सोमवार 15 अगस्त को पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने ट्वीट किया, “100 साल पहले मेरे पिता बाबू जगजीवन राम को स्कूल में उस सुराही से पानी पीने से रोका गया था जो सवर्ण हिंदुओं के लिए हुआ करती थी. यह चमत्कार था कि वह जिंदा रहे. आज, नौ साल के #दलित लड़के को उसी वजह से मार दिया गया. आजादी के 75 साल बाद जाति व्यवस्था हमारी सबसे बड़ी दुश्मन है.”
इस ट्वीट में मीरा कुमार इंद्र मेघवाल का जिक्र कर रही थीं. क्लास तीन के स्टूडेंट इंद्र की मौत 13 अगस्त को हुई थी, जब उसे अपरकास्ट के एक टीचर ने कथित रूप से उस घड़े से पानी पीने के लिए बेहरमी से मारा था जो टीचर के लिए रखा गया था.
हमारे देश ने बड़े कदम उठाए हैं और कई क्षेत्रों में प्रगति की है, लेकिन लोगों की सोच नहीं बदली है. जो मेरे पिता के साथ 100 साल पहले हुआ था- हालांकि उस हादसे के बावजूद वह जिंदा रहे और उन्हें मार नहीं डाला गया- वही किस्सा 100 साल बाद भी एक लड़के के साथ दोहराया गया. और उसे मार दिया गया.
मेरे पिता के साथ स्कूल में जो हुआ, वह 1922 की बात है. उस समय देश आजाद नहीं था. लेकिन अब हम आजादी की 75वीं वर्षगांठ बना रहे हैं, बल्कि आजादी मिले 76 वर्ष हो गए हैं.
नौ साल के नन्हें बच्चे की मौत हो गई है. यह चौंकाने वाला है. मेरा दिल दुख से भर जाता है, जब मैं सुनती हूं कि दलितों को कैसे पीटा जाता है. दलितों को कैसे इंसान ही नहीं समझा जाता? मैं इस बात से परेशान हो जाती हूं कि कैसे भारत के एक बड़े तबके को बचपन से ही अमानवीय व्यवहार झेलना पड़ता है. वे भेदभाव, नफरत, हिंसा और क्रोध के भावों के साथ बड़े होते हैं. उनके दिमाग में जहर भरा जाता है. यह उनके लिए अच्छा नहीं है.
गैर दलित नेताओं को भी कुछ उपाय करने होंगे
यानी गैर दलित नाकाम हो रहे हैं. वे इस दलदल के किनारे पर खड़े हैं. दलित लोग हमारे देश के वासी हैं. असल में, वह टीचर जिस समुदाय का है, उस समुदाय को और दूसरे गैर दलित समुदायों को मिलकर जालौर से जयपुर तक एक शांति मोर्चा निकालना चाहिए. उन्हें एक मीटिंग करनी चाहिए और इस बात का प्रण लेना चाहिए कि आज के बाद से हम किसी दलित को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे और उनकी रक्षा और इज्जत करेंगे. समाज इसी को कहते हैं. हम अपनी श्रेष्ठ संस्कृति और सभ्यता की दुहाई देते हैं लेकिन हमें इसे दर्शाना भी चाहिए.
इसकी जिम्मेदारी हमेशा दलितों के कंधों पर क्यों है? जब ऐसे दुखद हादसे होते हैं तो लोग कहते हैं, ‘दलित लोग इस्तीफा क्यों नहीं दे रहे? दलित नेता इस्तीफा क्यों नहीं दे रहे?’ यह एक नजरिया है. लेकिन मेरा मानना है कि गैर दलितों को आगे आना चाहिए और इस दिशा में काम करना चाहिए.
गैर दलितों को आगे आना होगा, वरना यह भेद जारी रहेगा. उन्हें भी तसल्ली देने वाले उपाय करने चाहिए.
मैंने भी जातिगत भेदभाव सहा है
जातिगत भेदभाव कम नहीं हो जाता है, अगर आप किसी महान शख्स की संतान हैं. आप किसी की औलाद हैं, तो भी आपको जाति से जुड़ा दंश सहना पड़ता है. चूंकि मैं बाबू जगजीवन राम की बेटी हूं इसलिए मुझे दूसरी लड़कियों के मुकाबले थोड़ा ज्यादा संरक्षण मिला, शायद मैंने वह नहीं झेला जो मेरे माता-पिता और परिवार के दूसरे सदस्यों ने झेला था.
