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संडे व्यू: मुश्किल दौर में मुसलमान, न्याय पर चल रहा बुलडोजर

खतरे में शैक्षणिक आजादी, चूक नहीं है नफरती शब्दों पर चुप्पी, संडे व्यू में पढ़ें नामचीन लेखकों के विचारों का सार

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न्याय पर बुलडोजर

इंडियन एक्सप्रेस में तवलीन सिंह (Tavleen Singh) लिखती हैं कि वह शर्मसार हैं बूढ़ी महिला की उस तस्वीर को देखकर जिसमें उनके हाथों में दो फोटो हैं. एक अपने कच्चे मकान की और दूसरी उस पक्के मकान की जिसको उसने प्रधानमंत्री आवास योजना (PMAY) के तहत बनाया और जिस पर मध्यप्रदेश सरकार ने बुलडोजर चलवाया.

दंगाई बताकर घर तोड़ा गया या फिर अवैध मकान बताकर, लेकिन किसी भी सूरत में किसी सरकार को अदालती प्रक्रिया से बाहर रहते हुए मकान तोड़ने का अधिकार नहीं है. लेखिका का मानना है कि जंगलराज की नींव रखी जा रही है. कानून हाथ में लेने को बढ़ावा दिया जा रहा है. मुसलमानों को यह विश्वास हो चला है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार है उनको न नागरिकता की बराबरी मिलेगी, न न्याय मिलेगा.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि रामनवमी के जुलूसों के कई वीडियो सोशल मीडिया पर डाले गये हैं और इन सबमें साफ दिखता है कि हिंसा शुरू होने से पहले हिंदू युवकों के झुंड ने केसरिया लहराया था. भगवापोश साधुओं ने इतनी नफरत उगली हैं कि अगर उनकी जगह मौलवी होते तो वे आज जेल में होते. दुनिया की नजर में भारत इतना बदनाम हुआ है कि अमेरिकी विदेश मंत्री ने भारतीय विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री की मौजूदगी में भारत में मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाओं पर चिंता जता दी.

लेखिका का मानना है कि जो भारतीय पत्रकार नहीं कह पा रहे हैं वो विदेशी पत्रकार कह रहे हैं. वह सवाल करती हैं कि हमारी मीडिया में कितने लोगों ने ऊंचे स्वर में कहा है कि अभी तक मध्यप्रदेश सरकार को कोई अधिकार नहीं था लोगों के घरों पर बुलडोजर चलाने का? सुस्त कानूनी प्रक्रिया के हवाले से दंगाइयों को दंडित करने का समर्थन किया जा रहा है लेकिन इससे स्थिति बिगड़ेगी और जंगलराज की स्थापना होगी. लेखिका का मानना है कि दंगे जब होते हैं तो ताली दोनों हाथों से बजती है. किसी एक समुदाय को दंडित करना सही नहीं है.

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मुसलमानों के लिए मुश्किल दौर

टेलीग्राफ में असिम अमला लिखते हैं कि आजाद भारत में मुसलमान सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं. हलाला, हिजाब, लाउडस्पीकर जैसे मुद्दों पर विमर्श के बीच सांप्रदायिक हिंसा का दौर है. यह मुस्लिम विरोधी हिंसा केवल चुनावी दौर वाली हिंसा न होकर ज़मीनी स्तर पर अपने पैर पसारने लगी है. अब इसने अपनी गति पकड़ ली है और यहां तक कि इस पर कोई एकीकृत कमान नहीं रह गया है.

रामनवमी के दौरान कई प्रदेशों में हुई हिंसा इसके प्रमाण हैं. दो अन्य वास्तविकताएं मुसलमानों के भविष्य को लेकर निराशावाद को जन्म दे रही हैं. एक, बीजेपी का शासन लंबे समय के लिए लगने लगा है. दूसरा, लोकतांत्रिक संस्थानें कमजोर पड़ने लगी हैं जिनमें विपक्ष, नौकरशाही, मीडिया, सिविल सोसायटी और कथित तौर पर न्यायपालिका भी शामिल है.

आसिम अमला लिखते हैं कि यूपी में मुसलमानों के पास एक से अधिक विकल्प हैं जो अन्य राज्यों में नहीं हैं. सिद्धांत रूप में बीजेपी के साथ वास्तविकता पर आधारित संबंध मुसलमानों को नजर नहीं आ रहा है. बीजेपी शासित राज्यों में दंगे नहीं होने का दावा किया जा रहा है.

वहीं दावा यह भी किया जा रहा है कि हर चुनाव में मुसलमान 5 से 10 फीसदी तक बीजेपी को वोट कर रहे हैं. इसके बावजूद बीजेपी मुसलमानों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने को तैयार नहीं है. विदेश नीति के स्तर पर बीजेपी को निश्चित रूप से परेशानियों का सामना करना होगा अगर दुनिया में बीजेपी सरकार की छवि बेहतर नहीं होती है.

