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आरबीआई, EC ही नहीं लॉ मिनिस्ट्री भी थी इलेक्टोरल बॉन्ड के खिलाफ

वित्त मंत्रालय और कानून मंत्रालय के बीच जो कम्यूनिकेशन हुआ था, उससे इलेक्टोरल बॉन्ड पर हुए और खुलासे 

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आरबीआई और चुनाव आयोग के अलावा कानून और न्याय मंत्रालय (MOLJ) ने भी इलेक्टोरल बॉन्ड जारी करने का विरोध किया था. मंत्रालय ने तीन आधारों पर इसका विरोध किया था. वित्त मंत्रालय के साथ इस बारे में उसकी जो चिट्ठी-पत्री हुई थी, उससे इसका खुलासा हुआ.

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सबसे पहले वित्त मंत्रालय ने 2 जनवरी 2018 को एक नोटिफिकेशन जारी किया था, जिसमें कहा गया था कि इलेक्टोरल बॉन्ड प्रॉमिसरी नोट्स हैं :

इलेक्टोरल बॉन्ड बियरर इंस्ट्रूमेंटस होंगे. यह प्रॉमिसरी नोट जैसा ही होगा. यह इंटरेस्ट फ्री बैंकिंग इंस्ट्रूमेंट होगा. भारत का नागरिक या देश के अंदर बना कोई निकाय इसे खरीद सकता है.  

कानून और न्याय मंत्रालय ने इसका विरोध करते हुए कहा था कि इलेक्टोरल बॉन्ड को प्रॉमिसरी नोट की तरह नहीं बेचा जाना चाहिए. इसके दो आधार है - पहला, इलेक्टोरल बॉन्ड प्रॉमिसरी नोट की योग्यता नहीं रखता. दूसरा, यह करेंसी की तरह इस्तेमाल हो सकता है.

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जिस राजनीतिक पार्टी तक इलेक्टोरल बॉन्ड को पहुंचना है, उसके पहले यह कई हाथों से गुजर सकता है क्योंकि इसमें डोनर या रिसीवर का नाम नहीं होता.

दूसरा, वित्त मंत्रालय ने यह प्रस्ताव किया था कि इलेक्टोरल बॉन्ड वही पार्टियां हासिल कर पाएंगी जिसने पिछले लोकसभा चुनाव या किसी विधानसभा चुनाव में एक फीसदी या इससे ज्यादा वोट हासिल किया हो.

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लेकिन कानून और न्याय मंत्रालय ने इसका विरोध किया. उसने कहा कि कोई भी पार्टी किसी व्यक्ति या कंपनी की ओर से स्वेच्छा से दी गई कोई भी रकम प्राप्त कर सकती है.
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इसके बाद कानून मंत्रालय ने कहा कि यह प्रस्ताव जन प्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 29B के मुताबिक नहीं है. इसके बाद सरकार ने इस प्रस्ताव को हटाने के बजाय जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 29B में संशोधन कर दिया. इससे इलेक्टोरल बॉन्ड का फायदा कुछ ही राजनीतिक दलों तक सीमित हो गया.

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तीसरा, कानून मंत्रालय ने केंद्र सरकार की ओर से इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़े खर्चे की भरपाई एसबीआई को करने का भी विरोध किया था. आरटीआई दस्तावेजों से पता चला है कि मई 2019 तक केंद्र सरकार एसबीआई को इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री पर कमीशन के तौर पर 3.24 करोड़ रुपये दे चुकी थी.

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एक फाइल नोटिंग में एसबीआई के एक सीनियर अफसर ने लिखा है कि अगर इलेक्टोरल बॉन्ड की लागत की भरपाई केंद्र सरकार नहीं करती है इसकी वसूली बॉन्ड खरीदार से करने की इजाजत दी जा सकती है.
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एक्सपर्ट्स का मानना है कि जनता के टैक्स के पैसे से इलेक्टोरल बॉन्ड के प्रशासनिक खर्चे की भरपाई नहीं की जानी चाहिए. इसके बजाय इसे बॉन्ड खरीदार से वसूला जाना चाहिए.

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ट्रांसपरेंसी एक्टिविस्ट अंजलि भारद्वाज के आरटीआई आवेदन के जरिये हासिल दस्तावेजों की द क्विंट ने पड़ताल की है. इसी से इन बातों का खुलासा हुआ है.
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कानून मंत्रालय की आपत्ति के हल के पीछे कोई साफ तर्क नहीं

8 दिसंबर, 2017 की एक फाइल नोटिंग में आर्थिक मामलों से संबंधित विभाग के सचिव सुभाष चंद्र गर्ग ने इस मामले में कानून और न्याय मंत्रालय के तर्क को मंजूर कर लिया था, जिसमें कहा गया था कि इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने वाले इसे राजनीतिक पार्टी तक पहुंचने से पहले किसी पार्टी या पार्टियों को ट्रांसफर कर सकते हैं.

तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली इलेक्टोरल बॉन्ड को नोटिफाई करने और इस पर संसद में 2 जनवरी, 2018 को बयान देना चाहते थे. लेकिन समय की कमी को देखते हुए उन्होंने 14 दिसंबर 2017 को आर्थिक मामलों के विभाग को कानून और न्याय मंत्रालय के साथ एक मीटिंग करने का निर्देश दिया, ताकि इस संबंध में इसकी चिंताओं का समाधान हो सके.
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इसके मुताबिक 19 दिसंबर 2017 को कानून और न्याय मंत्रालय के संयुक्त सचिव और एसबीआई के कानूनी अधिकारियों के बीच गर्ग की अध्यक्षता में मिटिंग हुई. इसमें कानून मंत्रालय की ओर से उठाई गई आपत्तियों को हल करने पर चर्चा हुई.

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19 दिसंबर की मीटिंग के मिनट्स बताते हैं कानून और न्याय मंत्रालय इलेक्टोरल बॉन्ड के लिए ‘प्रॉमिसरी नोट’ शब्द का इस्तेमाल करने के लिए राजी हो गया. 

इसमें कहा गया था कि कानून और न्याय मंत्रालय को राजनीतिक पार्टियों के एक फीसदी वोट हासिल करने की अनिवार्यता और इलेक्टोरल बॉन्ड की लागत सरकार की ओर से वहन करने जैसे मुद्दों पर कोई आपत्ति नहीं थी. लेकिन मिनट्स में यह नहीं बताया गया है आखिरकार किन सबूतों और आधारों पर कानून और न्याय मंत्रालय ने अपनी आपत्तियां वापस ले लीं.

सत्ता के गलियारों में काम करने के अपने लंबे अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि चुनाव आयोग और आरबीआई को दरकिनार करने के बाद सरकार की ओर से कानून मंत्रालय की सलाह के उलट आगे बढ़ने का मामला इसी से जुड़ा एक और उदाहरण बन गया है.
ट्रांसपरेंसी एक्टिविस्ट कमोडोर लोकेश बत्रा (रिटायर्ड)  ने ‘द क्विंट’ से कहा
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इलेक्टोरल बॉन्ड प्रॉमिसरी नोट क्यों नहीं है ?

प्रॉमिसरी नोट एक लिखित इंस्ट्रूमेंट (यह बैंक नोट या करेंसी नोट नहीं है) है, जिसमें बिना शर्त अंडरटेकिंग होती है कि एक निश्चित व्यक्ति को या उसके आदेशानुसार या उस प्रॉमिसरी नोट के धारक को धन की एक निश्चित रकम दी जाएगी. यह निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 के तहत आता है.  

कानून और न्याय मंत्रालय की आपत्ति पर आर्थिक मामलों के विभाग ने इस बात का जिक्र किया था कि एसबीआई लगातार 'प्रॉमिसरी नोटस' के इस्तेमाल पर जोर दे रहा था कि इस पर स्टैम्प ड्यूटी का असर न पड़े.

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कानून और न्याय मंत्रालय ने कहा था कि इलेक्टोरल बॉन्ड प्रॉमिसरी नोट नहीं हो सकता क्योंकि यह किसी निकाय मसलन राजनीतिक पार्टी को दिया जाना है.

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आर्थिक मामलों के विभाग के संयुक्त सचिव प्रशांत गोयल को एसबीआई के जनरल मैनेजर (Rupee and Global Markets ) ने लिखा था कि अगर इलेक्टोरल बॉन्ड को प्रॉमिसरी नोट्स के बजाय सिर्फ बैंकिंग इंस्ट्रूमेंट की तरह बेचा जाता है तो इस बात की संभावना बन सकती है कि राज्य सरकार इस पर स्टैम्प ड्यूटी लगा दे. लिहाजा इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को आकर्षक बनाने और इसे स्टैम्प ड्यूटी से बचाने के लिए सरकार ने कानून मंत्रालय की आपत्तियों को दरकिनार कर दिया.

सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को लाने का जिस तरह से प्रस्ताव रखा था उस पर आरबीआई से लेकर चुनाव आयोग और कानून और न्याय मंत्रालय तक, यानी इससे जुड़े हर संस्थान ने आपत्ति की थी.

लेकिन सरकार ने या तो कानून में संशोधन कर दिया या फिर इलेक्टोरल बॉन्ड को लाने के लिए आपत्तियों को दरकिनार कर दिया. 

अब सारी उम्मीदें सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं, जो इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम की चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रहा है. इस पर अगली सुनवाई 20 जनवरी को हो सकती है. पिछली बार इसकी सुनवाई अप्रैल, 2019 में हुई थी.

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