लेकिन हैरानी की बात है, ऐसे कई मौके आए जब लोगों ने मुझे अपने घर पर बुलाया लेकिन उनके परिवार के सभी लोग मुझे स्वीकार नहीं करते थे. मैं सुनती थी कि किचन के अंदर लोग बात कर रहे होते थे, ‘इन्हें क्यों बुला लिया?’ या ‘इन्हें चाय किस बर्तन में दी जाए?’ यह सब मैंने अपने कानों से सुना है.
आप यह सुनकर दंग रह जाएंगी कि लंदन जैसी जगह पर, जहां मैं फॉरेन सर्विस ऑफिसर के तौर पर तैनात थी, मैं एक घर ढूंढ रही थी. वहां मुझे केरल के एक शख्स मिले, मिस्टर जेकब. वह लंदन में पिछले 25 साल से रह रहे थे और अपने घर को किराए पर देना चाहते थे. मैं उनके घर गई और वह घर मुझे पसंद आया. सब कुछ तय हो चुका था. जब वह जाने लगे तो उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं ब्राह्मण हूं. मैंने कहा, नहीं- ‘मैं ब्राह्मण नहीं हूं. मैं अनुसूचित जाति से हूं.’ मैंने उनसे पूछा, ‘क्या इससे कुछ फर्क पड़ता है?’ उन्होंने कहा, नहीं. पर उन्होंने मुझे वह घर नहीं दिया.
यह सच्चाई कि वह मेरी जाति जानना चाहते थे, बहुत अजीब है. यह हर जगह है. मैं इस बात से परेशान होती हूं क्योंकि इसने बहुत से लोगों के दिलो-दिमाग को जहरीला बना दिया है. उन्हें अमानवीय बना दिया है. वे विवेकहीन हो गए हैं. यह मुझे परेशान करता है.
जाति व्यवस्था के खात्मे का सवाल किसी ने नहीं उठाया
पीड़ित, दलित, उनकी दुर्दशा चिंता का विषय है. लेकिन यह सच्चाई कि जो लोग अत्याचार करते हैं, उनका दिमाग जिस तरह से काम करता है, वह भी मेरे लिए फिक्र की बात है.
सभी कहते हैं कि दलित लोग पीड़ित हैं, हां, वे पीड़ित हैं. वे लोग कीमत चुका रहे हैं, लेकिन बाकी के लोग भी पीड़ित हैं. जो गैर दलित हैं, उनको भी ऊपर उठाओ, वो पाताल में गिर गए हैं. वे अंधेरी गहरी खाई में गिरे हुए हैं.
किसी ने जाति व्यवस्था के खात्मे के सवाल को नहीं उठाया. मेरे पिता ने ऐसा किया था. जब 1956-57 में वह रेलवे मंत्री थे, उन दिनों लोग स्टेशनों पर बोतलबंद पानी नहीं बेचते थे. स्टेशनों पर घड़े रखे होते थे, और यात्रियों को इनसे पानी दिया जाता था. लोगों को पानी देने वाले सभी लोग ब्राह्मण होते थे. उन्हें पानी पांडे कहा जाता था, ताकि किसी को उनके हाथों से पानी लेने में कोई ऐतराज न हो, चूंकि वे ब्राह्मण होते थे.
बाबूजी ने क्या किया कि उन्होंने उन्हें (पानी पांडे) को कोई और काम दे दिया. वे सभी रेलवे के कर्मचारी थे. उन लोगों की जगह पर उन्होंने यह काम वाल्मीकि लोगों को सौंपा. उन्होंने भारत के सभी रेलवे स्टेशन पर उन्हें यह काम दिया, वह भी सिर्फ एक दस्तखत से. सभी लोग उनके खिलाफ हो गए. उन्हें गालियां दीं. लेकिन उन्होंने कहा, नहीं. जाति व्यवस्था को खत्म करने का यह तरीका है. यह कोई छोटा कदम नहीं, बहुत बड़ा कदम था.
मेरी मां को हॉस्टल के डाइनिंग रूम में खाना खाने की इजाजत नहीं मिली थी, पिता को भी
मैंने अपने माता-पिता से कुछ बातें सीखी हैं. सभी सीखते हैं लेकिन मेरे मामले में यह अलग था क्योंकि यह जाति, अत्याचार, भेदभाव और इनका सामना करने से जुड़ी हुई थीं. मैं हमेशा समझती थी, हमेशा जानती थी कि हम अलग हैं क्योंकि लोग हमारे पीछे से बातें करते थे, और कभी-कभी मुंह पर भी बोलते थे.
मेरी मां इंद्राणी देवी ने मुझे बताया था कि उनके हॉस्टल में उन्हें डाइनिंग हॉल में नहीं, पोर्टिको में खाना खाना पड़ता था. वह पोर्टिको में जमीन पर बैठतीं और वहां खाना खातीं.
