काली कालिख से ढकी एक छत, एक पुराना ट्रंक, कुछ टूटे हुए फोटो फ्रेम, पुराने कपड़े और एक टूटा हुआ खिड़की का शीशा - 2002 के गुजरात दंगों में जीवित बचे इम्तियाज कुरैशी ने अहमदाबाद के नरोदा गाम इलाके (2002 Naroda Gam massacre) में मौजूद अपने पैतृक घर में जब इन चीजों को देखा, तो अतीत की यादें ताजा हो गईं.
"ये चीजें 20 साल से अधिक पुरानी हैं, हमारा कभी भी उन्हें उस घर में ले जाने का दिल नहीं था, जहां हम अभी रहते हैं, सिसक भरी आवाज में उन्होंने कहा.
28 फरवरी 2002 को गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में आगजनी के बाद पूरे गुजरात में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे. राज्य सरकार के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, इसके बाद हुई हिंसा में 790 मुसलमानों और 254 हिंदुओं सहित 1,044 लोग मारे गए थे. इनमें से 11 मौतें नरोदा गाम इलाके से हुई थीं.
दंगों के बाद, नरोदा गाम का मामला गुजरात के उन नौ मामलों में से एक था, जिसमें दिन-प्रतिदिन तेज सुनवाई/ स्पीडी ट्रायल का आदेश दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में, नामित अदालत सुनवाई करने के लिए प्रतिबद्ध थे.
2002 में जब दंगे भड़के, उस समय 30 वर्षीय कुरैशी अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ नरोदा गाम में रहते थे. बाद में वह इस मामले में अभियोजन पक्ष के गवाह बने.
मामला दर्ज होने के 13 साल बाद और घटना के 21 साल बाद गुरुवार, 20 अप्रैल को अहमदाबाद की एक विशेष अदालत ने इस मामले में बीजेपी की पूर्व विधायक माया कोडनानी और बजरंग दल के पूर्व नेता बाबू बजरंगी सहित 69 आरोपियों को बरी कर दिया.
कोर्ट के आदेश के बाद, द क्विंट ने कुरैशी से दंगों, 13 साल तक चले मुकदमे और फैसले के बारे में बात की. यहां उसके कुछ अंश दिए हैं:
2002 में क्या हुआ था? आपने क्या देखा?
गोधरा कांड के बाद पूरे राज्य में दहशत का माहौल था. अहमदाबाद में बंद का ऐलान किया गया. हम चिंतित थे लेकिन उस स्तर तक नहीं जहां हमने सोचा हो कि घबराने की जरूरत है. फिर अचानक 28 फरवरी की सुबह स्थिति हाथ से निकल गई. भीड़ ने हमारे मोहल्ले को घेर लिया. लाठी, तलवार और पेट्रोल से लैस होकर उन्होंने घरों को जलाना शुरू कर दिया. हमें अपना घर छोड़कर जान बचाने के लिए भागना पड़ा. जब मैंने अपना घर छोड़ा, मेरी पत्नी और मेरे बच्चे मेरे साथ नहीं थे. मैंने उन्हें बाद में एक राहत शिविर में पाया. दो दिनों तक मुझे पता ही नहीं चला कि वे जीवित हैं या नहीं.
क्या ऐसा कुछ भी नहीं था जिसे आप अपने साथ अपने घर से ले जा सकें?
नहीं, कपड़े भी नहीं. दंगों के वर्षों बाद तक मेरी पत्नी यही कहती रही कि हमें भागते समय कुछ कैश या जेवरात रख लेना चाहिए था लेकिन सोचने का समय ही नहीं था. मुझे याद है कि जब हम शाह-ए-आलम राहत शिविर में थे तो कुछ लोगों ने हमें कपड़े दान किए थे. कपड़े कम थे और लेने वाले ज्यादा. मुझे एक पैंट मिली जिसकी कमर का नाप 36 इंच था. उस वक्त मेरी कमर का साइज 28 इंच था. मैंने उस पैंट को डोरी के सहारे दो हफ्ते तक पहना.
कोर्ट का फैसले सुनकर आप कैसा महसूस कर रहे हैं?
सच कहूं तो मेरे पास शब्द नहीं हैं. नरोदा गाम में उस दिन 11 लोग मारे गए थे. मैंने उन्हें अपनी आंखों के सामने एक 10 साल की बच्ची सहित उनमें से पांच को मारते देखा. मुझे उन लोगों के चेहरे याद हैं जिन्होंने ऐसा किया था, जो कपड़े उन्होंने पहने थे, जो हथियार वे ले जा रहे थे. लेकिन कोर्ट के मुताबिक उस दिन कुछ नहीं हुआ, किसी ने उन लोगों को नहीं मारा, किसी ने हमारे घर नहीं जलाए.
चूंकि मैं मामले में एक गवाह था, इसलिए मुझे कई धमकियों का सामना करना पड़ा. मुझे कॉल करके धमकाया गया कि पीछे हट जाओ नहीं तो मार देंगे. लेकिन इन 13 सालों में मैं एक भी केस की सुनवाई छोड़ी नहीं.
