प्रबीर पुरकायस्थ (Prabir Purkayastha) की रिहाई इस बात की याद दिलाती है कि पेटेंट अवैधता के खिलाफ संस्थागत प्रतिरोध चाहे कितना भी हो लेकिन कानून का साथ बनाए रखने के लिए एक लंबा रास्ता तय करना पड़ता है.
15 मई की सुबह, सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने न्यूजक्लिक (NewsClick) के संस्थापक और संपादक के तत्काल रिहाई का आदेश दिया. जो कल तक गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, 1967 (UAPA) के तहत कथित अपराधों के लिए सात महीने से अधिक समय तक कैद में थे, अब कोर्ट ने उनके गिरफ्तारी को अवैध करार दे दिया.
एक कानूनी ढांचा जो असल में स्वतंत्रता और उचित प्रक्रिया के आदर्शों को महत्व देती है, बिना मुकदमे के सात महिने के जेल में एक पत्रकार के कैद का पछतावा करेगी. हालांकि, भारत में पुरकायस्थ की 'जल्द रिहाई' ने कई लोगों को चौंका दिया है.
गलत जगह पर लोगों के चौंकने को शायद ही कोई दोषी ठहरा सकता है, क्योंकि पुरकायस्थ की सात महीने की जेल उमर खालिद की तुलना में बेहद कम लगती है, जो 2020 से यूएपीए के तहत गिरफ्तार है.
अपनी सर्वव्यापकता के कारण, न्यायिक प्रक्रिया ही दण्ड है, यह घिसा-पिटा मुहावरा अब एक साधारण भारतीय की सोच में बैठ चुका है. इसका परिणाम यह है कि आज के वक्त में जब हम प्रबीर पुरकायस्थ जैसे मामलों में रिहाई के आदेशों को सुनते हैं तो यह हमें चौंका देता है. बावजूद इसके की कटघरे में खड़ा व्यक्ति स्वतंत्रता का हकदार है.
प्रबीर पुरकायस्थ मामले में दिया गया निर्णय, अक्टूबर 2023 में पंकज बंसल मामले में दिए गए सर्वोच्च न्यायालय के एक अन्य निर्णय पर काफी हद तक निर्भर करता है और उससे मुख्य रूप से प्रेरणा लेता है. मामले में अन्य बातों के साथ-साथ निर्देश दिया गया था कि धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 (PMLA) के तहत गिरफ्तारी के सभी मामलों में, गिरफ्तारी किस आधार पर की गई, इसकी एक लिखित कॉपी गिरफ्तार व्यक्ति को दी जानी चाहिए.
प्रबीर पुरकायस्थ के जरिए, सुप्रीम कोर्ट ने अब पंकज बंसल केस के तर्क को UAPA के तहत गिरफ्तारी के लिए भी लागू कर दिया है, जिससे यूएपीए में अनुच्छेद 22(1) के प्रावधान को पूर्ण अर्थ भी मिल गया है.
UAPA और PMLA: मान लिया गया अपराध और 'विवेक' का दुरुपयोग
PMLA और UAPA की क्रूर ढांचे पर चर्चा करते हुए पर्याप्त लेख पहले से ही मौजूद है; उनकी संवैधानिकता का सवाल सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. इन दोनों कानूनों में एक बात समान है कि इनमें अभियुक्तों पर उल्टा अपनी बेगुनाही साबित करने का भार थोप दिया गया है.
इस विसंगति का स्वाभाविक परिणाम यह है कि पीएमएलए और यूएपीए के तहत जिम्मेदार, जांच एजेंसियों को ‘विवेक’ का प्रयोग करने और कानूनी प्रक्रिया की रूपरेखा को आगे बढ़ाने की व्यापक छूट मिली हुई है. पिछले कई वर्षों से हमारी अधिकांश अदालतों ने इन कानूनों की कठोरता को कम करने से इनकार कर दिया है. वहीं कारावास और उससे जुड़ी प्रक्रिया को बरकरार रखा है.
किसी को यह समझने के लिए कि जांच एजेंसियों की स्वतंत्रता पर विचार करने की भी जरूरत नहीं है कि क्यों इन जांच एजेंसियों को बढ़ते कानूनी शील्ड से बचाना खतरनाक साबित हो सकता है. केवल संबंधित कानूनों के अधिदेश को लागू करने का काम सौंपा गया है, बल्कि वह यह भी तय करती हैं कि ‘कब’ जांच करनी है और ‘किसके खिलाफ’ कार्रवाई करनी है. इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि एजेंसियां जो प्रक्रिया अपनाएं, उसमें पर्याप्त जांच-पड़ताल हो, जिससे किसी भी मनमानी कार्रवाई से सुरक्षा मिल सके.
