जहां देश के कई हिस्सों में पहले भी मीट पर (ना सिर्फ बीफ) पाबंदियां लगाने की कोशिश होती रही है, वहीं राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली (Delhi) अब तक ऐसे विवादों से बची रही लेकिन 4 अप्रैल को सब कुछ बदल गया जब बिना किसी आधिकारिक आदेश के ही साउथ दिल्ली के मेयर ने साउथ दिल्ली में मीट बैन करने का एलान कर दिया. इसमें कहा गया कि नौ दिनों तक नवरात्रि के दौरान मीट बेचने पर बैन है. ऐसी ‘पाबंदी’ सिर्फ गैर कानूनी ही नहीं है बल्कि इसमें किसी तरह की कानूनी प्रक्रिया का पालन भी नहीं हुआ. इसने वेंडर्स, दुकानदार और नागरिकों के मौलिक अधिकार का हनन भी किया.
इस तरह के बे-सिर पैर के नोट जिससे मीट शॉप पर अपनी मर्जी से खान-पान पर बैन की कोशिश होती है उससे समाज में भेदभाव बढ़ता है. अमीर-गरीब में, मर्जी से आजीविका चुनने में भेदभाव बढ़ता है.
ऐसे विवाद और बढ़ने की आशंका के बीच इसके कानूनी पक्षों की पड़ताल महत्वपूर्ण हो जाती है जो ऐसे बैन लगाने की कोशिशों को कटघरे में लाती है.
क्या मेयर ने नियम कायदे से ‘बैन’ लगाया ?
ये ध्यान देना जरूरी है कि SDMC मेयर यानि साउथ दिल्ली म्यूनिसपल कॉरपोरेशन के मेयर मुकेश सूर्यान ने बैन लगाने के लिए किसी संवैधानिक प्रावधानों का जिक्र नहीं किया है. क्योंकि DMC एक्ट 1957 के हिसाब से कमिश्नर को मीट शॉप या बूचड़खाना बंद करने से पहले नोटिस जारी करना जरूरी है. 4 अप्रैल का जो आदेश है वो सिर्फ मेयर के लेटर हेड पर जारी हुआ है. ये सरकारी आदेश नहीं है जिसमें दिल्ली में मीट शॉप बैन करने की बात कही गई . DMC एक्ट 1957 के अध्याय 20 में मीट शॉप और बूचड़ खाना के रखरखाव और रेगुलेशन के बारे में साफ साफ लिखा गया है.
4 अप्रैल का जो आदेश है वो सिर्फ मेयर के लेटर हेड पर जारी हुआ है. ये सरकारी आदेश नहीं है जिसमें दिल्ली में मीट शॉप बैन करने की बात कही गई.
DMC एक्ट 1957 के अध्याय 20 में मीट शॉप और बूचड़ खाना के रखरखाव और रेगुलेशन के बारे में साफ साफ लिखा गया है.
सेक्शन 405 और 407 कमिश्नर को मीट शॉप बंद करने का अधिकार देता है और इसमें बूचड़खाना या निजी जगहों पर जहां मीट बेचा जाता है उस पर बैन लगाने के नियम का जिक्र है. लेकिन मेयर ने जिस तरह से आदेश जारी किए हैं उससे कामकाजी वर्ग बनाम सुविधाभोगियों में भेदभाव की फिक्र बढ़ जाती है.
इस तरह के मीट शॉप बैन (जैसा कि गाजियाबाद में मीट शॉप पर बैन में देखा गया) का असर सिर्फ उन दुकानों पर ज्यादा पड़ता है जिन्हें गरीब, छोटे वेंडर या छोटे कसाई चलाते हैं. इनका असर उन सुपरमार्केट पर नहीं होता है जहां फ्रॉजेन मीट बेची जाती है या फिर ऑनलाइन डिलिवरी जैसे लिसियस से किया जाता है.
"चितरंजन पार्क इलाके में 20 दुकानें होंगी और करीब 80 परिवार इस पर निर्भर हैं. इन दुकानों पर तीन मजदूर काम करते हैं और उनका परिवार पूरी तरह से यहां से मिलने वाली दिहाड़ी पर निर्भर है. मेरा खुद का परिवार भी इसी पर निर्भर है. दुकानें किराए की हैं. अगर ऐसे बैन कर दिया गया तो हमें भारी नुकसान उठाना पड़ता है.