बीजेपी ने मुस्लिम नेतृत्व से दूरी बना ली है. इसके अलावा भारत में मुसलमानों के अलावा दूसरा ऐसा समुदाय नहीं है जिसे निशाने पर रखकर बहुसंख्यकों को गोलबंद किया जा सकता है. पश्चिम के देशों में स्थानीय और बाहरी के बीच की लड़ाई के तौर पर यह वर्ग नज़र आता है लेकिन भारत में स्थिति अलग है. लब्बोलुआब यह है कि बीजेपी और मुसलमानों के बीच बेहतर संबंध के लिए कोई मोलभाव वाली स्थिति नहीं है. केवल वास्तविकताओं के आधार पर ही बेहतर संबंध के विकल्प रह जाते हैं.

चूक नहीं है नफरती भाषणों पर चुप्पी

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि कर्नाटक में 2023 में होने वाले चुनावों के मद्देनजर हिजाब, हलाल और अजान से विवादों से हंगामा मचा है. कोशिश कर्नाटक को हिन्दू और मुसलमान में बांटने की है. जब से इस्लाम भारत आया तभी से हिजाब, हलाल और अजान का प्रचल है और कभी किसी ने इनका विरोध नहीं किया.

भाजपा की कर्नाटक में पैठ बहुत पुरानी नहीं है. मगर, अब वह दूसरे दलों से विधायकों को तोड़ कर सरकार चला रही है. इसके लिए ऑपरेशन लोटस चलाए गये. अब गैर बीजेपीदलों ने खरीद-फरोख्त से बचने के तरीके मजबूत किए हैं तो बीजेपी को अब अलग किस्म से पटकथा लिखनी पड़ रही है.

चिदंबरम लिखते हैं कर्नाटक में इतिहासकार रामचंद्र गुहा और उद्योगपति किरण शा मजूमदार जैसे अपवादों को छोड़ दें तो नफरती बातों का प्रतिकार नहीं दिखा है. उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड जैसे कुछ राज्यों में नफरती संवाद सारी सीमाएं तोड़ चुका है. पिछले साल हरिद्वार में हुए धर्मसंसद में मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ बेहद अपमानजनक टिप्पणियां हुईं.

यति नरसिंहानन्द ने भविष्य में मुस्लिम प्रधानमंत्री की संभावना रखकर उसके कथित दुष्परिणामों की चर्चा की है. एक अन्य स्वयंभू धार्मिक नेता महंत बजरंग मुनि ने मुस्लिम महिलाओँ को उनके घरों से उठा लेने और बलात्कार करने की धमकी दे डाली है.

11 दिनों के बाद उनकी गिरफ्तारी हुई है. लेखक यह मानने को तैयार नहीं है कि ये घटनाएं अतिरेक में हुई घटनाएं हैं. इन्हें बीजेपी का समर्थन मिला हुआ है. लेखक का मानना है कि बढ़ती असहिष्णुता के बीच देश के शीर्ष कर्ताधर्ताओं ने जो सोची-समझी चुप्पी साध रखी है वह महज चूक नहीं है.

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दुनिया से बेहतर हाल में भारतीय अर्थव्यवस्था

टीएन नाइनन ने लिखा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की अर्थव्यवस्था से बेहतर दिख रही है. अमेरिका में मुद्रास्फीति 8.5 फीसदी है तो यूरो क्षेत्र में 7.5 फीसदी. भारत में उपभोक्ता मूल्य महंगाई दर 7 फीसदी से कम है. ब्रिक्स देशों की तुलना करें तो ब्राजील में 11.3 फीसदी महंगाई दर है तो रूस में 16.7 फीसदी.

केवल चीन में ही महंगाई दर नियंत्रित है जो 1.5 फीसदी के स्तर पर है. भारत के लिए आर्थिक वृद्धि दर का अनुमान 2022 के लिए 7.2 फीसदी है. यह बेहतर स्थिति है. बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में 5.5 फीसदी की वृद्धि दर के साथ चीन ही थोड़ा बेहतर है. अमेरिका 3 फीसदी और यूरो क्षेत्र 3.3 फीसदी के साथ आर्थिक वृद्धि दर के हिसाब से धीमी गति से प्रगति करता दिख रहा है. ब्राजील जीडीपी में 10.1 फीसदी की गिरावट के अनुमान के साथ गहरे संकट की ओर अग्रसर है.

नाइनन लिखते हैं कि रुपया किसी अन्य मुद्रा की तुलना में बेहतर है. बीते 12 महीनों में डॉलर की तुलना में इसमें केवल 1.4 फीसदी की गिरावट आयी है. युआन के अलावा ब्राजील, इंडोनेशिया और मैक्सिको की मुद्राएं ही मजबूत हुई हैं. फिर भी अच्छी खबर का लगातार टिके रहे, कहना मुश्किल है. तेल कीमतें ऊंची बनी हुई हैं.

