मेरे ज़ेहन पे ज़माने का वो दबाव पड़ा,
जो इक सलेट थी वो ज़िंदगी सवाल हुई.
मेरी ज़बान से निकली तो सिर्फ़ नज़्म बनी,
तुम्हारे हाथ में आई तो एक मशाल हुई.
हिंदुस्तान की अवाम के हाथों में गजल की मशाल देने वाला हिंदी का वो शायर, जिसकी कलम में जनता का आक्रोश, गरीबों की चीखें, परेशान लोगों की पुकार, आम लोगों के एहसासात और सरकार के खिलाफ बगावत झलकती है. बीसवीं सदी के नामचीन हिंदी शायर और कथाकार दुष्यंत कुमार (Dushyant Kumar) अपनी लोकप्रिय नज्मों के साथ हिंदी में गजल लेखन के लिए पहचाने जाते हैं. उन्होंने हिंदी भाषा में गजलों का एक नया दौर शुरू किया.
दुष्यंत कुमार और मौजूदा वक्त का हिंदुस्तान
दुष्यंत कुमार अगर मौजूदा वक्त के हिंदुस्तान में जिंदा होते, तो शायद उनकी कलम जिंदान (जेल) की दीवारों के अंदर ही गूंज रही होती. बचपन से ही कविताएं और नज्में लिखने के शौकीन दुष्यंत कुमार अपने जमाने में सत्ता से हमेशा टकराते रहे. उन्होंने अपनी कविताओं के जरिए सरकार को हमेशा आईना दिखाने का काम किया.
उर्दू के मशहूर शायर निदा फाज़ली ने दुष्यंत कुमार के बारे में कहा है...
दुष्यंत की नजर उनके युग की नई पीढ़ी के गुस्से और नाराजगी से सजी बनी है. यह गुस्सा और नाराजगी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के खिलाफ नए तेवरों की आवाज थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमाइंदगी करती है.
दुष्यंत कुमार: बेबाक कलमकार
एक बेबाक कलम के मालिक दुष्यंत कुमार वक्त से डरकर कभी नहीं जिए. सरकारी व्यवस्था का हिस्सा होने के बाद भी उन्होंने हमेशा एक कलमकार की तरह ही सरकार की आंख से आंख मिलाकर बात की. दुष्यंत कुमार हुकूमत को निशाने पर लेते हुए अपनी एक गजल में लिखते हैं.
मत कहो आकाश में कोहरा घना है,
ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है.
सूर्य हम ने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है.
इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पांव घुटनों तक सना है.
दुष्यंत कुमार ने ये गजल मार्च 1975 के आस-पास उस दौर में लिखी थी, जब भारत इमरजेंसी से जूझ रहा था. उस वक्त वो मध्य प्रदेश सरकार में नौकरी किया करते थे और उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार में काम करते हुए उन्हीं पर सवाल खड़ा कर दिया था.
उनकी एक और गजल ने 1975 के हालात को बयां किया. उस वक्त के हिंदुस्तान में जीते हुए उन्होंने जो देखा और महसूस किया उसे अल्फ़ाज़ का रूप देते हुए अपनी कलम चलाई. दुष्यंत कुमार लिखते हैं...
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आज-कल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुद्दआ
गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नहीं
पेट भर कर गालियां दो आह भर कर बद-दुआ'
दुष्यंत कुमार ने आम लोगों के दिल में अपनी जगह बनाई. उन्होंने अपनी कलम के जरिए सत्ता की कुर्सी से लेकर गांव में जिंदगी गुजारने वाले लोगों तक से सीधी बात की.
इस बात की तस्दीक (गवाही) उनकी ही एक गजल से होता है, जो आज के दौर में विरोध का एक स्वर है. दुष्यंत कुमार लिखते हैं...
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए.
हर सड़क पर हर गली में हर नगर हर गांव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए.
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मिरा मक़्सद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए.
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए.
दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां आज भी व्यवस्था में बुराइयों का विरोध करने वाले गुनगुनाते हैं. हिंदुस्तान के लोगों को आए दिन उनकी गजलों की जरूरत पड़ती रहती है.
खतरों से खेलने वाला कवि
दुष्यंत कुमार पर मोनोग्राफ लिखने वाले लेखक विजय बहादुर सिंह ने क्विंट से बात करते हुए कहा कि दुष्यंत कुमार ग्रामीण परिवेश से आए थे और उनका स्वभाव खतरों से खेलना था, जो कभी बदला नहीं.
मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार के दौरान बस्तर के राजा प्रवीर चन्द्र भंज देव की हत्या हुई, जिससे विचलित होकर दुष्यंत कुमार ने एक कविता लिखी और जब वो कविता सरकारी कानों तक पहुंची तो मुख्यमंत्री डीपी मिश्रा ने उन्हें बुलाकर इस पर सवाल किया और कहा कि आपको इस तरह की कविताएं आगे नहीं लिखनी चाहिए, लेकिन दुष्यंत कुमार ने इस बात को मंजूर नहीं किया.विजय बहादुर सिंह, हिंदी लेखक
इंदिरा गांधी के नाम दुष्यंत कुमार की गजल
दुष्यंत कुमार ने कभी अपनी कलम की नोंक नहीं झुकाई और अपने ढंग से चलाते रहे. कुछ दिनों बाद उन्होंने एक गजल लिखी और गजल से पहले उन्होंने लिखा “श्रीमती इंदिरा गांधी के नाम”...वो अपनी इस गजल में केंद्र सरकार को ललकारते हुए लिखते हैं.
कहां तो तय था चराग़ां हर एक घर के लिए,
कहां चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए.
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बे-क़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए.
तिरा निज़ाम है सिल दे ज़बान-ए-शायर की,
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए.
दुष्यंत कुमार की कलम से निकली एक और गजल सरकार के लिए मुसीबत बनी. उन्होंने देश के हालात को बयां करते हुए लिखा.
खास सड़कें बंद हैं कबसे मरम्मत के लिए,
ये हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है.
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है.
मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग, चुप कैसे रहूं,
हर गज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है.
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