कोरोना वायरस के चलते देशभर में लॉकडाउन लगाया गया. लगातार पिछले 45 दिनों से देश लॉकडाउन में है. लेकिन इस बीच सबसे ज्यादा परेशान वो मजदूर हैं, जो रोज दिहाड़ी कमाकर लाते हैं और अपना पेट पालते हैं. इसी बीच अब कुछ राज्यों ने श्रम कानूनों में बदलाव किया है. जिसे कांग्रेस ने मजदूरों के मानवाधिकारों का हनन बताया है. कांग्रेस ने कहा कि बीजेपी शासित सरकार इससे मजदूरों का शोषण करना चाहती हैं.
कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और मौजूदा सांसद राहुल गांधी ने ट्विटर पर श्रम कानूनों में हुए बदलाव के मुद्दे को उठाया. उन्होंने कहा कि सरकार मजदूरों की आवाज दबाने की कोशिश कर रही है. राहुल ने ट्विटर पर लिखा,
“अनेक राज्यों द्वारा श्रमकानूनों में संशोधन किया जा रहा है. हम कोरोना के खिलाफ मिलकर संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन यह मानवाधिकारों को रौंदने, असुरक्षित कार्यस्थलों की अनुमति, श्रमिकों के शोषण और उनकी आवाज दबाने का बहाना नहीं हो सकता. इन मूलभूत सिद्धांतों पर कोई समझौता नहीं हो सकता.”
राहुल गांधी के अलावा पार्टी के अन्य नेताओं ने भी श्रम कानूनों में हो रहे बदलावों को लेकर चिंता जाहिर की. पार्टी के प्रवक्ता शक्ति सिंह गोहिल ने कहा कि मजदूरों से जुड़े किसी भी मुद्दे को लेकर पहले मजदूर संगठनों से चर्चा होनी चाहिए. उन्होंने कहा कि मुसीबतों के बोझ तले दबे मजदूरों को राहत देने की बजाय बीजेपी की सरकारें कोरोना की आड़ में उन्हें उनके अधिकारों से वंचित कर रही हैं.
उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी इसे लेकर योगी सरकार पर जमकर हमला बोला है. उन्होंने तो बीजेपी सरकार से तुरंत इस्तीफा सौंपने की भी मांग कर दी. अखिलेश ने कहा,
“कोरोना संकट के इस्तेमाल में बीजेपी सरकार अपने और आरएसएस के पूंजीघरानों को संरक्षण देने और गरीब, दलित, पिछड़ों की जिंदगी में और ज्यादा परेशानियां पैदा करने पर उतारू हो गई है. बीजेपी ने मंहगाई बढ़ाने का कुचक्र तो रचा ही है मजदूरों के शोषण के लिए भी रास्ते खोल दिए हैं. श्रमिकों को संरक्षण न दे पाने वाली बीजेपी सरकार को तुरन्त त्यागपत्र दे देना चाहिए.”
क्यों हो रहा है विरोध?
सबसे पहले मध्य प्रदेश ने ऐलान किया कि राज्य में 1000 दिन तक ज्यादातर लेबर कानून लागू नहीं होंगे. वहीं इसके बाद यूपी ने भी तीन साल तक श्रम कानून के कई प्रावधानों में छूट का ऐलान किया. इसके बाद गुजरात, महाराष्ट्र, ओडिशा और गोवा जैसे राज्यों ने भी यही कदम उठाया. जिसके बाद विपक्षी दल हमलावर हो गए. लेकिन सवाल ये है कि इसका विरोध क्यों हो रहा है? दरअसल श्रम कानूनों के प्रवाधानों को हटाए जाने से कंपनियां मजदूरों का फायदा उठा सकती हैं.
मध्य प्रदेश का उदाहरण लेकर समझें तो अब कंपनियों को लेबर से एक हफ्ते में 72 घंटे ओवरटाइम कराने की मंजूरी दे दी गई है. यानी मजदूरों से 12 घंटे काम लिया जा सकेगा. भले ही इसके लिए ओवरटाइम की बात कही गई है, लेकिन मालिक उन्हें कितना ओवर टाइम देते हैं या फिर देते हैं या नहीं ये किसी को नहीं पता.
कारखाने अपनी सुविधा के मुताबिक शिफ्ट बदल सकते हैं. जिससे कहीं न कहीं मजूदरों पर मनमाने तरीके से काम करवाने का शक जताया जा रहा है.
सरकारों के इस फैसले से उद्योगपतियों या फैक्ट्री मालिकों को जहां बड़ी राहत मिली है, वहीं मजदूर संगठनों को इस बात की आशंका है कि इससे मजदूरों का ही शोषण बढ़ने वाला है. कुछ राज्यों में ट्रेड यूनियनों को मान्यता देने वाला कानून भी खत्म कर दिया गया है. जिससे मजदूरों के अधिकारों को उठाने वाली आवाज दब जाएगी. दूसरा सवाल ये भी है कि ज्यादातर उद्योगों को जांच और निरीक्षण के बंधन से मुक्त कर दिया है. जिसका मजदूरों पर असर पड़ सकता है. इससे ठेकेदारी प्रथा भी बढ़ने की संभावना जताई जा रही है.
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