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संडे व्यू : देश में ‘नफरती फ्रिंज उत्सव’, खबरदार होंगे मोदी?

पढ़ें टीएन नाइनन, पी चिदंबरम, मुकुल केसवान, तवलीन सिंह, शोभा डे के विचारों का सार.

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भारत
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देश में ‘नफरती फ्रिंज उत्सव’

शोभा डे ने एशियन एज में लिखा है कि वर्षों पहले उनकी मां फ्रिंज कट बाल कटाया करती थीं जिसे तब फिल्म अभिनेत्री साधना के नाम से जाना जाता था. वास्तव में पूरे भारत में ‘साधना कट’ का एक क्रेज था. इस हफ्ते एक अलग किस्म के ‘फ्रिंज’ की चर्चा रही और वह है ‘फ्रिंज एलिमेंट्स’. बीजेपी की निलंबित प्रवक्ता नुपुर शर्मा और निष्कासित दिल्ली मीडिया प्रमुख नवीन कुमार जिन्दल को पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने ‘फ्रिंज एलिमेंट्स’ घोषित कर दिया. दोनों ने ऐसा काम किया था कि हिन्दुस्तान की दुनिया में फजीहत होने लगी थी. लीबिया, इंडोनेशिया, सऊदी अरब, यूएई, जॉर्डन, बहरीन, अफगानिस्तान, कतर, कुवैत और ईरान जैसे देश भी इस वक्त हमें कचरा का डब्बा बता रहे हैं. राहुल बाबा ने यह कहकर खुद को ‘फ्रिंज’ बना लिया है कि ‘फ्रिंज ही बीजेपी का कोर’ है.

शोभा डे लिखती हैं कि नाबालिग बलात्कारियों को ‘अति सक्रिय’ बताने की तर्ज पर शायद ही इन दो प्रवक्ताओं को नजरअंदाज किया जा सकता है. ‘फ्रिंज एलिमेंट्स’ को इतना महत्वपूर्ण स्थान नहीं दिया जा सकता. बीजेपी के शीर्ष नेताओँ के साथ नुपुर शर्मा की तस्वीरें, उन्हें ट्विटर पर फॉलो करने वाले बीजेपी ने शीर्षस्थ नेताओं के सबूत जल्द ही वायरल होने लग गये. पूछा जाने कि उन्हें भी ‘फ्रिंज’ कहा जाए? क्या पार्टी उनके मुसलमानों से नफरत वाले व्यवहार से अवगत नहीं थी या फिर इसी कारण उनका चयन किया गया था?

इन्हीं सवालों के बीच समस्या को देखा जा सकता है. शायद मुस्लिम विरोध के उनके अतीत के कारण ही उन्हें पुरस्कृत किया गया हो. मगर, इस बार बयान उल्टा पड़ गया. वैश्विक आलोचना का तूफान पैदा हो गया. क्या केवल नुपुर और जिन्दल को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? वे तो बस अपना काम कर रहे थे. अगर आधिकारिक प्रवक्ता पर कार्रवाई यह कहकर हो सकती है कि वे फ्रिंज हैं तो उन पर क्यों नहीं जिन्होंने उन्हें नियुक्त किया? देखना यह है कि देश कब तक ‘नफरती फ्रिंज उत्सव’ से खुद को अलग रखने का बहाना कर पाता है.

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विपक्ष ने नहीं दुनिया ने मोदी को किया है खबरदार

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में द ग्रामोफोन कंपनी का नाम एचएमवी रखे जाने से जुड़ा दिलचस्प किस्सा बताते हुए लिखा है कि लिवरपूल में एक चित्रकार रहते थे फारांसिस बैरोड. उनके एक भाई थे मार्क. मार्क की आवाज़ उनके पास मौजूद पुश्तैनी फोनोग्राफ प्लेयर में था. जब भी वह उसे बजाते तो पालतू कुत्ता निपर पहुंच जाता.

