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पंजाब-हरियाणा में पराली जलाने की घटनाओं में कमी आई, क्या आंकड़े पूरी तरह से सही हैं?

Stubble Burning Cases: 15 सितंबर-28 अक्टूबर 2022 के बीच की अवधि की तुलना में इस साल पंजाब में पराली जलाने की घटनाओं में 56% और हरियाणा में 40% की कमी आई है.

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भारत
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वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (CAQM) ने 30 अक्टूबर को एक प्रेस रीलीज में कहा कि 15 सितंबर और 28 अक्टूबर 2022 के बीच की अवधि की तुलना में इस साल पंजाब (Punjab) में पराली जलाने (Stubble Burning) की घटनाओं में 56 प्रतिशत और हरियाणा में 40 प्रतिशत की कमी आई है.

ये दोनों राज्य, पराली जलाने की घटनाओं में सबसे अधिक योगदान देते हैं - और पराली जलने की समस्या दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण बढ़ाने के फैक्टर्स में से एक है.

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ये आंकड़े केवल शुरुआती रुझान हैं - और हार्वेस्टिंग के दौरान खेतों में लगाई जाने वाली आग को लेकर पूरी तस्वीर पेश नहीं करते हैं, जो 30 नवंबर तक समाप्त हो जाएगी.

लेकिन समय-सीमा के अलावा, वैज्ञानिकों का कहना है कि केवल ये डेटा पराली जलाने की घटनाओं में कमी को दिखाने लाने के लिए पर्याप्त नहीं है.

भारत में पराली जलाने के आंकड़ों की गणना कैसे की जाती है? क्या चिंताएं हैं? ये समझते हैं.

पराली जलाने का डेटा किस तरह से महत्वपूर्ण है?

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के अनुसार, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में चावल-गेहूं की फसल के बाद बचे हुए अवशेषों को जलाना मतलब पराली जलाना होता है.

सर्दियों के मौसम में दिल्ली-एनसीआर में हवा की गुणवत्ता खराब होने में पराली जलाने का कितना योगदान होता है?

इसका जवाब वास्तव में इस बात पर निर्भर करता है कि आप किस डेटा सेट को देख रहे हैं, आप किस राजनीतिक दल से पूछ रहे हैं और हवा की गति और दिशा किस तरफ है. उदाहरण के लिए:

  • इंडियास्पेंड के विश्लेषण के अनुसार, अक्टूबर और नवंबर 2022 के दौरान वायु गुणवत्ता और मौसम पूर्वानुमान और अनुसंधान प्रणाली (SAFAR) के आंकड़ों से पता चला है कि दिल्ली में दैनिक पीएम 2.5 लेवल में पराली जलने का अधिकतम योगदान 34 प्रतिशत था.

  • 2021 में, केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर किया था, जिसमें दावा किया गया कि फसल जलाने वाले अवशेष वायु प्रदूषण में सिर्फ 4 प्रतिशत का योगदान देते हैं. लेकिन उसी हलफनामे के एक अन्य खंड में, सरकार ने कहा कि पराली जलाने से दिल्ली में 35-40 प्रतिशत पीएम 2.5 का योगदान होता है.

इस डेटा की कैसे गणना होती है? SAFAR के पूर्व प्रोजेक्ट डाइरेक्टर डॉ गुफरान बेग ने कहा कि CAQM प्रोटोकॉल खुले में लगी आग पर नजर रखने के लिए NASA की फायर इंफोर्मेशन संसाधन प्रबंधन प्रणाली (FIRMS) के उपयोग का सुझाव देते हैं.

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क्विंट हिंदी से बातचीत में उन्होंने कहा कि, "जो डेटा एकत्र किया जा रहा है वह सैटेलाइट से लिया गया है - नासा विजिबल इन्फ्रारेड इमेजिंग रेडियोमीटर सुइट (VIIRS) और मॉडरेट रेजोल्यूशन इमेजिंग स्पेक्ट्रोरेडियोमीटर (MODIS). इस समय इस चरण में यह एकमात्र तकनीकी तरीका ही संभव है."

इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस में भारती इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी के अनुसंधान निदेशक और क्लिनिकल एसोसिएट प्रोफेसर (अनुसंधान) अंजल प्रकाश ने कहा कि, "प्राथमिक तरीकों में से एक नासा और इसरो जैसे प्लेटफार्मों से सैटेलाइट इमेजरी का उपयोग करना है. ये एक बड़े क्षेत्र को कैप्चर कर सकते हैं और जलते हुए खेतों की उपस्थिति का पता लगा सकते हैं. यह एक तरह से अंतरिक्ष से तस्वीरें लेने जैसा है कि पराली कहां जल रही है."

उन्होंने आगे कहा कि, जबकि ग्राउंट ऑब्जरवेशन और वायु गुणवत्ता निगरानी भी तैनात की जाती है - पराली को लेकर पता करने के लिए सैटेलाइट डेटा एक प्रमुख स्रोत है.

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क्या सैटेलाइट डेटा सेट को लेकर भी चिंताएं हैं?

