एक मजदूर (Labourer) जीवन भर अपनी पहचान स्थापित करने के लिए संघर्ष करता है. खुद को साबित करने के लिए दिन-रात मेहनत करता है और उससे कुछ पैसे कमाता है, लेकिन अगले ही दिन जेब खाली हो जाती है. नेताओं की सभाएं आयोजित होती हैं, बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं लेकिन क्या उन बड़ी बातों का असर भीड़ के आखिरी छोर पर खड़े उस मजदूर के जीवन पर पड़ता है? क्या उसके जीवन में कुछ बेहतर बदलाव हो पाता है?
एक मजदूर जिंदा रहने के लिए किस तरह के संघर्ष करता है...आइए जानते हैं विकास गोंड की इस कविता के जरिए.
सभाए आयोजित हुईं है,
लोगों की भीड़ उमड़ी है,
ज्वारभाटा की तरह.
मैं भी खड़ा हूं इसी भीड़ में,
और तालियां बजाने की तैयारियां कर रहा हूं!
जैसे सब बजा रहे हैं,
ठीक वैसे ही!
लेकिन इसी में एक आदमी खड़ा है,
और संघर्ष कर रहा है,
एक असहाय नाविक की तरह!
उसका संघर्ष पेट भरने का संघर्ष है,
अपना, अपने बच्चों का, और पूरे परिवार का...
एक मजदूर अच्छा पिता नहीं बन पाया पूरे जीवन भर,
क्योंकि उसके बच्चों को लगता है,
पापा हमारे लिए कुछ नहीं किए...
एक मजदूर कभी अच्छा पति भी नहीं बन पाया,
क्योंकि उसकी पत्नी को लगता है इन्होंने हमारे,
श्रृंगार की कोई चीज नहीं दिलाई!
इस तरह एक मजदूर ने पूरे जीवन भर,
खेतों में, फैक्ट्रियों, तपते भट्ठों में,
अपना पूरा जीवन झोंक दिया...
मरते समय तक कुछ नहीं बन पाया!
सभाएं आगे भी आयोजित होती रहेंगी,
तालियां ठीक ऐसे ही बजेंगी...
लेकिन मजदूर तो हमेशा मजदूर रहा है,
उसकी पत्नी के पास श्रृंगार की कोई चीज नहीं,
क्योंकि उनका संघर्ष जीवित रहने का संघर्ष है.
-विकास गोंड (छात्र, इलाहाबाद विश्वविद्यालय)
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