राजस्थान कांग्रेस (Rajasthan Congress) में छिड़े राजनीतिक घमासान ने बड़ा मोड़ ले लिया है. अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) खेमे ने गांधी परिवार की इस योजना को ध्वस्त करने की रणनीति बनाई थी कि राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर सचिन पायलट को चुना जाए, लेकिन लगता है यह दांव उल्टा पड़ गया है. गहलोत ही कांग्रेस के अध्यक्ष पद की दौड़ से बाहर होते दिख रहे हैं, हालांकि गहलोत के खिलाफ एक्शन नहीं लेने की खबर के बाद कुछ कहा नहीं जा सकता.
जयपुर में देर रात तक चले पॉलिटिकल ड्रामे में गहलोत के वफादार कुल 90 विधायकों ने कांग्रेस विधायक दल की बैठक से ठीक पहले सामूहिक इस्तीफा दे दिया था. यह बैठक इस बात के लिए बुलाई गई थी कि राजस्थान के अगले मुख्यमंत्री के नाम पर प्रस्ताव पारित कर उसे आलाकमान के सामने पेश किया जा सके. गहलोत के समर्थकों का तर्क था कि ऐसी कोई भी बैठक पूर्व नियोजित नहीं थी और चुनाव होने के बाद ही यह बुलाई जानी चाहिए. इस गतिरोध के चलते पर्यवेक्षक दिल्ली लौट आए थे.
गहलोत गांधी परिवार के वफादार के तौर पर जाने जाते हैं. उन्हें गांधी परिवार ने खुद कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने के लिए चुना था. चूंकि वह पसंदीदा माने जाते थे जो चुनाव जीत सकते थे.
अब मौजूदा संदर्भ में, गांधी परिवार के समर्थक इसे 'मास्टर स्ट्रोक' मान रहे हैं. क्योंकि इस पैंतरे से एक तीर से दो शिकार किए गए हैं.
सोची-समझी रणनीति या चुनाव में फिक्सिंग
उम्मीद यह की गई थी कि पार्टी को जल्द ही एक नया अध्यक्ष मिल जाएगा. इस तरह इस बात का खंडन भी हो जाएगा कि कांग्रेस धीरे-धीरे एक क्षेत्रीय पार्टी बनती दिख रही है, जिस पर एक परिवार का नियंत्रण है. इससे राजस्थान में नेतृत्व का मसला भी सुलझ जाएगा, जहां अगले साल चुनाव होने हैं. शुरुआती योजना यह थी कि गहलोत केंद्र में तैनात कर दिए जाएंगे और गांधी परिवार सचिन पायलट को दिए गए वादे को निभाएगा.
दूसरी तरफ गहलोत पार्टी अध्यक्ष और राजस्थान के मुख्यमंत्री, दोनों पदों पर बने रहना चाहते थे. हालांकि जब राहुल गांधी ने उन्हें 'वन मैन-वन पोस्ट' की नीति याद दिलाई, तब उन्होंने अपना रुख नरम कर लिया था. गांधी परिवार को एक विधायक दल की बैठक आयोजित करने और गहलोत के उत्तराधिकारी के रूप में सचिन के नाम का प्रस्ताव देने की सलाह दी गई थी. इससे सचिन पायलट को चुनाव से पहले सीएम पद संभालने का पूरे एक साल का वक्त मिल सकता था. लेकिन इस अफरा-तफरी में नया बवंडर उठ गया.
कांग्रेस दिखाना चाहती थी कि पार्टी अध्यक्ष का चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष है. अभी गहलोत ने अध्यक्ष पद का नामांकन भरा भी नहीं था कि पार्टी ने उनसे इस्तीफे की मांग कर ली और अपना उत्तराधिकारी चुनने को भी कह डाला. इस तरह पार्टी ने अपने रुख को ही खतरे में डाल दिया. क्या इससे यह नजर नहीं आता कि चुनाव फिक्स थे या अब दोष मढ़ना आसान हो जाएगा?
कांग्रेस खेमे में भरोसे का मसला लंबे समय से चल रहा है
राजस्थान में हुआ ये विचित्र सर्कस क्या बयां करता है? यहा सारा मसला भरोसे का है. हाल की तकरार से साफ है, गांधी परिवार और गहलोत को एक-दूसरे पर पूरा भरोसा नहीं था. गहलोत अध्यक्ष पद के चुनाव से पहले सचिन को सत्ता सौंपना नहीं चाहते थे. गांधी परिवार उनकी इस चालाकी से सावधान हो गया था. उसे महसूस हो रहा था कि अगर गहलोत सचिन पायलट के मुख्यमंत्री बनने में रोड़ा अटका सकते हैं तो क्या उन्हें पार्टी की सबसे ऊंची कुर्सी दी जानी चाहिए?
