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आटा-चावल लाये, नंबर से मोर्चे पर आये-12 महीने के किसान आंदोलन की 12 कामयाब कहानी

जो किसान आंदोलन में होता था गांव वाले उसकी फसल की देखभाल करते थे.

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कृषि कानून वापस (Farm Laws Repealed) होने के बाद और एमएसपी (MSP) समेत सभी मुद्दों पर सरकार के साथ समझौते के बाद किसानों ने आंदोलन (Farmer Protest) स्थगित कर दिया है. 12 महीने तक चले इस लंबे आंदोलन के आगे आखिरकार सरकार को झुकना पड़ा, खुद प्रधानमंत्री मोदी (PM Modi) ने टीवी पर आकर कानून वापसी का ऐलान किया और माफी भी मांगी.

आखिरकार इतने लंबा चला आंदोलन कैसे सफल हुआ, वो क्या वजहें थी जिन्होंने किसान आंदोलन इतिहास के सबसे कामयाब आंदोलनों में जगह दिला दी. ये जानने के लिए 12 महीने तक चले आंदोलन की 12 कामयाब कहानियां हम आपको बताते हैं.
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1. तीन कृषि कानून वापस

इस किसान आंदोलन की सबसे बड़ी सक्सेस स्टोरी ये है कि जिन कानूनों के खिलाफ किसान सड़क पर उतरे और दिल्ली का रुख किया वो सरकार को वापस लेने पड़े. पहले सरकार लगातार कानून वापसी से इनकार करती रही. केंद्रीय कृषि मंत्री ने कहा था कि कानून वापसी के अलावा कुछ संशोधनों पर बात की जा सकती है. किसानों और सरकार के बीच शुरुआत में कई दौर की वार्ता भी हुई, लेकिन बात नहीं बनी और फिर बातचीत बंद हो गई. लेकिन किसान कानून वापसी की अपनी मांग पर अड़े रहे और आखिर में उनकी जीत हुई.

2. MSP समेत पांच मांगो पर सहमति

किसान कृषि कानूनों की वापसी के साथ MSP पर कानून की मांग लेकर दिल्ली आये थे. जब सरकार ने तीन कृषि कानून वापस ले लिए, तब भी किसानों ने अपना प्रदर्शन खत्म नहीं किया. जिसके बाद सरकार को किसानों के साथ संवाद करना पड़ा और इन 5 प्वाइंट पर समझौता हुआ-

  • MSP पर कमेटी बनेगी

  • किसानों पर लगे केस वापस होंगे

  • मृतक किसानों के परिवारों को मुआवजा मिलेगा

  • बिजली बिल बिना किसानों से बातचीत किये पेश नहीं होगा

  • पराली जलाने पर किसानों के खिलाफ आपराधिक मुकदमा नहीं होगा

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3. भारत बंद की रणनीति

दिल्ली के चारों ओर तो किसानों का आंदोलन चल ही रहा था, लेकिन इतने लंबे चलने वाले आंदोलन के लिए एक तगड़ी रणनीति चाहिए होती है. किसानों की इसी रणनीति का हिस्सा था भारत बंद. 8 दिसंबर 2020 को किसानों ने पहली बार भारत बंद बुलाया था. इसके जरिए किसान सरकार को ये दिखाना चाहते थे कि ये आंदोलन सिर्फ दिल्ली में नहीं होगा. भारत बंद के बाद किसानों ने इसे सफल बताया. इसके बाद 27 सितंबर 2021 को फिर से किसानों ने भारत बंद की घोषणा की, इस बार किसानों को राजनीतिक पार्टियों का भी खुला समर्थन मिला. कई राज्यों की सरकारों ने भी किसानों के भारत बंद को समर्थन दिया. जिससे सरकार पर दबाव बढ़ता गया.

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4. आंदोलन की शांति

26 जनवरी को हुई घटना को छोड़ दिया जाये तो मोटे तौर पर एक साल से ज्यादा चले इस आंदोलन में शांति बनी रही. जबकि आंदोलन का कोई एक नेता नहीं था और जहां बॉर्डर पर प्रदर्शन हो रहे थे वहां हत्या भी हुई. कई बार किसानों ने आरोप लगाया, बीजेपी समर्थक प्रोटेस्ट साइट पर आकर हंगामा करने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन फिर भी ये आंदोलन शांति से चलता रहा. आंदोलन की खास बात ये भी थी कि ये कोई एक जगह नहीं चल रहा था, सिंघु बॉर्डर, टिकरी बॉर्ड और गाजीपुर बॉर्डर पर प्रमुख धरना स्थल बने थे. इसके अलावा हरियाणा-राजस्थान के शाहजहांपुर बॉर्डर पर बड़ा धरना था, हरियाणा के कई टोल प्लाजा पर भी किसान धरना देते रहे.

