यहां अधिकारियों की कार्रवाई कितनी गंभीर है.

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