इसलिए रुपया गिर सकता है. अगर अमेरिका की अर्थव्यवस्था मंदी की ओर बढ़ती है तो दूसरी अर्थव्यवस्थाएं भी प्रभावित होंगी. वैश्विक व्यापार धीमा हुआ तो भारत का निर्यात भी गति खो देगा. सच यह भी है कि भारत में एक तिमाही पहले की तुलना में वृद्धि के सारे अनुमान कम हुए हैं.

नाइनन लिखते हैं कि मुद्रास्फीति की दर लगातार बिगड़ी है. मासिक उत्पादन के आंकड़े कमजोर रहे हैं जबकि सर्वे बताते हैं कि कारोबारी मिजाज में कमी आयी है. आरबीआई का अनुमान है कि 2022-23 की दूसरी छमाही में वृद्धि दर 4.1 फीसदी से अधिक नहीं रहेगी. उसके बाद तेजी आ सकती है.

यूक्रेन युद्ध लंबा खिंचता दिख रहा है और कोविड महामारी की एक और लहर आती दिख रही है. चीन का शहर शंघाई बंद है. ऐसे में अच्छे आंकड़ों के बावजूद भारत के लिए बहुत उत्साहित होने की बात नहीं है. दुनिया अभी भी संकट से जूझ रही है.

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खतरे में है शैक्षणिक आजादी?

करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में ऑस्ट्रेलिया इंडिया इंस्टीट्यूट के 13 प्रोफेसरों के इस्तीफे का सवाल उठाया है. शिक्षण में भारतीय उच्चायोग के कथित हस्तक्षेप के विरोध में ये इस्तीफे हुए हैं. ऑस्ट्रेलिया की मीडिया में यह खबर सुर्खियों में है लेकिन भारत की मीडिया में यही खबर नदारद है. यह मामला भारत की छवि से जुड़ा है.

ऑस्ट्रेलियाई अखबार द एज और एक अन्य वेबसाइट साउएशियनटुडे.कॉम.एयू ने बताया है कि मेलबॉर्न यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर को लिखे पत्र में इस्तीफा देने वाले प्रोफेसरों ने भारतीय उच्चोयग पर शैक्षणिक आजादी का उल्लंघन करने के आरोप लगाए हैं. इन 13 में से एक इयान उलफोर्ड का कहना है कि उन्होंने सरकारी हस्तक्षेप और एकेडमिक आजादी में प्रतिबंध के कारण इस्तीफा दिया है.

करन थापर बताते हैं कि द एज और वेबसाइट ने कथित हस्तक्षेप के तीन उदाहरण रखे हैं. पहला उदाहरण 2019 का है जबभारतीय उच्चायुक्त के हस्तक्षेप के बाद एक बहुप्रचारित इवेंट को केवल सेमिनरा के तौर पर निजी निमंत्रण में बदल दिया गया था. ‘की वर्ड्स फॉर इंडिया वायलेंस’ इसका विषय था और इसमें मुसलमानों के खिलाफ हिन्दू राष्ट्रवादी समूह की हिंसा पर चर्चा होनी थी.

दूसरा उदाहरण है जब महात्मा गांधी से जुड़े मुद्दे पर लिखी शैक्षणिक सामग्री को इंस्टीच्यूट ने प्रकाशित करने से मना कर दिया. इंस्टीच्यूट ने एक पोडकास्ट की भी अनुमति नहीं दी जिसका शीर्षक था- “कास्ट एंड द कॉरपोरेशन इन इंडिया एंड एब्रॉड”. लेखक ने इंस्टीच्यूट के संस्थापक डायरेक्टर अमिताभ मट्टू से बातचीत के हवाले से बताया है कि ऑस्ट्रेलिया की मीडिया को जवाब दे पाना भारतीय अधिकारियों के लिए मुश्किल हो रहा है हालांकि उनका दावा है कि किन्हीं ने इस्तीफा नहीं दिया है बल्कि सबका कार्यकाल खत्म हो रहा था.

हालांकि लेखक ने इस्तीफे स्वीकार किए जाने की पुष्टि की है. लेखक दो सवाल छोड़ जाते हैं. पहला सवाल है कि हमारी मीडिया इस विषय पर पूरी तरह खामोश क्यों है? दूसरा सवाल है कि सरकार खुलकर इस आरोप का खंडन क्यों नहीं कर रही है कि भारतीय उच्चायुक्त एकेडमिक मामलों में कोई हस्तक्षेप कर रहा है? जब उच्चायुक्त दोषी ठहराए जाएंगे तो जवाब कौन देगा?

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