बाबूजी ने मुझे बताया था कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में उन्हें डाइनिंग रूम में खाना नहीं खाने दिया गया था. उनकी थाली फेंक दी गई थी. इस पर उन्होंने मदन मोहन मालवीय जी से पूछा कि क्या वह हॉस्टल से बाहर किसी किराए के कमरे में रह सकते हैं. तब मालवीय जी ने कहा, कि शंकर उलेकर नाम का एक ‘अछूत’ लड़का भी है जो अपना खाना खुद बनाता है और अपने बर्तन खुद धोता है, तो ‘तुम भी ऐसा कर सकते हो.’
मेरे पिता ने कहा, ‘नहीं, मैं ऐसा नहीं करूंगा. मुझे खाना बनाने में कोई दिक्कत नहीं है, और न ही बर्तन धोने और साफ-सफाई करने में है, लेकिन अगर मैं ऐसा सब हॉस्टल में करूंगा तो मुझे हमेशा यह बात कचोटेगी कि मैं अलग हूं. यह मुझे कमतर महसूस कराएगा और मेरी पढ़ाई पर असर होगा.’
आखिर मेरे पिता ने शिफ्ट कर लिया और एडंवास देकर, कमरे पर ताला लगा दिया. फिर अपनी मां को लेने चले गए. जब वह वापस लौटे तो मकान मालिक ने कहा, ‘तुमने मुझे कभी नहीं बताया कि तुम ‘अछूत’ हो और मैं तुम्हें कमरा नहीं दे सकता.’
मेरे पिता ने कहा कि उन्होंने पैसे दे दिए हैं और कमरे पर अपना ताला लगा लिया है. अगर उन्हें रहने नहीं दिया जाएगा तो वह उन्हें पीटेंगे. वह आदमी डर गया और इस तरह मेरे पिता वहां रह पाए.
नाइयों को मेरे पिता की जाति का पता चला तो उन्होंने उनके बाल काटने से इनकार कर दिया. बाबूजी ने अपने लोगों को जमा किया और कहा कि अगर नाई उनके बाल नहीं काटेंगे तो हम लोग अपने बाल खुद काट लेंगे, और हम उनसे यह काम नहीं करवाएंगे.
बाबूजी से पूछा कि उन्होंने उस देश के लिए संघर्ष क्यों किया जो उनके साथ भेदभाव करता था
जब बाबूजी अपनी सभी कहानियां बता रहे थे तो मैं बहुत छोटी थी. मैंने उनसे सीखा कि आप इन बातों को बर्दाश्त नहीं कर सकते, आपको रास्ते निकालने होंगे और उन पर जीत हासिल करनी होगी.
जब मैं बहुत छोटी थी तो मैंने एक बार बाबूजी से पूछा, आपने इस देश के लिए लड़ाई क्यों लड़ी? इस देश ने उनके और उनके पिता के साथ क्या किया था सिवाय इसके लिए उनके साथ भेदभाव किया, उन्हें अपमानित किया? वह स्वतंत्रता सेनानी क्यों बने थे?
उन्होंने कहा, ‘मैं स्वतंत्रता सेनानी इसलिए बना क्योंकि मैं भारत को आजाद देखना चाहता था. हमारे दिन बदलेंगे, हालात हमारे लिए बदलेंगे.’
मैं कभी-कभी सोचती हूं कि जालौर में जो हुआ, वह सब देखने के लिए वह जिंदा नहीं रहे. क्योंकि सौ सालों में हालात बदले नहीं हैं, भारत सौ सालों में भी बदला नहीं है.
संविधान नहीं कहता कि जाति व्यवस्था को खत्म कर दिया गया है, ऐसा होना चाहिए
कुछ नहीं बदलता. हाथरस, जालौर जैसी घटनाएं कई बार हेडलाइन्स बनती हैं लेकिन ऐसा महसूस होता है कि कुछ भी नहीं बदला. मेरे हिसाब से, इसकी वजह यह है कि जाति व्यवस्था हमारे समाज की जड़ में है. यह सिर्फ एक सामाजिक समस्या नहीं है, इसकी बुनियाद हमारे धर्म में है. अगर किसी चीज की बुनियाद धर्म में है तो उसे असलियत में दूर करने में बहुत लंबा समय लगता है. उसके लिए लगातार कोशिश करनी पड़ती है.
दूसरी बात यह है कि संविधान, जिसके हिसाब से देश चलता है, में कहीं यह नहीं कहा गया कि जाति व्यवस्था को खत्म किया जाना चाहिए. वह ऐसा नहीं कहता. अमेरिका के संविधान में यह साफ लिखा है कि दास प्रथा यानी गुलामी को समाप्त कर लिया गया है और उन्होंने इसके लिए सकारात्मक कार्रवाई का प्रावधान किया है.