कोविड 19 के दौरान दुकानें बंद रखने से भी हमें बहुत भारी आर्थिक नुकसान हुआ. हम दुकानों में खपत से ज्यादा स्टॉक रखते हैं और ऐसे में अचानक एक दिन झटके में सबकुछ बंद करने का फैसला अगर कर दिया जाता है तो इससे स्टॉक हमारा खराब हो जाता है.
चितरंजन पार्क मार्के में रहने वाले वेंडर ताबी ने द क्विंट से कहा – ऐसा भेदभाव सिर्फ अपनी मनमानी ही नहीं है बल्कि ये संविधान की आत्मा के खिलाफ भी है जहां समानता, उदारता और भाईचारे की बात कही गई है.
उदाहरण के लिए अगर इस तरह के बैन को अदालत में चुनौती दी जाती है तो सरकार को ये साबित करना होगा कि आखिर मीट बेचने वाले और मीट खरीदने वाले में इस तरह का अंतर क्यों किया जा रहा है. और कैसे ऐसा ऐक्शन संविधान के आर्टिकल 14 जिसमें बराबरी और समानता की बात है उसका उल्लंघन नहीं है. जहां तक लोगों में भेदभाव की बात है तो इस तरह के बैन से गलियों में मीट बेचने वाले वेंडर बुरी तरह प्रभावित होंगे .
स्ट्रीट वेंडर्स एक्ट 2014 के सेक्शन 12 में कहा गया है कि सभी स्ट्रीट वेंडर्स को ये अधिकार होगा कि अपना बिजनेस कर सकें—इसलिए इस कानून के तहत भी इस तरह के बैन के आदेश को चुनौती दी जा सकती है.
रोजी-रोटी के अधिकार का क्या ?
SDMC मेयर और अब पूर्वी दिल्ली, गाजियाबाद और बंगलुरु में जिस तरह से मीट शॉप को बैन करने की बात कही है, वो निश्चित रूप से मीट बेचने वालों के कारोबार करने और अपनी मर्जी से रोजी रोटी कमाने का अधिकार खत्म करता है.
संविधान के आर्टिकल 19(1) G के हिसाब से कोई अपनी मर्जी से अपना पेशा, व्यापार चुन सकता है और ये उसका मौलिक अधिकार है. हालांकि आजीविका के अधिकार की बात संविधान में नहीं है लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने मशहूर ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन केस में कहा था कि आजीविका का अधिकार संविधान से मिले आर्टिकल 21 के तहत जीने के अधिकार का हिस्सा है.
हालांकि मौलिक अधिकारों की भी कुछ सीमाएं हैं लेकिन ये पाबंदियां कानून के हिसाब से होनी चाहिए ना जैसे SDMC के मेयर ने किया वैसे.
यहां तक कि अगर कानून के तहत भी मीट बैन को लागू किया जाता है तो सवाल उठता है कि आखिर इस तरह के बैन की जरूरत क्या है और क्या ऐसा करना ठीक है ?
यहां तक कि अगर कानून के तहत भी मीट बैन को लागू किया जाता है तो सवाल उठता है कि आखिर इस तरह के बैन की जरूरत क्या है और क्या ऐसा करना ठीक है?
जहां सुप्रीम कोर्ट ने कुछ मामलों में सीमित मीट बैन की इजाजत दी है जैसे ऋषिकेश, अहमदाबाद या पार्युषण पर्व, वहां पहले से ही इस तरह के बैन की प्रथा थी और इसके पीछे एक यूनिक सांस्कृतिक संदर्भ है.
इस बात को बॉम्बे हाईकोर्ट भी साल 2019 के फैसले में कहा कि पर्युषण पर्व के दौरान मीट बैन गैर संवैधानिक नहीं है, सुप्रीम कोर्ट ने इसलिए अहमदाबाद में 1993 और 1994 में बैन लगाया था. लेकिन ये साउथ दिल्ली, गाजियाबाद या देश के दूसरे हिस्से में जो पाबंदियां लगाई जा रही हैं उससे अलग है.
यहां इस बात का भी सरकार को ध्यान रखना चाहिए कि उसे ऐसा माहौल बनाए रखना है जहां लोग अपनी मर्जी के सभी तरह के कारोबार जो कि संविधान के आर्टिकल 19(1) (G) के तहत दिया गया है, को पूरा कर सकें. नागरिकों को रोजी रोटी कमाने में भी परेशानी नहीं होनी चाहिए. (संविधान के आर्टिकल 39 में राज्य के नीति निर्देशक तत्व के तहत ऐसा किया गया है)
धार्मिक भावनाओं के चलते इस तरह के बैन लगाने से प्रशासन सिर्फ दिहाड़ी करने वाले के अधिकार को ही खत्म नहीं करता ब्लकि उनकी तकलीफ भी बढ़ा देता है.