समझने की कोशिश करता कि आवाज़ कहां से आ रही है. इस दृश्य को चित्रकार ने चित्र का रूप दे दिया जिसे ग्रामोफोन कंपनी ने खरीद लिया. 2014 में कंपनी ने नीले फलक से निपर को अमर बना दिया. दरअसल लेखक ने निपर की तुलना नुपुर से की है और ग्रामोफोन कंपनी की बीजेपी से.

चिदंबरम लिखते हैं नुपुर पर कार्रवाई वाले पत्र में बीजेपी ने लिखा है-“आपने कई मुद्दों पर पार्टी के नजरिए के विपरीत विचार व्यक्त किए हैं.” चिदंबरम हैरत में हैं कि बीजेपी का नजरिया क्या है मुसलमानों और ईसाइयों को लेकर! वे लिखते हैं कि 2012 में गुजरात की चुनावी रैली में नरेंद्र मोदी कहते हैं-“अगर हम पांच करोड़ गुजरातियों का आत्मसम्मान और मनोबल बढ़ाते हैं तो अली, मली और जमाली की योजनाएं हमें कोई नुकसान नहीं पहुंचा पाएंगी.”

2017 में नरेंद्र मोदी ‘सबका साथ, सबका विकास’ का विचार रखते हुए कहते हैं- “अगर आप एक गांव में एक कब्रिस्तान बनाते हैं तो एक श्मशान भी बनाना चाहिए. इसमें कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए.“ 11 अप्रैल 2019 को अमित शाह को हमने सुना था- “हम पूरे देश में एनआरसी लागू करना सुनिश्चित करेंगे. बौद्धों, हिन्दोँ और सिखों को छोड़कर हम देश से एक-एक घुसपैठिए को बाहर कर देंगे. बाजपा का वादा है देश को घुसपैठियों और अवैध आव्रजकों जैसे दीमक से बचाने का.

ये उस अनाज को चट कर जा रहे हैं जो गरीबों को मिलना चाहिए, ये हमारी नौकरियां छीन रहे हैं.” झारखण्ड की एक चुनावी रैली में 15 दिसंबर 2019 को प्रधानमंत्री ने कहा था-“आग लगाने वालों को उनके कपड़ों से पहचान लिया गया था.” उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने बार-बार कहा- “मुकाबला बहुत आगे बढ़ चुका है. लड़ाई अब अस्सी बनाम बीस की है.” नुपूर-नवीन ने इन भाषणों में बीजेपी का नजरिया बहुत अच्छे से समझा होगा.

चिदंबरम लिखते हैं कि कांग्रेस सहित विपक्ष ने भाजपा और सरकार को उसकी अल्पसंख्यक विरोधी नीतियों और भय के बारे में बार-बार चेताया है. एंटी रोमियो दस्ता, लव जिहाद अभियान, सीएए, एनआरसी, धारा 370 निरस्त करने, राज्य विधानसभाओं में धर्मांतरण विरोधी विधेयकों, हिजाब, हलाल और अजान जैसे बेतुके मुद्दों को हवा देने, समान नागरिक संहिता और ऐसे कई अन्य मसलों जो स्पष्ट रूप से इस्लाम को लेकर खौफ पैदा करते हैं, के बारे में विपक्ष ने सरकार को चेताया है. लेखक को दुख है कि प्रधानमंत्री ने निंदा का एक शब्द भी नहीं कहा है. इस बार विपक्ष ने नहीं, बल्कि दुनिया ने मोदी को खबरदार किया है.

