उत्तर प्रदेश के राज्य विधि आयोग ने हाल ही में 'यूपी जनसंख्या विधेयक, 2021' का ड्राफ्ट (UP Population Draft bill) तैयार किया है. इसके अनुसार यूपी में जिनके दो से अधिक बच्चे होंगे, उन्हें सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी. बिहार में भी जनसंख्या नियंत्रण पर सियासी बयानबाजी तेज हो गई है. लक्षद्वीप के प्रशासक प्रफुल्ल पटेल ने भी कुछ महीने पहले ही पंचायत चुनाव लड़ने के लिए अधिकतम 2 बच्चों की सीमा रखने का प्रस्ताव लाया था. सवाल ये है कि क्या देश में जनसंख्या नियंत्रण के लिए इसी तरह की सख्ती की जरूरत है? चीन के दो से तीन चाइल्ड पॉलिसी पर आने के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए कौन सी नीति सही होगी?
इन प्रस्तावों ने 'क्या भारत में जनसंख्या नियंत्रण की जरूरत है भी ?' के सवाल को फिर से गरमा दिया है. यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे एक दूसरा यक्ष प्रश्न हमारे सामने खड़ा हो जाता है- भारत की आर्थिक जरूरतों,घटते प्रजनन दर और जनसंख्या नियंत्रण के चीनी अनुभव के बाद क्या भारत में आबादी को नियंत्रित करने के लिए किसी सख्ती की जरूरत है भी?
घटती प्रजनन दर के बीच यह कदम तार्किक क्यों नहीं ?
भारत की मौजूदा प्रजनन दर 2.2 है. इस स्थिति में 'यूपी जनसंख्या विधेयक, 2021' के ड्राफ्ट के विरोध में सबसे बड़ा तर्क है- लगातार घटती प्रजनन दर. पिछले 5 वर्षों में भारत के अधिकतर राज्यों में कुल प्रजनन दर(TFR) में गिरावट देखी गई है, विशेषकर शहरी महिलाओं में.
13 दिसंबर 2020 को केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी लेटेस्ट नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे(NFHS) में यह तथ्य सामने आया है.NFHS के द्वारा रिलीज अब तक के आंकड़ों के अनुसार 22 राज्यों एवं केंद्र शासित क्षेत्रों में से 19 में प्रजनन दर (2.1 बच्चे प्रति महिला) रिप्लेसमेंट लेबल के नीचे जा चुका है.
रिप्लेसमेंट लेबल से नीचे जाने का अर्थ है प्रजनन दर से ज्यादा मृत्यु दर की स्थिति.ऐसी स्थिति में जनसंख्या वृद्धि दर नकारात्मक रहती है, जिसके कारण आगे जनसंख्या में गिरावट देखी जाती है. यानी आने वाले समय में भारत के वर्किंग फोर्स के ऊपर आश्रित बुजुर्ग आबादी की संख्या बढ़नी है.
भारत जैसे विकासशील देश के लिए यह स्थिति उत्पादकता एवं आर्थिक रूप से प्रतिकूल होगी.मतलब साफ है इस स्थिति में काम करने वाले हाथ से अधिक आश्रितों के हाथ होंगे.
सख्त चाइल्ड पॉलिसी के चीनी अनुभव से हम क्या सीख सकते हैं?
5 जून,2021 को चीन की शी जिनपिंग सरकार ने कपल्स को 3 बच्चे पैदा करने की अनुमति दे दी. इससे पहले 2016 में चीन ने तेजी से बुजुर्ग होती अपनी जनसंख्या से अर्थव्यवस्था के जोखिम को दूर रखने के लिए अपने दशकों पुराने 'वन चाइल्ड पॉलिसी' को 'टू चाइल्ड पॉलिसी' में बदल दिया था.
2010 से 2020 के बीच चीन की औसत वार्षिक जनसंख्या वृद्धि दर 0.53% हो गई जो 2000 से 2010 के बीच 0.57% थी. इसी का असर है कि चीनी जनसंख्या में बुजुर्गों का शेयर लगातार बढ़ता जा रहा है. 2010 में यहां की जनसंख्या में उनकी हिस्सेदारी 13.26% थी, वहीं 2020 में यह बढ़कर 18.7% हो गई.
