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Morbi Bridge: किसके हाथ खून से रंगे? 'गुजरात मॉडल' में मौत का जिम्मेदार कौन?

Gujarat Morbi Bridge Collapse: गुजराती जिंदगियों से सियासी खेल की बानगी- ‘मोरबी मौत का झूला’

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  • सैकड़ों लोगों को लिए मोरबी का झूलता हुआ ब्रिज बन गया ‘मौत का झूला’

  • ये पुल इतने लोगों का बोझ नहीं सह पाया

  • ये पुल रखरखाव करने वाली कंपनी की आपराधिक कार्यशैली को बर्दाश्त नहीं कर पाया

  • ये झूलता हुआ झूला मोरबी पालिका की लापरवाही झेल नहीं पाया

  • चंद सेकंड में ही पानी में जाकर गिर गया

यहां, सिर्फ पुल नहीं टूटा है. यहां टूटी हैं जिंदगियां, यहां टूटी हैं उम्मीदें, टूटी हैं सांसों की डोर और टूटी है मानवता.

गद्दी पर बैठे धृतराष्ट्रों से अब चीखती पुकारें यही पूछ रही हैं कि अंग्रेजों की गुलामी के जंजीर तोड़ रहे हो, शहरों और सड़कों के नाम बदल रहे हो, स्टेशनों के नाम बदल रहे हो तो फिर 100 साल पुराने अंग्रेजों के बनाए इस ‘मौत के झूले’ को क्यों नहीं बदला?

हादसे और 132 लोगों की जान लेने के बाद सिस्टम की कुंभकरणी नींद टूटी है. रिएक्शन आ रहे हैं, एक्शन हो रहा है. आरोप ट्रांसफर किए जा रहे हैं. लेकिन कुछ बुनियादी सवाल पूछेंगे तो पूछने के लिए कुछ बाकी नहीं रह जाएगा. बस दोषियों को पकड़ कर ऐसी सजा देनी बाकी रह जाएगी कि एक नजीर बन जाए. लेकिन मिलेगी ऐसी सजा? या भ्रष्टाचार की डकार की आवाज में माताओं-बहनों-बेटों-बेटियों-पिताओं की हृदयविदारक चीखें गुम हो जाएंगी.

भारत में विकास के लिहाज से कथित सिरमौर राज्य, बहुप्रचारित गुजरात मॉडल वाले राज्य... में बने इस पुल को गुजराती अंग्रेजों के जमाने से झेल रहे थे, लेकिन पुल और नहीं झेल सकता था. 30 अक्टूबर को आखिर ये पुल अपनी उम्र और बीमारी और नहीं झेल पाया. वो पहले से ही कराह रहा था. कह रहा था थक गया हूं, मुझे रिटायर करो, लेकिन गुजरात के बड़बोले नेता अपने बड़बोलेपन में मशगूल थे. उन्होंने उसे रिटायर नहीं किया, रिपेयर किया.

अभी चंद दिनों पहले ही मरम्मत के बाद गुजराती नव वर्ष के मौके पर चालू किया गया था.

अगर, रिनोवेशन के बाद भी ये इतनी जिंदगियों को लील गया, तो इन मौतों का जिम्मेदार कौन है? किसने लगाया सैकड़ों जिंदगियों पर दांव, किसके हाथ खून से रंगे? मोरबी पालिका कह रही है कि रखरखाव करने वाली कंपनी ओरेबा ने पुल को बिना मंजूरी के खोल दिया.

सवाल ये है कि मोरबी ब्रिज बिन मंजूरी खुला तो क्यों आंख मूंदे रही पालिका? ये कोई छोटा पैकेट नहीं, पुल था, किसी के निजी कमरे में नहीं खुला था. बड़ा पुल था, शहर के बीच में था. पुल खुले चार-पांच दिन हो चुके थे. नजर नहीं आया क्या? क्यों नजर नहीं आया? सिक्कों की चमक से आंखें चुंधिया गई थीं या चुनावी सीजन में नेताओं की धमक से आंखें बंद कर ली थी?

इस देश में गलियों की तख्ती तक का लोकापर्ण करने नेता आ धमकते हैं, यहां किसने किया था?

इसी मोरबी में 1979 में एक बांध टूटा था. 1500 लोग मरे थे. तब आरोप लगा था कि इंदिरा गांधी ने लाशों से आती दुर्गंध से बचने के लिए नाक बंद कर ली थी. अब सवाल पूछा जाएगा गुजरात और मोरबी के नेताओं ने क्यों इतनी बड़ी आपराधिक लापरवाही पर चार पांच दिनों तक आंख बंद कर ली?

कांग्रेस पूछ रही है कि क्या चुनावी माइलेज लेने के लिए हड़बड़ी में ब्रिज को खोला गया? क्या ये सच है? क्या वोट के लिए गुजरातियों की जिंदगी से सियासी खेल खेला गया? बताना होगा.

इस ‘मौत के झूले’ पर ‘बड़ी जिंदगी’ की कीमत 17 रुपए और 'छोटी जिंदगी' की कीमत 12 रुपए लगाई गई थी. कहा जा रहा है कि केबल ब्रिज पर घूमने के लिए आए लोगों को 17 रुपए का टिकट खरीदना होता था. बच्चों के लिए 12 रुपए का टिकट था. क्या इसी कमाई के लिए बिना सेफ्टी की गारंटी के पुल खोला गया, खोलने दिया गया?

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक पुल की क्षमता 100 लोगों की थी तो 400 से ज्यादा लोग कैसे चढ़ गए?

मोरबी पालिका के चीफ संदीप के मुताबिक 20-25 लोगों को एक बैच में जाने की इजाजत थी, तो कैसे 400 से ज्यादा लोगों को जाने की इजाजत मिली. पुल पर कितने लोग जा रहे हैं, क्या इसे देखने वाला कोई नहीं था? जिंदगियों के इस प्रहरी को किसने दी थी नींद की गोली?

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हादसे के बाद देश भर से पीड़ित परिवारों के लिए शोक संवेदानएं आ रही हैं. पीएम मोदी ने दुख जताया है, गृहमंत्री अमित शाह ने दुख जताया है. लेकिन, क्या सिर्फ दुख जताने भर से सैकड़ों परिवारों की पीड़ा का अंत हो जाएगा? क्या, सिर्फ दुख जताने भर से सरकारों की नाकामी को जनता भुला देगी? कोई क्यों नहीं पूछता कि हमारी जिंदगियों के साथ कबतक खिलवाड़ होगा और कब तक सफेदपोश अपनी जिम्मेदारियों से भागते रहेंगे.

मोरबी हादसे की जांच के लिए SIT टीम बनाई गई है. लेकिन, क्या असली ‘मौत के सौदागरों’ पर कार्रवाई होगी? या छोटी मछलियों पर कार्रवाई कर मगरमच्छों को ऐसे ही छोड़ दिया जाएगा, जो फिर से मासूम जिंदगियों पर सौदे लगाते रहेंगे?

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