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5. पर्दे के पीछे की जत्थेबंदियां

टीवी पर और अखबरों की सुर्खियों के आलावा सोशल मीडिया पर जो इतना बड़ा आंदोलन हम और आप देख रहे थे, उसकी मजबूती के पीछे पंजाब की जत्थेबंदियां खड़ी थी. जब भी जहां भी जरूरत हुई, पंजाब किसान आंदोलन में आगे खड़ा नजर आया. पंजाब से लगातार जत्थेबंदियां आती-जाती रहीं, जिससे आंदोलन की भीड़ पर असर ना पड़े. अलग-अलग जिलों से ये जत्थेबंदियां ना सिर्फ भीड़ लाने में सफल रहीं, बल्कि खाने-पीने की चीजों की भी आपूर्ति करती रहीं. जिसने इस आंदोलन की सफलता में अहम रोल अदा किया.

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6. बीजेपी नेताओं को घेरने की रणनीति

सरकार को सबसे ज्यादा परेशान करने वाली रणनीति में से एक थी बीजेपी नेताओं के घेराव की रणनीति. सबसे पहले हरियाणा के किसानों ने सरकार के मंत्रियों और विधायकों को घेरना शुरू किया. जहां भी सरकारी कार्यक्रम होता था किसान विरोध करने पहुंच जाते थे. किसानों के विरोध की वजह से कई बार हरियाणा के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री भी कार्यक्रम नहीं कर पाए.

24 दिसंबर 2020 को हरियाणा के जींद जिले में किसानों डिप्टी सीएम दुष्यंत चौटाला को आना था, लेकिन किसानों ने उनके आने से पहले ही हेलीपैड फावड़े से खोद दिया, जिसकी वजह से उन्हें दौरा रद्द करना पड़ा. इसके अलावा 27 सितंबर को डिप्टी सीएम अंबाला पहुंचते उससे पहले ही वहां भी किसानों ने हेलीपैड खोद दिया. यहां तक कि हरियाणा के सीएम मनोहर लाल को उनके गृह जिले करनाल में ही किसानों ने कार्यक्रम नहीं करने दिया था.

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7. घर का काम भी संभाला और मोर्चा भी

एक साल से ज्यादा चले इस आंदोलन में तीनों बॉर्डर से भीड़ कभी खत्म नहीं हुई, बस थोड़ी कम ज्यादा होती रही. कई लोग कहने लगे कि इतने लोग आ कहां से रहे हैं? इसका जवाब कई बार खुद किसान नेताओं ने दिया. राकेश टिकैत ने कहा था कि हम घर का काम भी करेंगे और आंदोलन भी करेंगे.

इसके लिए किसानों ने दिन बांट एक हफ्ता अलग किसान प्रदर्शन करते थे और अगले हफ्ते वो घर चले जाते थे, उनकी जगह दूसरे किसान आ जाते थे. इससे आंदोलन को लंबा चलाने में मदद मिली. किसान अपना काम भी करते रहे और मोर्चा भी संभाले रहे. इसके अलावा जो किसान लगातार आंदोलन में रहे उनकी भी फसल खराब नहीं हुई. गांव के लोगों ने मिलकर उन लोगों का काम संभाला जो लगातार आंदोलन का हिस्सा रहे.

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8. संयुक्त किसान मोर्चा

एक जमाना था जब देश में भारतीय किसान यूनियन हुआ करती थी, जिसे राकेश टिकैत पिता महेंद्र सिंह टिकैत लीड करते थे. वही इकलौती यूनियन थी जो किसानों के लिए लड़ती थी, या जिसकी किसानों के बीच ज्यादा पकड़ थी. लेकिन अब वक्त बदल चुका है, हर राज्य में अलग-अलग किसान यूनियन हैं. भारतीय किसान यूनियन में ही बहुत सारे गुट बन चुके हैं, जैसे गुरनाम चढ़ूनी भारतीय किसान यूनियन से नहीं हैं. हरियाणा में उनका अपना संगठन है जो भारतीय किसान यूनियन (चढ़ूनी) के नाम से काम करता है.

ठीक इसी तरह जब नवंबर 2020 में किसानों ने दिल्ली का रुख किया और बॉर्डर पर डेरा डाला तो पाया कि वो बहुत सारे संगठनों के साथ यहां पहुंचे हैं. शुरुआत में जब मीडिया सरकार के मंत्रियों से सवाल करती थी कि आप किसानों से बात क्यों नहीं करते तो वो कहते थे कि किससे बात करें? इतने सारे संगठन हैं, किसान खुद तय करें कौन बात करना चाहता है.