अब सवाल है कि भारत इससे क्या सीख सकता है. जब चीन 'टू चाइल्ड पॉलिसी' से 'ब्रेकअप' कर रहा है तब भारत की सबसे बड़ी आबादी वाला राज्य उसे अपनाने के पीछे क्यों पड़ा है ?
बेहतर होती मेडिकल सुविधाओं के कारण भारत की आबादी में बुजुर्गों का शेयर तो बढ़ा है, लेकिन इतनी तेज गति से नहीं कि इससे वर्किंग ऐज पॉपुलेशन पर नकारात्मक असर पड़े. 2001 में यह 7.4% से 2011 में 8.6% ही बढ़ा और 2021 में भी इसके 10.1% तक ही बढ़ने का अनुमान है. भारत की इमर्जिंग इकॉनोमी को वर्किंग पॉपुलेशन की सख्त जरूरत है.'टू चाइल्ड पॉलिसी' जैसे कठोर कानूनी उपायों का सबसे बड़ा नकारात्मक असर होगा कि अचानक से भारत की वर्किंग पॉपुलेशन पर बुजुर्ग आबादी का भार बढ़ सकता है.
राष्ट्रीय स्तर पर सख्त चाइल्ड पॉलिसी लाना मुश्किल लेकिन राज्य स्तर पर अनेक प्रयास
1994 में भारत ने 'इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस ऑफ पॉपुलेशन एंड डेवलपमेंट डिक्लेरेशन' पर साइन किया था. इसका मतलब था कि भारत ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के सामने यह प्रतिबद्धता जाहिर की थी कि वह अपने नागरिकों के व्यक्तिगत अधिकारों का सम्मान करेगा कि वह अपनी मर्जी से बच्चे चाहे पैदा करें और उनके बीच जितना चाहें गैप रखें.
साथ ही भारत का राजनैतिक एवं संवैधानिक ढांचा (आर्टिकल 21) चीन की तरह सख्त चाइल्ड पॉलिसी के अनुकूल नहीं है.
लेकिन इसके विपरीत राज्य स्तर पर ' टू चाइल्ड पॉलिसी' का प्रयास किया जाता रहा है. यूपी के पहले लक्षद्वीप प्रशासन ने पंचायत चुनाव लड़ने के शर्त के रूप में अधिकतम 2 बच्चों की सीमा रखने का प्रस्ताव लाया था. इसका काफी विरोध हुआ. आलोचकों का आरोप था कि लक्षद्वीप के प्रशासक प्रफुल्ल पटेल ने यह कदम इस आधार पर उठाया क्योंकि यहां के मुस्लिम समुदाय (93%) की आबादी बढ़ रही है जबकि तथ्य है कि लक्षद्वीप का TFR राष्ट्रीय औसत से भी कम है.
आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में 1994 में आया पंचायती राज कानून चुनाव लड़ने के लिए अधिकतम 2 बच्चों का प्रावधान करता है.
राजस्थान का 1994 में लाया गया पंचायत राज एक्ट भी 2 से अधिक बच्चों वाले नागरिकों को चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित करता है.
महाराष्ट्र में 2005 में लाया गया 'सिविल सर्विसेज (डिक्लेरेशन ऑफ स्मॉल फैमिली) रूल, 2 से अधिक बच्चों के मां-बाप को राज्य सेवा में नियुक्ति के लिए आयोग घोषित करता है. साथ ही महाराष्ट्र पंचायत और नगरपालिका चुनाव लड़ने के लिए अधिकतम 2 बच्चों की सीमा रखी गई है.
इसी तरह के प्रतिबंध उड़ीसा, छत्तीसगढ़ ,मध्य प्रदेश में भी हैं.
अगर कानूनी तौर पर 'टू चाइल्ड पॉलिसी' लाना संभव हो तब भी इसका मतलब यह नहीं कि यह कदम व्यवहारिक है. भारत की अर्थव्यवस्था और उसकी मांग क्या इसकी इजाजत देती है? पॉपुलेशन कंट्रोल की पॉलिसी का आधार एक्सपर्ट कमिटी की व्यापक समीक्षा होनी चाहिए या निकट चुनाव को देखकर राजनीतिक दलों के 'चाणक्यों' का परामर्श ? अगर ऐसा होता है तो कहीं न कहीं उन आरोपों को बल मिलता है जिनमें कहा जा रहा है कि चुनाव से पहले एक समुदाय विशेष को निशाने पर लेकर ध्रुवीकरण की कोशिश हो रही है.
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