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भारत इतना बदनाम कभी न हुआ

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि भारत जितना बदनाम बीते हफ्ते हुआ है उतना शायद पहले कभी नहीं हुआ होगा. दुनिया के तकरीबन हर इस्लामी देशों ने स्पष्ट किया कि किसी हाल में वे इस्लाम के रसूल का अपमान सहने को तैयार नहीं हैं. भारत सरकार को गभीरता का अहसास तब हुआ जब कतर में मौजूद भारतीय उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू के लिए तय भोज रद्द कर दिय गया. उसके बाद बीजेपी को अपने दोनों प्रवक्ताओं पर कार्रवाई करनी पड़ी. तब तक इस्लामी देशों में इतना गुस्सा फैल गया था कि दुकानों से भारतीय सामान का बहिष्कार शुरू हो चुका था.

तवलीन सिंह सवाल करती हैं कि अगर यह सब नहीं होता तो क्या बीजेपी अपने प्रवक्ताओं पर कार्रवाई करती? नुपूर शर्मा के ऑप इंडिया.कॉम पर दिए गये इंटरव्यू के हवाले से वह लिखती हैं कि नुपुर को शाबाशी दी जा रही थी और शीर्ष नेता कोई चिंता नहीं करने का भरोसा दिला रहे थे. नुपुर को निलंबित किया गया, निष्कासित नहीं. शायद उम्मीद रही हो कि मामला ठंडा होने के बाद चुपके से उन्हें पार्टी मे दोबारा वापस ले आया जाएगा. ऐसा क्यों ना हो? भारतीय जनता पार्टी के सारे प्रवक्ता टीवी पर मुसलमानों और इस्लाम के खिलाफ रोज बोलते हैं और उनके खिलाफ कभी कोई कार्रवाई नहीं हुई.

इस्लाम की बेअदबी के बाद नुपुर को माफी जरूर मांगनी पड़ी है लेकिन उन्होंने भी माफीनामे में सफाई दी है कि उनसे महादेव का अपमान बर्दाश्त नहीं हुआ. शिवलिंग-फव्वारा विवाद में ठीकरा उन्होंने मौलवियों पर फोड़ दिया. धर्म और राजनीति को घ़ृणित तरीके से घालमेल किया गया है जिसके नतीजे देश को भुगतने पड़े हैं. लेखिका मीडिया की भूमिका पर भी सवाल उठाती हैं. सवाल करती हैं कि जब नुपुर टीवी चैनल पर बेअदबी कर रही थीं तब उन्हें रोकने-टोकने की जरूरत भी क्यों नहीं समझी गयी?

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मुद्रास्फीति जनित मंदी की मार

टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में भारत की आर्थिक स्थिति को मुद्रास्फीति जनित मंदी करार दिया है. यह वह स्थिति होती है जब मुद्रास्फीति और बेरोजगारी दोनों ऊंचाई की ओर एक दिशा में होते हैं. 1970 में मुद्रास्फीति जनित मंदी की अवधारणा सामने आयी थी. इसे मिजरी इंडेक्स यानी कष्ट आधारित सूचकांक का नाम दिया गया था.

इन दिनों मिजरी इंडेक्स में दो संशोधन हुए हैं. इसमें ब्याज की प्रचलित दर शामिल की गयी है और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि दर को भी शुमार किया गया है. पहले संशोधन के कारण भारत 20 अर्थव्यवस्थाओं की सूची में 10 के नीचे पहुंच गया, जबकि दूसरे संशोधन के बाद मुद्रास्फीति, बेरोजगारी, ब्याज दर और आय वृद्धि के कारकों को ध्यान में रखते हुए 20 देशों की सूची में भारत 12वें स्थान पर पहुंच गया.

टीएन नाइनन लिखते हैं कि 2013 में राजकोषीय घाटा और चालू खाते के घाटे में तेज बढ़ोतरी की वजह से भारत पांच ऐसे देशों के समूह में शामिल हो गया था जिनकी हालत वास्तव में बहुत नाजुक थी. नाइनन लिखते हैं कि आज भारत की स्थिति अमेरिका और इंग्लैंड से अच्छी है. युद्धरत रूस अपने अधिशेष की वजह से ठीक हैं.

