ADVERTISEMENTREMOVE AD

'पूर्व जज का राज्यपाल बनना अच्छा नहीं' पूर्व CJI की 'नजीर' दूसरों पर लागू नहीं?

आंध्र प्रदेश के राज्यपाल Justice Abdul Nazeer ने सुप्रीम कोर्ट में रहते हुए कौन से फैसले दिए थे?

Published
भारत
7 min read
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

एस अब्दुल नजीर (S Abdul Nazeer) 4 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट के जज के तौर पर रिटायर हुए. 39 दिन बाद 12 फरवरी को उन्हें आंध्र प्रदेश का राज्यपाल (Governor of Andhra Pradesh) नियुक्त किया गया.

उनकी नियुक्ति को लेकर तरह-तरह के सवाल उठ रहे हैं. कुछ का सवाल है कि क्या रिटायरमेंट और गवर्नर पद पर नियुक्ति के बीच कूलिंग पीरियड होना चाहिए (कूलिंग पीरियड का मतलब है, सोच-विचार की मियाद), और कुछेक सोच रहे हैं कि क्या जस्टिस नजीर की न्यायिक विरासत के कारण उन्हें यह 'तोहफा' मिला है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

नोट: इनमें से कोई भी सवाल नया या अभूतपूर्व नहीं है. पहले भी जब भारत के पूर्व चीफ जस्टिस पी सदाशिवम को केरल का राज्यपाल नियुक्त किया गया था तो आलोचकों ने हैरानी से पूछा था कि क्या यह फैसला निष्पक्ष और उचित था.

इन सवालों के जवाब मुश्किल हैं. लेकिन जारी विवादों के बीच, मुनासिब है कि सुप्रीम कोर्ट के जज के तौर पर जस्टिस नजीर के कार्यकाल पर नजर दौड़ाई जाए. जो लोग इस विषय के बारे में नहीं जानते, उनके लिए भी इस मुद्दे को समझना आसान होगा:

कौन हैं जस्टिस नजीर? सुप्रीम कोर्ट का जज होकर, उन्होंने क्या खास काम किए हैं?

जस्टिस नज़ीर ने फरवरी 2017 में सुप्रीम कोर्ट के जज के तौर पर शपथ ली थी. वह छह साल बाद रिटायर हुए. सुप्रीम कोर्ट में रहते हुए उन्होंने:

प्राइवेसी के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में बरकरार रखा

शायद सबसे लोकप्रिय फैसलों में से एक है, केएस पुट्टास्वामी मामले से जुड़ा फैसला जोकि अपनी संवैधानिक स्पष्टता और मौलिक अधिकारों की पुष्टि के लिहाज से अहम है.

यह फैसला 24 अगस्त, 2017 को सुनाया गया था. इसमें नौ जजों की बेंच ने सर्वसम्मति से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार के तौर पर प्राइवेसी के हक को बरकरार रखा था.

मानवाधिकार कार्यकर्ता उषा रामनाथन पुट्टास्वामी मानती हैं कि पुट्टास्वामी फैसला स्वतंत्रता और गरिमा के अधिकार के साथ-साथ प्राइवेसी के हक पर मुहर लगाता है. उन्होंने द क्विंट से कहा था कि यह फैसला "बताता है कि इस देश में हर इंसान को अपने वजूद का हक है. और यह भी कि, आप जो भी हैं, राज्य उसे कंट्रोल भी नहीं कर सकता.
0

तीन तलाक मामले में असहमति

जस्टिस नजीर ने जिन मामलों में ना में फैसला सुनाया, उनमें शायद सबसे बड़ा है, तीन तलाक मामला (फिर से 2017 में).

हालांकि इस मामले में बहुमत का फैसला यह था कि तीन तलाक (तलाक-उल-बिद्दत) की रस्म कानूनी रूप से अमान्य है लेकिन भारत के उस समय के चीफ जस्टिस जे.एस. खेहर और जस्टिस नजीर ने उससे असहमति जताई थी. उन्होंने लिखा था:

"धर्म आस्था का विषय है, तर्क का नहीं. यह अदालत का काम नहीं कि वह एक प्रथा पर, जोकि किसी धर्म का अभिन्न अंग है, पर समतावादी नजरिया रखे. संविधान हर धर्म के अनुयायियों को उनकी मान्यताओं और धार्मिक परंपराओं का पालन करने की अनुमति देता है.”

इसे धर्मनिरपेक्ष नजरिया कहा जा सकता है, और इस पर विश्लेषकों ने दलील दी कि यह असहमति पसर्नल लॉ को संविधान, और मौलिक अधिकार का दर्जा देती है.

अपने ब्लॉग में एडवोकेट गौतम भाटिया ने लिखा:

“इस असहमति ने संविधान निर्माताओं की उन कोशिशों पर करारी चोट की होगी, जो संविधान को धर्मनिरपेक्ष बनाना चाहते थे. जहां धर्म किसी व्यक्ति के सिविल दर्जे और सिविल अधिकारों के बीच पंच न बने. इससे मूलभूत समानता और लोकतंत्र के लिए किए गए लंबे संघर्ष को भी धक्का लगा होगा, जो उसे धार्मिक दावेदारी से आजाद कराने की कोशिश थी.”