डॉ बेग ने बताया कि, "इन सैटेलाइट पर पराली जलने की गणना रिजॉल्यूशन पर निर्भर करती है. उदाहरण के लिए, यदि रिजॉल्यूशन 3 किमी X 3 किमी है, तो यह आपको इसकी अलग गणना देगा, और यदि सैटेलाइट का रिजॉल्यूशन 400 वर्ग मीटर X 400 वर्ग मीटर है, तो इसकी की गिनती अलग होगी."

डॉ बेग ने आगे कहा कि, "यह भी ध्यान रखे कि ऐसी संभावना है कि एक जगह पर कई छोटी छोटी अलग-अलग आग लगाई है लेकिन वह एक बार ही गिना जा सकता है- क्योंकि सैटेलाइट का रिजॉल्यूशन इसे एक क्षेत्र के रूप में देखता है."

इंडियास्पेंड की रिपोर्ट के अनुसार: सुओमी नेशनल पोलर-ऑर्बिटिंग पार्टनरशिप (एसएनपीपी) सैटेलाइट पर लगे VIIRS सेंसर का रिजॉल्यूशन 375 वर्ग मीटर है - जो 17 क्रिकेट मैदानों के आकार के बराबर है. रिपोर्ट बताती है कि एक खेत का औसत आकार 8 एकड़ है - जिसका अर्थ है कि सैटेलाइट पंजाब में एक औसत खेत के आकार का लगभग चार गुना है.

आईआईटी बॉम्बे में पृथ्वी वैज्ञानिक प्रोफेसर रघु मुर्तुगुड्डे ने कहा, "सैटेलाइट का उपयोग जलने वाले क्षेत्रों का नक्शा बनाने के लिए किया जाता है. ये सैटेलाइट हर दिन नहीं गुजरते हैं या कभी-कभार ही ऊपर से गुजरते हैं और उनके पिक्सल आकार सटीक अनुमान लगाने के लिए बहुत बड़े हो सकते हैं."

ऐसा माना जाता है कि एसएनपीपी सैटेलाइट हर 12 घंटे में वैश्विक कवरेज देता है. इसका मतलब यह है कि जब एक क्षेत्र में आग लगती है, और यह लगभग 30 मिनट तक चलती है, तो सैटेलाइट वास्तव में इस डेटा को ट्रैक करने के लिए मौजूद नहीं होता है, और यह रिकॉर्ड नहीं होता है.

कंसोर्टियम फॉर रिसर्च ऑन एग्रोइकोसिस्टम मॉनिटरिंग एंड मॉडलिंग फ्रॉम स्पेस के विनय के सहगल ने 2022 में इंडियास्पेंड को बताया कि, "जंगल की आग एक बड़े क्षेत्र लगती है और लंबे समय तक जारी रहती है जबकि खेतों में लगाई जाने वाली आग ज्यादा समय तक नहीं रहती है. यह मुश्किल से 15-20 मिनट से आधे घंटे तक लगी रहती जबकि जंगलों में लगने वाली आग घंटों रहती है. इसलिए, यदि सैटेलाइट इस आधे घंटे की अवधि में वहां नहीं होगा तो उस आग को कैप्चर नहीं कर पाएगा."

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पराली जलाने की घटनाओं पर बेहतर तरीके से नजर कैसे रखें?

प्रोफेसर मुर्तुगुड्डे का सुझाव है कि पराली जलाने पर निगरानी रखने और डेटा एकत्र करने के लिए संबंधित क्षेत्रों में ड्रोन उड़ाने पर विचार किया जा सकता है, लेकिन यह अधिक महंगा तरीका हो सकता है.

प्रोफेसर प्रकाश भी पराली जलाने पर रिपोर्ट करने के लिए क्राउडसोर्सिंग और स्थानीय लोगों से जुड़ने का सुझाव देते हैं.

उन्होंने कहा कि, "भारत में फसल जलाने पर नजर रखने के लिए अधिक प्रभावी सिस्टम विकसित करने के प्रयास चल रहे हैं. इनमें अधिक सटीक और वास्तविक समय की निगरानी के लिए एडवांस सैटेलाइट टेक्नॉलजी, मशीन लर्निंग एल्गोरिदम और ड्रोन का उपयोग शामिल है."

प्रोफेसर ने आगे कहा कि, जमीनी स्तर पर सामुदायिक सहभागिता में सुधार से न केवल डेटा सटीकता में वृद्धि होगी, बल्कि यह किसानों को वैकल्पिक फसल अवशेष प्रबंधन तकनीकों को अपनाने के लिए भी प्रोत्साहित करेगा.

प्रो. प्रकाश ने कहा की, "सरकारी एजेंसियों, पर्यावरण संगठनों और आईटी कंपनियों के बीच सहयोग से फसल जलाने पर नजर रखने के लिए एक व्यापक और एकीकृत सिस्टम बनाने में मदद मिल सकती है. इन दृष्टिकोणों का उद्देश्य न केवल डेटा सटीकता में सुधार करना है, बल्कि टिकाऊ कृषि प्रथाओं को बढ़ावा देना और पराली जलाने के पर्यावरणीय प्रभाव को कम करना है."

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