जर्मनी-नीदरलैंड भी अधिशेष के कारण ही ठीक हैं. चीन और जापान का आर्थिक प्रबधन आदर्श नज़र आता है. मिजरी इंडेक्स और दोहरे घाटे के मामलों में भी ये दोनों देश बेहतर हैं. लेखक का सुझाव है कि विशुद्ध आय स्तर और गरीबी एवं असमानता का भी आकलन होना चाहिए. वे ग्रेट गैट्सबी कर्व का उदाहरण रखते हैं जिसके जरिए एक पीढी में संपत्ति का संघनन और अगली पीढ़े के लोगों में अपने मां-बाप की तुलना में बेहतर आर्थिक स्थिति पाने की क्षमता का पता लगाया जाता है. भारत इन पैमानों पर अच्छी स्थिति में नहीं है.

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पानी ना हो तो नल क्या करे

मुकुल केसवान ने टेलीग्राफ में भारत में पानी की किल्लत पर अपने अनुभवों से रोशनी डाली है. साठ के दशक में दिल्ली के कश्मीरी गेट में बचपन गुजारते समय नल वाला पानी उन्होंने इस्तेमाल करना शुरू किया था. दिल्ली वालों के लिए यह हवा की तरह था- कभी खत्म नहीं होने वाला, जब चाहो इस्तेमाल करो.

जब परिवार दक्षिण दिल्ली के सरकारी मकान में शिफ्ट हुआ तो पानी के इस्तेमाल करने का तरीका भी वही रहा. मगर, यहां निश्चित समय पर सुबह 11 बजे और शाम 4 बजे नलों में पानी आया करता और उसके अनुसार बाल्टियां भरी जातीं. जल्द ही जलापूर्ति का यह तरीका भी बदल गया. अब पानी आता, मगर प्रवाह की धार बहुत तेज न होती.

मुकुल केसवान लिखते हैं कि सत्तर के आरंभिक दशक में छतों पर वाटर टैंक दिखने लगे थे. झरने-गीजर घर-घर लगने लगे थे. बाथरूम बढ़ते गये, पानी की आपूर्ति घटती गयी. दिल्ली के बंगलों में बोर वेल लगने लगे. गहराई बढ़ने लगी. पानी की टंकियो में पानी चढ़ाने के लिए इलेक्ट्रिक पंप का इस्तेमाल होने लगा. 50 फुट की ऊंचाई पर कंक्रीट वाला पानी टंकी का दौर भी आया जहां से कॉलोनियों में पानी का वितरण हुआ करता था.

अब वे भी स्मारक बन चुके हैं. प्लास्टिक का सिन्टैक्स वाटर टैंक और क्रॉम्प्टन पंप अब आधुनिकता का प्रतीक बनने लगे. इनमें पानी भरा रहे, इसके लिए पंपों का इस्तेमाल हुआ. जब ये भी नाकाम साबित होने लगे तो म्यूनिसिपल के पाइप लाइन से सीधे कनेक्शन अवैध रूप से जोड़े जाने लगे. फिर ऐसी युक्ति बनी कि पानी का अहसास होते ही पंप चल जाए. सब लोग इसी राह पर चले तो यह युक्ति भी फेल होने लगी. पानी न हो तो नल से पानी कैसे मिल सकता है.

अब एक बार फिर वह दौर आ चुका है जब म्यूनिसिपल की टैंक गाड़ी के आने का इंतज़ार होता है. ‘टैंकर आ गया’ के शोर के बीच आपाधापी मचती है. लेखक को वह समय याद आता है जब वह छोटे थे. जादूगर बर्तन को खाली दिखाकर जमीन पर रख दिया करता था. फिर उसे उठाते हुए थोड़ा झुकाकर उससे पानी गिराते हुए जादू करता था- ये है भारत का पानी. अब जब वाकई पानी के बर्तन खाली हैं तो क्या वही चमत्कार हो सकता है!

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