मामलों के तथ्यों को अलग रखकर देखा जाए, तो असहमति का हमेशा एक नतीजा होता है. सिर्फ इसलिए नहीं कि इससे भविष्य में सुधार की गुंजाइश बनती है. बल्कि एडवोकेट तन्वी दुबे के अनुसार

"यह हमें बताता है कि भले ही किसी विशेष मामले की सुनवाई करने वाली पीठ के बहुमत वाले न्यायाधीशों ने एक निश्चित तरीके से सोचा हो, असहमत होने वालों के लिए भी जगह है."

इसके अलावा यह जज की आजाद सोच का भी सबूत होता है. 2017 में जब जस्टिस नजीर सुप्रीम कोर्ट में पहुंचे तो पुट्टास्वामी फैसले के अलावा, जेहनी आजादी का यह उम्मीदभरा नजारा देखने को मिला.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

तो बाद के वर्षों में क्या हुआ?

जस्टिस नजीर कई बेंचों में शामिल हुए और बाद के वर्षों में कई विवादों पर फैसला सुनाया. इनमें से कुछ के नतीजे चिंताजनक थे क्योंकि यह संवैधानिकता के लिहाज से असामान्य और असंवेदनशील थे जिसे पुट्टास्वामी फैसले में मजबूती से बरकरार रखा गया था या उनमें कार्यपालिका के नजरिये की ही तरफदारी होती दिखती थी.

विवादित भूमि पर राम मंदिर निर्माण की इजाजत

2019 में जस्टिस नजीर, पांच जजों की उस बेंच का हिस्सा थे, जिसने सर्वसम्मति से कहा था कि अयोध्या में 2.77 एकड़ की पूरी विवादित जमीन को राम मंदिर बनाने के लिए सौंप दिया जाना चाहिए. दूसरी तरफ सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड को अयोध्या में उसकी एवज में पांच एकड़ जमीन दी गई.

इस फैसले को अमनपसंद कहा गया लेकिन इसने बाबरी मसजिद के विध्वंस के खून से रंगे इतिहास को ही धो-पोंछ दिया. इस फैसले को ‘गैर बराबर समझौता’ कहकर इसकी आलोचना की गई.

कानूनी विद्वान जॉन सेबेस्टियन और फ़ैज़ा रहमान ने द वायर में तर्क दिया, कि फैसले में "कानून के शासन की तटस्थता की बात कहकर, कई क्रूर राजनैतिक कारकों को पीछे धकेल दिया गया जो इस तर्क का आधार हैं."

उन्होंने यह भी कहा कि "अंदरूनी आंगन पर कब्जा गंभीर विवाद का मामला था, जो अक्सर हिंसा की तरफ ले जाता था", इस बात को स्वीकारते हुए अदालत ने “उस हिंसा पर कानूनी परदा ढंक दिया.”

द हिंदू के लिए एक आर्टिकल में एडवोकेट सुहृथ पार्थसारथी और गौतम भाटिया ने लिखा था:

"सिद्धांत के आधार पर किसी विवाद को हल करने और शक्ति के मौजूदा संतुलन की हिमायत करके - या ताकतवर को उकसाए बिना "अमन" कायम करने के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर है."

बाबरी मस्जिद विध्वंस और उसके परिणाम को भारतीय इतिहास के सबसे विनाशकारी अध्यायों में से एक के तौर पर याद किया जाता है जिसमें 2,000 से अधिक लोगों ने अपनी जान गंवाई थी.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

नोटबंदी की कवायद को जायज ठहराया

अपने रिटायरमेंट के दो दिन पहले जस्टिस नजीर ने केंद्र सरकार की नोटबंदी के फैसले को भी बरकरार रखा. नोटबंदी में केंद्र सरकार ने 500 रुपये और 1000 रुपये के करेंसी नोटों को बंद कर दिया था.

4:1 के बहुमत वाले इस फैसले में कहा गया कि भारत सरकार की 2016 की नोटबंदी की अधिसूचना "निर्णय लेने की प्रक्रिया में कोई भी त्रुटि नहीं है".

फैसला पढ़ते हुए बेंच के एक जस्टिस बीआर गवई ने भी कहा था: "आर्थिक नीति के मामलों में बहुत संयम बरतना होगा. अदालत अपने विवेक से कार्यपालिका के विवेक की जगह नहीं ले सकता है."

इस मामले में सिर्फ जस्टिस बी वी नागरत्ना ने असहमति जताई थी. उन्होंने कहा था कि सरकार के इशारे पर करेंसी नोटों की सभी सीरिज को बंद करना, किसी एक सीरिज को बंद करने से ज्यादा खतरनाक है. इसलिए यह काम कानून बनाकर किया जाना चाहिए (इसके बजाय कि कार्यपालिका एक अधिसूचना जारी करे, जैसा कि किया गया था).