और उससे भी बड़ी बात यह है कि पूरा मीडिया उन्हें वफादार बताता रहा है. यह कितनी बड़ी विडंबना है और वह भी, जबकि राहुल भारत जोड़ो यात्रा की अगुवाई कर रहे हैं. अर्थव्यवस्था को घेरने वाले मुद्दों, मुद्रास्फीति, बेरोजगारी और कृषि-संकट को उठा रहे हैं.
राजस्थान में लड़ाई का मतलब क्या?
आलाकमान के सलाहकार यह तर्क दे सकते हैं कि गहलोत के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद हितों का टकराव हो सकता था, इसलिए ऐसे हालात से बचने के लिए विधायक दल की बैठक बुलाई गई थी. लेकिन जो हुआ, वह इससे उलट था. अब लगता है कि ऐसी बैठक बुलाने से पहले सबकी सहमति ली जानी चाहिए थी.
सीधे शब्दों में कहें तो सोनिया गांधी को गहलोत से इस्तीफा देने के लिए कहना चाहिए था, यह वादा करते हुए कि इसका इस्तेमाल उनके कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद ही किया जाएगा. उन्हें अध्यक्ष पद के चुनाव के बाद विधायक दल की बैठक बुलानी चाहिए थी.
गहलोत खेमा इस बात पर जोर दे रहा है कि सचिन ने 2020 में कथित तौर पर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के साथ मिलकर कांग्रेस की सरकार गिराने की कोशिश की थी. फिर उन्हें मुख्यमंत्री क्यों बनाया जाना चाहिए? गहलोत को मुख्यमंत्री बने रहना चाहिए, और अगर ऐसा नहीं है तो उस दौरान सरकार को बचाने वाले 102 विधायकों में से पार्टी के किसी भी वफादार को उनका उत्तराधिकारी बनाया जाना चाहिए.
सचिन युवा हैं और लगता है गहलोत ने विधायकों को चेतावनी दे दी थी कि अगर वह मुख्यमंत्री बनते हैं, तो उनका सफर लंबा होगा और शायद तब तक ज्यादातर विधायकों का करियर खत्म हो जाएगा.
कांग्रेस की कमजोर कड़ियों से संकट गहराया
इन घटनाओं से यह भी पता चलता है कि पार्टी पर गांधी परिवार की पकड़ कमजोर हो रही है. पार्टी को लगातार नुकसान हो रहा है और इसलिए उसका मनोबल गिर रहा है. गांधी परिवार की पार्टी में पहले जैसी पकड़ नहीं रही. आलाकमान को एक क्षत्रप चुनौती दे रहा है, इसका उनकी छवि पर बुरा असर पड़ा है. ऐसे में सवाल है कि अब आगे क्या होगा?
गहलोत संभावित रूप से पार्टी के अध्यक्ष पद की दौड़ से बाहर हो चुके हैं. कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल और पार्टी के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह और मल्लिकार्जुन खड़गे अब इस पद के लिए चुनाव लड़ सकते हैं. इस तरह कांग्रेस ने राहुल गांधी जैसे पारंपरिक विकल्प या शशि थरूर जैसे आखिरी वक्त के सिपाही की बजाय पार्टी के वरिष्ठ नेतृत्व पर दांव लगाने का फैसला किया है.
गहलोत ने राष्ट्रीय राजनीति की जगह राज्य को प्राथमिकता दी है क्योंकि वह कठपुतली अध्यक्ष नहीं बनना चाहते थे, न ही चाहते थे कि डूबते जहाज का पंछी बना जाए. हालांकि कांग्रेस में उनका भविष्य अब अंधकारमय दिख रहा है क्योंकि उन्होंने हाईकमान के साथ कई हदें पार कर ली हैं.
कह सकते हैं कि इस बार भी, सचिन ने बस मिस कर दी है. उनके पास संख्या बल नहीं है, जो कि चुनावी लोकतंत्र में महत्वपूर्ण है. हालांकि वह युवा हैं और अगर वह सब्र रख पाते हैं तो आने वाला वक्त उनके लिए लाभकारी हो सकता है. अगर गहलोत कांग्रेस से निकलते हैं और क्षेत्रीय पार्टी बनाने का फैसला करते हैं तो सचिन अब कांग्रेस का चेहरा हो सकते हैं. क्या इस बिगड़े खेल से जादूगर उबर पाएगा? हमें इंतजार करना होगा.
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