राजस्थान में जालोर में मटकी से पानी पीने पर मासूम बच्चे इंद्र को बेहरमी से पीटने (Jalore Dalit Student Death) का मामला हो या जयपुर में शिक्षिका को जला देने का मामला, यह घटनाएं भले ही अभी जांच के दायरे में हों लेकिन प्रदेश के मामले में एक बात साफ है कि राजस्थान में दलित उत्पीड़न से जुड़े मामलों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है. राजस्थान गृह और पुलिस विभाग के आंकड़ों से यह बात प्रमाणित है. लेकिन इसके साथ हैरानी भरे आंकड़े यह भी बता रहे हैं कि ऐसे मामलों में दर्ज FIR अपने अंजाम तक नहीं पहुंच रही है. चालीस फीसदी मामलों में पुलिस जांच के दौरान ही फाइनल रिपोर्ट लगाई जा रही है. वहीं न्यायालयों में भी ऐसे मामले लम्बे समय तक लंबित रहते हैं.
हाल ही जारी राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की 2021 की जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रदेश में अनुसूचित जाति और जनजाति उत्पीड़न मामलों में देश के अन्य राज्यों की तुलना में सबसे ज्यादा मामले दर्ज हो रहे हैं. ऐसी शिकायतों को लेकर राजस्थान देश में उत्तर-प्रदेश के बाद दूसरे नंबर पर है.
खास बात यह कि एक दूसरे पर दलित उत्पीड़न को लेकर आरोप लगाने वाली बीजेपी और कांग्रेस दोनों के शासन में SC-ST उत्पीड़न के मामलों में यहीं स्थिति बनी हुई है. यह जरूर है कि गहलोत शासन में इस तरह के मुकदमों की संख्या बढ़ रही है.
अशोक गहलोत शासन में हर दिन SC-ST उत्पीड़न के 25 मामले दर्ज हो रहे हैं. वहीं पूर्ववर्ती वसुंधरा शासन में दर्ज किए जाने वाले ऐसे मुकदमों की संख्या हर दिन 18 थी. गहलोत सरकार में अनिवार्य एफआईआर दर्ज करने के नियम के कारण दर्ज मामलों में बढ़ोतरी हुई लेकिन कार्रवाई के मामले में दोनों शासन में औसत आधे मामलों का ही है.
गहलोत शासन में 2018 से लेकर फरवरी 2022 तक चालीस माह में SC-ST उत्पीड़न के 28636 मामले दर्ज किए गए. इसमें से 13175 मामलों में फाइनल रिपोर्ट लगा दी गई. दर्ज शिकायतों में से 13171 मामले अभी न्यायालय में विचाराधीन हैं. इन मामलों में 133 आरोपियों को सजा मिली है और 841 आरोपी बरी हुए है. फाइनल रिपोर्ट लगने वाले मामलों में ज्यादातर ऐसे मुकदमे हैं जिनमें शिकायत दर्ज करवाने वाले व्यक्ति ने मामला वापस ले लिया है.
कुछ जगहों पर पुलिस ने जांच में शिकायत झूठी पाई है जबकि SC-ST मामलों में सरकार की तरफ से भी पक्ष मजबूती से नहीं रखा जाता है. निचली अदालत से फैसला होने के बाद सरकार की तरफ से हाई कोर्ट में अपील न के बराबर की जा रही है. सरकार की तरफ से ऐसे मामलों में निचली अदालतों के फैसलों को ही मान लिया जाता है. इसके चलते ऐसे मामलों में सजा का प्रतिशत भी बहेद कम है.
2019 से लेकर 2021 तक SC-ST प्रकरणों में 22471 आरोपियों को गिरफ्तार किया गया लेकिन इसमें से सजा केवल 119 को ही हो सकी. पूर्ववर्ती वसुंधरा शासन के पांच साल के कार्यकाल में इस तरह के 32990 मुकदमें दर्ज किए गए लेकिन कार्रवाई के मामले में भी इस सरकार में यही हाल रहा. यानी आधे मुकदमे में फाइनल रिपोर्ट लगा दी गई है.
