उत्तर भारत के चार बड़े राज्यों मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान और दिल्ली में साल 2021 में बच्चों की गुमशुदगी के मामलों में खासी बढ़ोतरी हुई है. चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई-CRY) की गुमशुदा बच्चों की स्थिति बताती रपट (स्टेटस रिपोर्ट ऑन मिसिंग चिल्ड्रन) में इसका खुलासा हुआ है. स्टेटस रिपोर्ट में यह सामने आया कि वर्ष 2021 में प्रदेश में लापता होने वालों में लड़कों के मुकाबले पांच गुना लड़कियां हैं.
अंतरराष्ट्रीय गुमशुदा बाल दिवस (25 मई) के मद्देनजर जारी हुई रिपोर्ट के अनुसार मप्र में साल 2021 में 10,648 बच्चे लापता हुए. जबकि मप्र में बच्चों की गुमशुदगी की 8,751 रिपोर्ट दर्ज हुईं (एनसीआरबी 2020), वहीं आरटीआई के जवाब में राज्य सरकार से मिली जानकारी के अनुसार यह आंकड़ा बढ़कर 10,648 हो गया. डाटा साफ-साफ बताते हैं कि 2020 से तुलना की जाए तो मप्र में बच्चों के गुमशुदा होने के मामलों में करीब 26 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई.
क्राई (उत्तर) की क्षेत्रीय निदेशक सोहा मोइत्रा बताती हैं कि ‘मप्र में 2021 में लापता होने वाले बच्चों में 83 प्रतिशत से ज्यादा लड़कियां हैं. पिछले साल मप्र में लापता लड़कियों के 8,876 मामले दर्ज हुए. यह बहुत चिंता का विषय है कि पिछले लगातार पांच सालों से लापता होने वालों में लड़कियों का अनुपात लगातार बढ़ता जा रहा है.’
मोइत्रा आगे कहती हैं कि, “इस स्टेटस रिपोर्ट में एनसीआरबी के डाटा का गहन विश्लेषण किया गया है, इसमें सामने आया कि पूरे भारत में लड़कियों के लापता होने के मामले साल 2016 में 65% से आनुपातिक रूप से बढ़कर 2020 में 77% तक पहुंच गए हैं. इन चारों राज्यों में यह ट्रेंड देखने को मिला, वहीं मप्र और राजस्थान में लापता बच्चों में लड़कियों का अनुपात सबसे ज्यादा है.“
मोइत्रा आगे कहती हैं, “लापता होने वालों में लड़कियों की ज्यादा संख्या की वजह घरेलू कामकाज में उनकी मांग, व्यावसायिक देह व्यापार हो सकता है और कई बार लड़कियां घरेलू हिंसा, दुर्व्यवहार और उपेक्षा का शिकार होकर मजबूरन घर से दूर भाग जाती हैं. महामारी के दौरान असंगठित क्षेत्र में सस्ते कामगारों की कमी के कारण बाल मजदूरों की मांग बढ़ी है, ऐसे में लापता लड़कों की संख्या भी चिंता का विषय है.“
मध्य प्रदेश में लापता बच्चों के मामले में शीर्ष 5 जिले
लापता बच्चों पर स्टेटस रिपोर्ट जारी करने की अनिवार्यता समझाते हुए सोहा मोइत्रा कहती हैं, “बच्चों के लापता होने और उनकी तस्करी के पीछे कई कारक जिम्मेदार हैं, खासकर किसी संकट की स्थिति में जैसे कोविड महामारी , जब परिवार की आय का स्रोत छिन जाता है. इससे तस्करों के लिए प्रभावित होने वाले परिवारों को नौकरी का लालच दिखाकर उनके बच्चों को बहलाना-फुसलाना आसान हो जाता है. कर्ज चुकाने का दबाव भी ऐसे परिवारों के बच्चों में मजदूरी और बाल विवाह बढ़ा देता है.“
मोइत्रा आगे कहती हैं, ‘जमीनी अनुभव बताते हैं कि कमजोर तबके के बच्चों के लापता होने या उनकी तस्करी का जोखिम सबसे ज्यादा होता है. घर में दुर्व्यवहार, घर में आजादी की कमी, सामाजिक मेलजोल का नहीं होना और तनाव संभावित कारण हो सकते हैं कि बच्चे घर से भाग जाते हैं.
दिव्यांग बच्चे या जो किसी मानसिक या शारीरिक स्वास्थ्य संबंधी परेशानी झेल रहे हैं, उनके भी लापता होने या तस्करी का खतरा ज्यादा होता है. कोविड के दौरान मास्क के अऩिवार्य रूप से इस्तेमाल के कारण तस्करों और अपहरणकर्ताओं को पहचान पाना और चुनौतीपूर्ण हो गया. इसके अलावा इस दौरान पुलिस वालों को लॉकडाउन का पालन करवाने जैसे अतिरिक्ति जिम्मेदारियां भी दी गईं. इसके चलते बाकी मामलों जैसे लापता बच्चों की जांच करने में कठिनाई हुई.’
मोइत्रा अपनी बात खत्म करते हुए कहती हैं कि “क्राई गुमशुदा बच्चों से संबंधित मामलों पर पिछले एक दशक से ज्यादा समय से काम कर रहा है, इस दौरान ऐसा पाया गया कि विभिन्न विभागों और अधिकारियों ने कई सक्रिय कदम उठाए हैं, लेकिन फिर भी कई बाधाएं हैं, जिसके कारण स्थिति कमोबेश एक जैसी ही बनी हुई है.
समय की जरूरत है कि बच्चों की सुरक्षा के लिए ग्रामीण स्तर पर सुरक्षा कमेटियां (विलेज लेवल चाइल्ड प्रोटेक्शन कमिटी- वीएलसीपीसी) बनाई जाएं, ताकि जमीनी स्तर पर निगरानी का एक मजबूत तंत्र सुनिश्चि हो सके. ठीक इसी दौरान, एंटी ह्यूमन ट्रैफिकिंग यूनिट (एएचटीयू) को मजबूत करने के लिए पर्याप्त संसाधन आवंटित किए जाने चाहिए और सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि वे इससे जुड़े हुए सभी हितधारकों के साथ मिलकर काम करें.“
कोविड-19 के दौरान राज्यों में गुमशुदा बच्चों की स्थिति दर्शाने के लिए इस रिपोर्ट में प्राथमिक या मुख्य और सहायक (सेकंडरी) दोनों डाटा का इस्तेमाल किया गया. सहायक डाटा, राष्ट्रीय आपराधिक रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की वार्षिक रिपोर्ट ‘भारत में अपराध’ (2016-2020)से लिया गया. कोविड-19 के दौरान, लापता बच्चों की घटनाओं का पता लगाने के लिए सूचना के अधिकार (आरटीआई) का प्रयोग महिला और बाल विकास मंत्रालय, गृह मंत्रालय और संबंधित राज्यों के राज्य पुलिस विभाग से डाटा जुटाने के लिए किया गया था.
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