राज्य नहीं तय कर सकता कि किसको क्या खाना चाहिए ?
अलग अलग मामलों में हाईकोर्ट ने कहा है कि राज्य यानि सरकार को ये तय करने का अधिकार नहीं है कि जनता क्या खाए और क्या नहीं. शेख जाहिद मुख्तार बनाम महाराष्ट्र सरकार मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र जानवर संरक्षण अधिनियम के कुछ प्रावधानों को हटा दिया था जिसमें बीफ बैन की बात थी. इसमें बीफ को गैरकानूनी बना दिया गया था भले ही ये बाहर से ही क्यों ना लाया गया है. प्रशासन की कड़ी खिंचाई करते हुए कोर्ट ने कहा था सरकार किसी के घर में घुसकर उसे अपनी मर्जी का खाना खाने से नहीं रोक सकती है.
कोर्ट ने कहा था कि किसो को घर में गाय, भैंस या बैल के मांस को रखने जो कि राज्य के बाहर से लाया गया है नहीं रोका जा सकता है और इसे रोकना किसी के खानपान में आजादी को रोकना होगा.
बॉम्बे हाईकोर्ट ने शेख जाहिद मुख्तार केस में साल 2016 में कहा था कि
सरकार इस पर नियंत्रण नहीं लगा सकती है कि एक व्यक्ति घर के अंदर क्या करता है बशर्ते कि वो कुछ ऐसा नहीं कर रहा हो जो कानून के खिलाफ हो.
बॉम्बे हाईकोर्ट ने शेख जाहिद मुख्तार केस में साल 2016 में कहा था कि सरकार इस पर नियंत्रण नहीं लगा सकती है कि एक व्यक्ति घर के अंदर क्या करता है बशर्ते कि वो कुछ ऐसा नहीं कर रहा हो जो कानून के खिलाफ हो.
सईद अहमद बनाम उत्तर प्रदेश मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने साल 2017 में कहा था कि भोजन, खानपान की आदत और इसको बेचना जीने और कमाने के अधिकार से जुड़ा हुआ है. कोर्ट ने ये भी कहा कि यूपी में खानपान की आदत बहुत फली बढ़ी है और इसमें एक सेकुलर संस्कृति है. खान पान की आदत सभी समाज में सदभाव के साथ बनी हुई है. दिसंबर 2021 में गुजरात हाईकोर्ट ने अहमदाबाद म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन केस में जिसमें नॉन वेज फूड को सड़कों पर बेचने पर पाबंदी लगाई गई थी को खारिज कर दिया था.
जस्टिस वीरेन वैष्णव ने कहा था कि
अगर आप नॉन वेज पसंद नहीं करते हैं ये आपका चुनाव है...लेकिन आप कैसे तय कर सकते हैं कि दूसरे लोग बाहर नॉन वेज नहीं खाएं ? किसी को उसकी मर्जी का खाना खाने पर कैसे पाबंदी लगा सकते हैं?
स्ट्रीट वेंडर्स ने अपनी याचिका में आरोप लगाया था कि अहमदाबाद म्यूनिसिपल कोरपोरशन, स्ट्रीट वेंडर्स एक्ट 2014 का उल्लंघन करता है. बाद में इस आदेश को खत्म कर दिया गया था और कॉरपोरेशन ने कोर्ट में जवाब दायर किया था कि नॉन वेज फूड की बिक्री रोकने को लेकर ऐसी कोई बात नहीं है.
जज ने अपनी टिप्पणी में कहा था-
लोग ऑमलेट और अंडे बेचते हैं और आप रातों रात उन्हें उठाकर फेंक देते हैं क्योंकि जो पार्टी सरकार में है वो ऐसा चाहती है..आप किसी को अंडे खाने से रोकेंगे और बेचने वाले को पकड़कर कहीं और फेंक देंगे ? आपको लोगों के बीच ये भेदभाव करने की जुर्रत कैसे हुई ? इस तरह की मुहिम कुछ लोगों के अहंकार को संतुष्ट करने के लिए मत करें.
(रत्ना सिंह उत्तर प्रदेश में एक वकील और कानूनी पत्रकार हैं, जो @whattalawyer पर ट्वीट करते हैं. अरीब उद्दीन अहमद इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकालत करने वाले अधिवक्ता हैं, जो @Areebuddin14 पर ट्वीट करते हैं. यह एक राय है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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