इसका तोड़ किसानों ने निकाला और संयुक्त किसान किसान मोर्चे का जन्म हुआ. इस मोर्चे में 42 किसान संगठन शामिल हुए. और इसी संगठन ने पूरे आंदोलन को चलाया, जिसमें बलबीर सिंह राजेवाल जैसे पंजाब के प्रमुख किसानों का परदे के पीछे बड़ा रोल था जो मीडिया के कैमरों पर ज्यादा नहीं दिखते थे. गुरनाम सिंह चढ़ूनी जैसे नेता आंदोलन के दौरन कई बार नारज भी हुए लेकिन किसानों की एकता नहीं टूटी और संयुक्त किसान मोर्चा अपने मोर्चों पर डटा रहा.

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9. राजनेताओं को मंच नहीं दिया

किसानों ने इतना लंबा आंदोलन बिना किसी राजनीतिक मदद के चलाया. उन्होंने कभी भी किसी नेता को अपना मंच नहीं दिया. जिससे सरकार उनपर हमलावर नहीं हो पाई, वरना आंदोलन में जब राजनेता शामिल हो जाते हैं तो विचारधाराओं में लोग बंट जाते हैं और अपनी पसंद की पार्टी का फेवर करने लगते हैं. लेकिन किसानों ने कभी अपने मंच को राजनीति के लिए रास्ता नहीं बनने दिया.

कई नेता किसान आंदोलन में गए भी, किसान आंदोलन के समर्थन में इस्तीफा देने वाले इकलौते विधायक अभय चौटाला के पिता हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला जेल से बाहर आने के बाद सबसे पहले किसानों के बीच गए लेकिन किसानों ने उन्हें मंच नहीं दिया. यहां तक कि उन्हें बोलने के लिए माइक भी नहीं दिया गया जिसको लेकर काफी विवाद भी हुआ था.

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10. टोल घेरने की नीति

किसान सिर्फ बॉर्डर पर बैठकर सरकार के साथ नहीं लड़ रहे थे. वो अलग-अलग मोर्चों पर सरकार को घेर रहे थे. शुरुआती दिनों के बाद ही किसान समझ गए थे कि जल्दी से आंदोलन खत्म होने वाली नहीं है, इसीलिए रणनीतियां बदलते रहना होंगी. इसी के तहत किसानों ने टोल फ्री करवा दिये. हरियाणा में किसानों ने जगह-जगह टोल घेर लिए और फ्री करवा दिए. महीनों तक हरियाणा के टोल पर किसानों का कब्जा रहा और लोग फ्री में निकलते रहे. इससे जो राजस्व का नुकसान हो रहा था उसने भी सरकार की सांस फुलाई.

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11. लंगर

किसान आंदोलन में चलने वाले लंगर इस प्रदर्शन की रीढ़ थे. क्योंकि किसी भी आंदोलन के लिए बेसिक जरूरत होती है खाना, और खाना भी मतलब अगर सामान आ जाये तो बने कैसे? ऐसे में किसान आंदोलनों में चलने वाले लंगरों ने उन्हें बहुत मदद की. कई गुरुद्वारे अपने लंगर वहां पूरे साल चलाते रहे, कुछ लोग बीच-बीच में आकर किसानों को लंगर खिलाते रहे. इसी तरह किसान आंदोलन को एक साल बीच गया और कभी किसी को खाने की दिक्कत नहीं हुई. बल्कि आसपास के लोगों ने लंगर में जाकर खाना खाया, क्योंकि वहां हर वक्त कुछ ना कुछ बनता ही रहता था.

आंदोलन के मोर्चों पर बहुत से लोग खाना बनाने में मदद करने भी आते थे, कोई आकर रोटी बेल देता था, कोई सब्जी कटवा देता था. कई लोग ऐसे थे जो जॉब करते थे और एक-दो घंटा काम करवाने आंदोलन में पहुंच जाया करते थे.
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12. आत्मनिर्भर किसान

इस किसान आंदोलन की सबसे कामयाब कहानियों में से एक है किसानों की आत्मनिर्भरता. क्योंकि जब आंदोलन कुछ महीने चलता रहा तो विरोधी कहने लगे कि फंड कहां से आ रहा है. इतना बड़ा आंदोलन चल रहा है, हजारों लोग रोजाना खाना खा रहे हैं. इसके लिए पैसा कहां से आ रहा है.

दरअसल जब किसान आये थे तो वो काफी आटा-चावल अपने साथ ट्रॉलियों में लेकर आये थे. सब अपना-अपना खाना साथ में लाये थे. बाकी कुछ लंगर लगे थे. इसके बाद जब और लंबा आंदोलन चला तो किसानों ने पैसा भले ना दिया हो, लेकिन वो गांव-गांव से सब्जी, आटा, चावल...इस तरह की खाने की चीजें देते थे. हरियाणा, पंजाब और यूपी के कुछ गांव तो ऐसे थे जहां से रोजाना दूध सप्लाई होता था.

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