यह कैसा न्याय है?
जब नरोदा पुलिस स्टेशन में मामले के संबंध में एक FIR दर्ज की गई, तो धारा 302 (हत्या), 307 (हत्या का प्रयास), 143 (गैरकानूनी विधानसभा), 147 (दंगे), 148 (घातक हथियारों से लैस दंगा), 120 (बी) (आपराधिक साजिश), और 153 (दंगों के लिए उकसाना) सहित भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की कई धाराओं के तहत 86 लोगों को आरोपी बनाया गया था.
86 आरोपियों में से 17 की मुकदमे के दौरान मृत्यु हो गई, यानी केवल 69 ही जिन्दा हैं. मामले में अभियोजन पक्ष के लगभग 182 गवाहों की जांच की गई.
आपने राहत शिविर के बारे में बात की, वहां अपने समय के बारे में बताएं? आपको किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा?
जब हम उस राहत शिविर में थे, तो मेरा बेटा चार साल का था और मेरी बेटी छह साल की थी. वे खाना, पानी, दूध के लिए बिलखते थे. शिविर लगाने वालों ने अपनी क्षमता के अनुसार सब कुछ किया लेकिन तथ्य यह था कि बहुत सारे लोग थे और बहुत कम जगह और संसाधन थे. शिविर में बच्चों सहित सभी लोग उदास थे. मुझे याद है कि एक बार मैंने उन्हें खुश करने के लिए कैंप में कुछ बच्चों को इकट्ठा किया और उनसे कुछ बनाने को कहा. यह उनका ध्यान भटकाने के लिए था. मैंने यह भी कहा कि सबसे अच्छी ड्राइंग करने वाला बच्चा पुरस्कार जीतेगा.
"उसके बाद जो हुआ, वह कुछ ऐसा है जिसे मैं कभी नहीं भूलूंगा. रुबीना नाम की एक लड़की ने दंगे का सीन बनाया. एक मस्जिद थी जो जल रही थी, कुछ ऑटो रिक्शा, गुस्साई भीड़. मेरा गला भर आया. वह स्केच मुझे आज तक परेशान करता है."
दंगों के बाद, जमात-ए-उलेमा-ए-हिंद, गुजरात सार्वजनिक राहत समिति, इस्लामी राहत समिति और संयुक्त आर्थिक मंच जैसे संगठनों द्वारा राज्य भर में मुसलमानों के लिए कई अस्थायी राहत शिविर स्थापित किए गए थे. इनमें से अधिकांश शिविर स्थायी झुग्गी बस्तियों में बदल गए. वर्तमान में राज्य भर में 83 राहत कॉलोनियों में 3,000 से अधिक परिवार रह रहे हैं.
क्या दंगों से पहले आपके इलाके में कोई साम्प्रदायिक तनाव था?
नहीं. जब दंगे हुए तब मैं 30 साल का था. मैं हिंदुओं के साथ बड़ा हुआ था. उनके साथ स्कूल और कॉलेज गया. हमने साथ में त्योहार मनाए. मुझे कोई ऐसी ईद याद नहीं आ रही जो हमने अपने हिंदू दोस्तों के बिना मनाई हो. दीवाली के दौरान, मुझे हमेशा उनके घर इनवाइट किया जाता था.
आपके (राहत) शिविर से निकलने के बाद क्या हुआ?
कैंप के बाहर भी जिंदगी आसान नहीं थी. दंगों में हमने अपना घर, अपनी फ्लेक्स प्रिंटिंग फैक्ट्री और अन्य सभी कीमती सामान खो दिया. हमारे पास ऐसा बिल्कुल नहीं था. मेरे परिवार को शून्य से शुरुआत करनी पड़ी. उस प्रक्रिया में हम जानवरों से भी बदतर जीवन जीते थे. आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि हम किस तरह की जगहों पर रहते थे क्योंकि हम किराए का पेमेंट नहीं कर सकते थे.
हालांकि, बाद में मैं फिर से अपने पैरों पर खड़ा हो गया. यह एक हिंदू बिजनेसमैन की मदद से हुआ जिसने एक फ्लेक्स प्रिंटिंग इकाई शुरू की. उसके पास पैसा था और मेरे पास एक्सपर्टीज थी. भगवान की कृपा से अब हमारा कारोबार सही चल रहा है. मेरे बच्चे शिक्षित हैं. मेरी बेटी ने बीएससी पूरी की और शादी कर ली, मेरे बेटे ने अभी-अभी एमएससी की है.
नरोदा गाम मामले में अदालत द्वारा बरी किए गए लोगों में बीजेपी की पूर्व विधायक माया कोडनानी भी शामिल हैं, जिन्हें नरोदा पाटिया दंगा मामले में दोषी ठहराया गया था और 28 साल की जेल की सजा सुनाई गई थी. नरोदा पाटिया में 97 लोगों की हत्या कर दी गई थी. बाद में उन्हें गुजरात हाई कोर्ट ने डिस्चार्ज कर दिया.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)