राजस्थान में SC-ST एक्ट के तहत कैसे मामले दर्ज हो रहे?
प्रदेश में SC उत्पीड़न के मामलों की शिकायत ज्यादा सामने आ रही है. इसमें घोड़ी से उतारने और जातिगत भेदभाव के मामले ज्यादा हैं. इसके अलावा दबंगों द्वारा मारपीट के मामले भी दर्ज किए जा रहे हैं. 2019 से 2021 तक प्रदेश में SC-ST एक्ट में मारपीट के 18,273 मामले दर्ज किए गए वहीं हत्या के मामलों की संख्या 282 रही. राजस्थान में SC-ST उत्पीड़ने के ज्यादा मामले पाली, श्रीगंगानगर, झुन्झुनू, नागौर, जयपुर, अलवर, बाड़मेर और भरतपुर में सामने आ रहे हैं. इन जिलों में उत्पीड़न के मामलों की सबसे ज्यादा एफआईआर दर्ज हुई है. लेकिन इन्हीं जिलों में मामलों में फाइनल रिपोर्ट भी सबसे ज्यादा लगाई गई है.
राजस्थान अनुसूचित आयोग के अध्यक्ष क्या कहते हैं?
दर्ज उत्पीड़न के मामलों में पुलिस की फाइनल रिपोर्ट पर राजस्थान अनुसूचित आयोग के अध्यक्ष कांग्रेस विधायक खिलाड़ीलाल बैरवा खुद सवाल उठाते हुए कहते हैं कि इस तरह के केस में गवाहों का दबाया जाता है. पीड़ित पर भी मुकदमा वापस लेने का दबाव बनाया जाता है. पहला तो एफआईआर दर्ज होने के बाद ही गांव के प्रभावशाली लोगों केस वापस लेने पर दबाव बनाते है. इससे आधे मामले तो समझौते में खत्म हो जाते हैं. बरैवा ऐसे मामलों में पुलिस की जांच को भी सही नहीं मानते हैं.
जांच पर सवाल उठाते हुए वे बताते है कि जांच आगे बढ़ती है तो पुलिस या तो चालन पेश करके पीछे हट जाती है या फिर गवाहों को प्रेशर में डाल कर केस को कमजोर करने के प्रयास किए जाते हैं. इसके चलते उत्पीड़न के मामलों में सजा का प्रतिशत बेहद कम रह जाता है. एससी आयोग ने सरकार को ऐसे मामलों में फिर से अपील करने और नियमों में बदलाव के लिए लिखा है.
डॉ. अम्बेड़कर मेमोरियल वैलफैयर सोसाइटी के महासचिव रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी अनिल गोठवाल कहते हैं कि यह अपराध समाजिक कुरीतियां से जुड़े हैं. इसे रोकने के लिए ही SC-ST उत्पीड़न निरोधक कानून बनाया गया था. कानून के तहत मामले भी दर्ज हो जाते है लेकिन कार्रवाई होने से पहले ही सामजिक दबाव इतना आ जाता है कि शिकायतकर्ता को समझौता करना पड़ता है.
उनका कहना है कि "ग्रामीण इलाकों में दलित व्यक्तियों का रोजगार सवर्ण जातियों के भरोसे चलता है. समझौता नहीं करने की स्थिति में गांवों में बहिष्कार करने तक की धमकी दी जाती है." गोठवाल बताते है कि यह भी सच है कि कुछ मुकदमों में राजनीतिक लाभ लेने के लिए और जमीनों से जुड़े विवादों के होते हैं. इसके साथ ही उत्पीड़न के मामलों की जांच में पुलिस का रवैया भी बेहद लापरवाही भरा होता है.
राजस्थान में दलित उत्पीड़न के मामलों में एक तरफ हो रही लगातर बढ़ोतरी और दूसरी तरफ समझौते के जरिए बंद की जारी शिकायतों से उत्पीड़न निरोधक कानून भी लचर साबित हो रहा है.
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