यहां हमने आरक्षण का प्रावधान किया है लेकिन हमने इसके मूल कारण पर प्रहार नहीं किया है. मूल कारण जाति प्रथा है. अगर इसे संविधान में शामिल किया जाता तो कार्यकारिणी और संसद इसके बारे में बहुत स्पष्ट होते.
विधान में लिखे शब्द हमें एक रास्ता दिखाते हैं. वे भ्रम को दूर करते हैं ताकि संसद, कार्यपालिका, न्यायपालिका और हमारे चौथे स्तंभ प्रेस को यह स्पष्ट हो जाएगा कि संविधान यही चाहता है. अब इसका कितना प्रयोग होता है, या हकीकत क्या है, यह चर्चा का विषय है.
लेकिन संविधान में लिखे शब्द हमें रास्ता दिखाते हैं, जहां हमारे सामने अंधेरा होता है, तो उस रास्ते को जगमग करते हैं.
जातिगत अत्याचार को राजनैतिक दृष्टि से नहीं देखना चाहिए
किसी ने बाबूजी से पूछा था कि वह हिंदु धर्म को क्यों नहीं छोड़ना चाहते, इसके बावजूद कि यह धर्म उनके साथ भेदभाव करता है? उन्होंने कहा था कि यह अच्छा होगा कि वह यहीं रहें और यहां की गंदगी को साफ करें. उन्हें इस बात का दृढ़ विश्वास था कि वह दलितों के हालात को सुधार देंगे. वह यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि उनके अधिकारों, उनकी गरिमा की रक्षा हो. बाबूजी कहते थे कि ‘भले ही आप अपना धर्म बदल दें, आपकी जाति नहीं बदलती.’ जाति का चंगुल इतना मजबूत होता है कि वह किसी को नहीं बख्शता.
जब मैंने घड़े वाली घटना के बारे में सुना तो मुझे बाबूजी पर बहुत गर्व हुआ. वह उस समय सिर्फ एक किशोर थे और जानते थे कि ऐसे मामलों से कैसे निपटा जाए. प्रिंसिपल को उनकी बात सुननी पड़ी थी. यह उनकी पहली लड़ाई थी जो उन्होंने जीती थी. मैंने जब यह कहानी पहली बार सुनी थी तो मैं बहुत छोटी थी, और नहीं समझती थी कि इसका कितना बड़ा असर होगा. हां, मेरे पिता जीत गए, यह सुनकर मैं बहुत खुश हुई थी. इसने मेरे भीतर एक तरह का साहस जगाया था.
ऐसी घटनाओं को राजनैतिक दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए, भले ही यह राजस्थान में हो, यूपी में या उत्तराखंड में. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उस राज्य में किसकी सरकार है. सच्चाई यह है कि यह हुआ है और हमें लोगों की सोच बदलनी चाहिए. जब हम ऐसी घटनाओं का राजनैतिकरण करते हैं तो मामले की संजीदगी खो जाती है.
सच्चाई यह है कि यह हुआ, और यह होता रहता है, भले ही किसी की भी सरकार हो
9 साल के बच्चे को समाज और जाति व्यवस्था ने मार डाला
मैं इस दुखद घड़ी में उस नन्हें बच्चे के पिता और परिवार के साथ हूं. मेरे पास दुख व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं हैं. मैं क्या कह सकती हूं? सिर्फ यह कह सकती हूं कि हमें आशा है कि आपके पास इस अपूरणीय क्षति का सामना करने या शांत रहने की हिम्मत हो- लेकिन उसका कोई मतलब नहीं है. जो कुछ हुआ है, ये शब्द उस त्रासदी को व्यक्त नहीं कर सकते. ये सिर्फ शब्द हैं और शब्द अक्सर नाकाम हो जाते हैं.
वह एक छोटा सा बच्चा था, समाज को देखिए. समाज ने उसे मार डाला. जाति व्यवस्था ने उसे मार डाला, और हम उस जाति व्यवस्था को निभाए जा रहे हैं, जो भविष्य में और बच्चों को मारेगी. जब तक हम उसे रोकते नहीं. मैं उसके पिता को क्या कह सकती हूं? उसके दादा को, उसके चाचा, मामा को?
वह नौ साल का था. मेरा सबसे छोटा पोता 13 साल का है. मैं उसे अपनी गोद में बैठाती हूं. मैं उसे प्यार करती हूं. उधर, नौ साल के एक बच्चे को मार दिया जाता है. मैं नहीं जानती कि क्या कहूं, लेकिन यह असहनीय है.
(जैसा सौम्या लखानी को बताया गया)
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