उन्होंने यह भी कहा कि "...संसद जो शासन की हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली का आधार है, उसे विश्वास में लिया जाना चाहिए...संसद..."राष्ट्र का एक लघु रूप" है; यह लोकतंत्र का आधार है.”
ADVERTISEMENTREMOVE AD

मंत्रियों की हेट स्पीच के लिए सरकार जिम्मेदार नहीं

जिस बेंच ने नोटबंदी वाला फैसला दिया था, उसी ने 4:1 के अनुपात में कहा कि किसी मंत्री की हेट स्पीच के लिए सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता.

"एक मंत्री का बयान, भले ही जिससे राज्य के किसी मामले का पता चलता हो, या वह सरकार की रक्षा करता दिखाई देता हो, उसके लिए सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत के आधार पर सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है."

हालांकि जस्टिस नागरत्ना ने इस फैसले से भी अपनी नाइत्तेफाकी जाहिर की. उन्होंने कहा कि अगर कोई मंत्री, अपनी "आधिकारिक क्षमता" में अभद्र भाषा का इस्तेमाल करता है (हेट स्पीच) तो ऐसे अपमानजनक बयानों के लिए सरकार के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. उन्होंने यह कहकर, इसे उचित ठहराया:

“हेट स्पीच संविधान की बुनियाद पर हमला करता है, वह समाज को इस तरह पहचानता है कि वह गैर बराबर है. यह विविध पृष्ठभूमियों वाले नागरिकों के भाईचारे का भी उल्लंघन करता है जोकि भारत की बहुलता और बहुसंस्कृतिवाद पर आधारित एक सामंजस्यपूर्ण समाज की अनिवार्य शर्त है....”

जैसा कि यहां बताया गया है, जस्टिस नागरत्ना की असहमति मायने रखती है, क्योंकि यह उस दौर में जताई जा रही है, जब हेट स्पीच बढ़ रही है. टीवी डिबेट्स और सार्वजनिक भाषणों में सरकारी नुमाइंदों की नाजुक मिजाजी साफ नजर आ रही है. इस मामले की सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों की हेट स्पीच में कथित तौर पर लगभग 50% की बढ़ोतरी हुई है.

इस तरह यह समझ पाना मुश्किल है कि जस्टिस नजीर और बेंच के दूसरे जजों को यह जरूरी क्यों नहीं लगा कि सरकार अपने सांसदों-विधायकों को काबू में रखें.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

तो भौंहें क्यों तनी हुई हैं?

बेशक, अदालत वह जगह होती है जहां विविध विचारों का स्वागत किया जाता है. कोई जज किसी खास मामले में कार्यपालिका का पक्ष लेना तय करता है या नहीं, यह उसकी अपनी मर्जी पर है.

फिर भी रिटायरमेंट के चंद दिनों में ऐसे उच्च सरकारी पद पर नियुक्ति के कारण ही बहुतों की भौहें तनी हुई हैं. खास तौर से, भले ही इसकी कोई गुपचुप वजह न हो, लेकिन फिर भी सवाल उठते हैं कि कहीं सरकार कुछ चुनींदा लोगों को ईनाम तो नहीं दे रही. यह लोकतंत्र की छवि को धूमिल कर सकती है. ऐसा इसलिए है क्योंकि यकीनन एक लोकतंत्र तभी जीवित रहता है, जब कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच खाई कायम रहे.

अपनी रिटायर्ड के समय, और इस पर गहराई से विचार किए बिना भारत के पूर्व चीफ जस्टिस यूयू ललित ने एक न्यूज चैनल को कहा था:

"मेरे दिमाग में, देश के मुख्य न्यायाधीश के पद पर रहने के बाद, शायद मुझे लगता है कि राज्यसभा का मनोनीत सदस्य, या किसी राज्य का राज्यपाल बनना, सही बात नहीं है."

अगर यह सच है तो शायद यह बात सुप्रीम कोर्ट के जज पर भी लागू होगी, जिसकी न्यायिक जिम्मेदारी कमोबेश, देश के चीफ जस्टिस जैसी ही होती है. याद कीजिए, चीफ जस्टिस का फैसला, भले ही वह स्वागत योग्य हो, तब लागू नहीं हो सकता, जब वह अल्पमत में होता है. इसका मतलब यह है कि हालांकि वह रोस्टर का मास्टर है और कोलेजियम का मुखिया है, लेकिन उसके अपने कलीग्स उसके न्यायिक नजरिए पर हावी हो सकते हैं. इसीलिए अगर कोई बात चीफ जस्टिस पर लागू होती है तो क्या वह उसके साथ बैठने वाले दूसरे लोगों पर लागू नहीं होनी चाहिए?

फिर भी पूर्व चीफ जस्टिस ललित ने कहा था: "यह मेरा निजी विचार है. मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वे लोग (जिन्होंने ऐसे पद संभाले हैं) गलत हैं.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×