लाल किले पर कवि सम्मेलन हो रहा था, तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू (Pt Jawaharlal Nehru) मुख्य अतिथि के तौर पर पहुंचे थे और भारत के राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar) भी कविता पाठ के लिए आए हुए थे. मंच पूरी तरह तैयार था, पंडित नेहरू और दिनकर मंच की सीढ़ीयों पर चढ़ रहे थे. इतने में एकाएक पीएम नेहरू का पांव डगमगा गया और दिनकर ने उनका हांथ पकड़कर उन्हें संभाल लिया.
इसके बाद उन्होंने दिनकर से कहा – धन्यवाद दिनकर जी आपने मुझे संभाल लिया...इसके जवाब में दिनकर ने जो कहा, वो एक इतिहास बन गया. रामधारी सिंह दिनकर ने कहा कि इसमें धन्यवाद की कोई बात नहीं है नेहरू जी...राजनीति जब-जब लड़खड़ाती है, साहित्य उसे ताकत देता है.
हिंदुस्तान के राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की रचनाएं विद्रोह, गुस्सा, आक्रोश और जिंदगी को नई दिशा देती हैं.
भारत के नेताओं को दिनकर से सबक लेनी चाहिए
बिहार के बेगूसराय में जन्मे रामधारी दिनकर कांग्रेस के सदस्य रहे, उन्हें पार्टी ने राज्यसभा भेजा. नेहरू और उनके बीच अच्छे संबंध थे. दिनकर ने नेहरू को ‘लोकदेव’ कहा, लेकिन उनके और पंडित नेहरू के बीच कई मुद्दों को लेकर मतभेद भी था. इतना होने के बाद भी नेहरू मंच पर बैठकर रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं सुना करते थे.
दिनकर ने जनता के मुद्दों पर बात करने में कभी अपने सियासी संबंधों की फिक्र नहीं की.
वो कभी एक विचार में बंध कर नहीं रहे, कैसा भी वक्त आया...उनकी कलम हमेशा अपने एक अलग अंदाज में ही चलती रही. आज के हिंदुस्तान में हमारे रहनुमाओं को नेहरू और दिनकर के बीच के संबंध से सबक हासिल करनी चाहिए.
साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित रामधारी सिंह दिनकर ने हिंदुस्तान के लोगों को अपनी कविता के जरिए विरोध का एक नया स्वर दिया. पहले गणतंत्र दिवस, 26 जनवरी 1950 को उन्होंने ‘सिंहासन खाली करो...’ उन्वान से एक कविता लिखी, जो आज भी लोगों के दिलों में बसती है.
सब से विराट जनतन्त्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो..
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो.
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.
रामधारी सिंह दिनकर को भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से बेहद लगाव था, वो गांधी के प्रशंसक थे.
अंग्रेजों के खिलाफ पूरे हिंदुस्तान को एकजुट करने वाले शौर्य को देखकर दिनकर ने बापू के लिए कविता भी लिखी.
बापू! तू वह कुछ नहीं, जिसे ज्वालाएं घेरे चलती हैं,
बापू! तू वह कुछ नहीं, दिशाएं जिसको देख दहलती हैं.
तू सहज शांति का दूत, मनुज के सहज प्रेम का अधिकारी,
दृग में ऊंड़ेलकर सहज शील देखती तुझे दुनिया सारी.
बापू! तू मर्त्य, अमर्त्य, स्वर्ग, पृथ्वी, भू, नभ का महा सेतु,
तेरा विराट यह रूप कल्पना पट पर नहीं समाता है,
जितना कुछ कहूं मगर, कहने को शेष बहुत रह जाता है,
लज्जित मेरे अंगार, तिलक माला भी यदि ले आऊँ मैं,
जब एक सरफिरे ने गांधी जी की हत्या कर दी तो दिनकर को गहरा सदमा लगा और उनकी क़लम से कट्टरपंथियों के नाम कुछ पंक्तियां निकली.
''लिखता हूं कुंभीपाक नरक के पीव कुण्ड में कलम बोर,
बापू का हत्यारा पापी था कोई हिन्दू ही कठोर."
हिंदी के मशहूर कवि डॉ कुमार विश्वास एक इंटरव्यू में रामधारी सिंह दिनकर के बारे में कहते हैं...
मौजूदा भारत के सत्ता पक्ष, विपक्ष और निष्पक्ष तीनों दलों को रामधारी सिंह दिनकर से प्रेरणा लेनी चाहिए कि कविता के लोग अगर कोई बात कह रहे हैं तो उसे सुनना शुरू करें.
शायर और हिन्दी के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर दीपक रूहानी ने क्विंट से बात करते हुए कहा कि रामधारी सिंह दिनकर के काव्य और शिल्प को लेकर तमाम तरह की बातें हुई हैं लेकिन उनके प्रेमियों को हमेशा से ये शिकायत रही कि दिनकर को इस तरह से स्थान नहीं दिया गया, जिस तरह से मिलना चाहिए था. आलोचकों ने उस तरह की समीक्षाएं नहीं लिखी, जिसके वो हकदार थे.
इसके पीछे की वजहें बताते हुए दीपक रूहानी कहते हैं कि
छंद वाली कविताएं, मिथकीय चरित्रों वाली रचनाएं और कांग्रेस से जुड़े होने की वजह से कई आलोचकों ने दिनकर की तरफ कम ध्यान दिया. दिनकर पर ये आरोप लगा कि वो मुशायरों और भीड़ के कवि हैं. लेकिन जितने लोग दिनकर को न मानने वाले हैं, उनसे कहीं ज्यादा तादाद उन्हें मानने वालों की है. यहां तक कि साइंस के अध्यापक और विद्यार्थी भी उन्हें पढ़ते हैं, दिनकर बिहार वालों के प्राणों में बसते हैं.
रामधारी सिंह दिनकर ने साहित्य के दीवानों को सिर्फ कविता ही नहीं दी, उनका गद्य साहित्य आज भी लोगों को जिंदगी का नया रास्ता दिखाता है. वो अपने निबंध ‘हिम्मत और जिंदगी’ में लिखते हैं...
"जिंदगी से अंत में हम उतना ही पाते हैं, जितनी उसमें पूंजी लगाते हैं. यह पूंजी लगाना जिंदगी के संकटों का सामना करना है, उसके उस पन्ने को उलटकर पढ़ना है, जिसके सभी अक्षर फूलों से नहीं, कुछ अक्षर अंगारों से भी लिखे गए हैं."
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