अंतर्निहित सुरक्षा उपायों के अभाव में, न्यायालयों के लिए यह जरूरी हो जाता है कि वे न्यायिक रास्ते के जरिए कानून में ऐसे सुरक्षा उपायों को शामिल करें. हालांकि, हमारे देश में ऐसा देखने को बहुत कम मिला है.
मैकेनिकल रिमांड आदेशों और संवैधानिक न्यायालयों की अनुमति से लंबे समय से चली आ रही दण्डहीनता, जांच एजेंसियों को यह तर्क देने की अनुमति देती है कि ऐसा कोई संवैधानिक आदेश नहीं है कि गिरफ्तारी या हिरासत के कारण को अभियुक्त या बंदी को लिखित रूप में बताया जाना चाहिए. (प्रबीर पुरकायस्थ, पैरा 10 (iv)).
क्यों जरूरी है प्रकिया पर दबाव डालना?
पंकज बंसल मामले में दिए गए फैसले ने PMLA व्यवस्था के तहत अनुच्छेद 22(1) के स्पष्ट उल्लंघन पर रोक लगा दी है. एक महत्वपूर्ण बात के रूप में, प्रबीर पुरकायस्थ मामला एक कदम आगे बढ़कर कहता है कि लिखित आधार प्रस्तुत करने की आवश्यकता सबसे पहले अनुच्छेद 22(1) से आती है, और बाद में प्रासंगिक वैधानिक प्रावधानों से.
ऐसा करते हुए, प्रबीर पुरकायस्थ लिखित आधार प्रदान करने के जिम्मेदारी को एक उच्चतर, प्राथमिक स्रोत, यानी संविधान से जोड़ते हैं, और ऐसे इसे मौलिक अधिकार का दर्जा मिलता हैं. इसलिए पंकज बंसल मामला एक तुरुप के इक्के के तौर पर काम करता हैं, जो अदालत को ऐसे मामलों में बेसिक टटोलने पर मजबूर करता है.
‘गिरफ्तारी के लिए आधार’ प्रदान करने पर अदालत का जोर देना यह आगे स्पष्ट करता है कि रिमांड सुनवाई और विशेष रूप से पहली प्रोड्क्शन हियरिंग – मैकेनिकल तरीके से नहीं की जा सकती है, जिसमें रिमांड अदालतें केवल रबर-स्टाम्प प्राधिकारियों के तौर पर काम करती हैं. किसी अभियुक्त को अपनी गिरफ्तारी का आधार पता होना चाहिए, ताकि वह पहली सुनवाई में अपने बचाव में ठोस सबूत पेश कर सके; इसी प्रकार रिमांड न्यायालय को भी ऐसे ठोस बचाव पर विचार करना होगा, और उसके बाद गिरफ्तारी की वैधता के प्रश्न पर निर्णय करना होगा.
अगर प्रक्रिया में कोई कमी है, जो गिरफ्तार व्यक्ति को पर्याप्त बचाव पेश करने से रोकती है, तो 'आरोप पत्र दाखिल' करने जैसी कोई भी बाद की कार्रवाई प्रक्रिया में प्रारंभिक दोष को सही नहीं कर पाएगी.
इस प्रकार, प्रबीर पुरकायस्थ ने निर्णय की उस संस्कृति से एक बचाव किया, जो अभियोजन पक्ष की दलीलें और उसके कार्यप्रणाली पर आंख बंद करके विश्वास कायम रखती है. जहां स्वतंत्रता और व्यक्तिगत आजादी दांव पर लगी हो, वहां कानून की उचित प्रक्रिया का पालन - जो निष्पक्ष, न्यायसंगत और उचित हो - बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है.
उचित प्रक्रिया पर जोर देकर सुप्रीम कोर्ट ने इस बात कि पुष्टि की है कि यूएपीए और पीएमएलए जैसे कठोर कानूनों के तहत भी निष्पक्ष सुनवाई की गारंटी को महज औपचारिकता तक सीमित नहीं किया जा सकता.
(हर्षित आनंद भारत के सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता हैं. वह @7h_anand पर ट्वीट करते हैं. यह एक ओपिनियन लेख है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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