चौकीदार यानी कट्टरता का उदार शब्द
मुकुल केसवन ने टेलीग्राफ में ‘चौकीदार’ पर शोधपरक लेख लिखा है. विदेशी मीडिया में सुषमा स्वराज के लिए चौकीदार के संबोधन का जिक्र करते हुए लेखक ने लिखा है कि चौकीदार का मतलब है ‘भारत का अभिभावक’. यह सोच संघ की सोच के अनुकूल है. मेक इन इंडिया में असफलता और रोजगार देने में विफलता को इस शब्द से ढका गया है. लेखक का मानना है कि संघ का अपराधबोध है- चौकीदार.
फ्रांसीसी क्रांति से निकले शब्द ‘सिटिजन’ और रूसी क्रांति से पैदा हुए ‘कॉमरेड’ से भी लेखक ‘चौकीदार’ की तुलना करते हैं. वे लिखते हैं कि ‘हिन्दुत्व’ को इस शब्द के रूप में एक उत्तर मिल गया है. चौकीदार सिर्फ निगरानी करता है. वह बड़े भाई की भूमिका निभाता है. लेखक याद दिलाते हैं गोरक्षकों के गैंग की, एंटी रोमियो स्क्वैड की, लव जेहाद की खोज करने वालों की, घर वापसी आंदोलन चलाने वालों की और उन सबको ‘चौकीदार’ की सोच से जोड़ते हैं. लेखक का मानना है कि कट्टर सोच से जुड़ी उदार शब्दावली है- चौकीदार.
लगातार झूठ बोल रहे हैं पीएम
पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि प्रधानमंत्री होकर नरेंद्र मोदी लगातार झूठ पर झूठ बोले जा रहे हैं. उनके कार्यकाल में देश में कोई बम विस्फोट नहीं होने की बात को चुनौती देते हुए चिदंबरम पूरी सूची अपने आलेख में रखते हैं कि कब और कहां कितने विस्फोट हुए और कितने लोग मारे गए. इसमें जम्मू-कश्मीर से लेकर नक्सली घटनाओं तक की फेहरिस्त है.
चिदंबरम देश में पहली बार सर्जिकल स्ट्राइक होने के दावे पर भी सवाल उठाते हैं. वह पाकिस्तान के साथ युद्धोंमें भारत की जीत का उल्लेख करते हैं और मोदी के दावों का जवाब देते हैं. चिदंबरम ने अपने आलेख में प्रधानमंत्री के लगातार कथित रूप से झूठ बोलते रहने का भी जिक्र किया है. वह लिखते हैं कि उनके भाषणों से लोगों में गुस्सा भड़कने लगा है. फिर भी, पीएम हैं कि झूठ बोले जा रहे हैं. वह कभी अपने घोषणापत्र का जिक्र नहीं करते और न ही वे अपने किए हुए कामों को गिना रहे हैं.
मोदी सरकार की तीन गलतियां
तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में खुद के लिए ‘मोदी भक्तन’ कहे जाने का जिक्र करते हुए मोदी सरकार की विफलताओं और उसकी आलोचना की समीक्षा की है.
मोदी सरकार ने तीन गलतियां कीं. एक नोटबंदी, दूसरी गोरक्षकों की हिंसा पर पीएम का मौन रहना और तीसरी ‘सूट-बूट की सरकार’ के आरोप के बाद देश की आर्थिक दिशा बदल डालना.
तवलीन सिंह नरेंद्र मोदी के पीएम बनने पर उनके पहले भाषण का भी जिक्र करती हैं जब उन्होंने संकेत दिया था कि सरकार कोई बिजनेस नहीं करेगी. देश को समाजवादी आर्थिक नीतियों से छुटकारे का भरोसा भी तब मोदी ने दिलाया था. वे लिखती हैं कि मोदी सरकार इस राह पर नहीं चल सकी. लेखिका ने विदेशी पत्रिकाओं में नफरत का आरोप लगाते हुए मोदी सरकार को बदलने की जरूरत का भी जिक्र किया है. वह कश्मीर में भी स्थिति बिगड़ने के लिए मोदी सरकार को घेरने वाली रिपोर्टों का हवाला देती हैं. मगर, लिखती हैं कि अकेले इसके लिए मोदी सरकार को दोषी नहीं ठहराया जा सकता.
फिर स्थायी सरकार का इंतजार
चेतन भगत ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि 23 मई को जो नतीजे आने वाले हैं उसका हर किसी को इंतजार है. वह लिखते हैं कि एक बार फिर देश को स्थायी सरकार मिलने जा रही है भले ही वह उतनी ताकतवर नहीं होगी. लेखक का मानना है कि जिन कुछेक राज्यों में पिछले दिनों बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा था, वहां से बीजेपी के लिए सीटें घटने का अनुमान है. या फिर वे सीटें नहीं घटने की भी उम्मीद जताते हैं.
लेखक दावा करते हैं कि आर्थिक विकास गिरने, बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर वोट नहीं पड़ेंगे. राष्ट्रवाद मतदाताओं पर हावी है. वह मानते हैं कि मोदी लहर पिछली बार की तरह नदारद है, फिर भी 2014 के मुकाबले 2019 में नरेंद्र मोदी को मतदाता बेहतर समझते हैं. लेखक ने कहा है कि कांग्रेस न्याय के साथ जरूर चुनाव मैदान में है लेकिन कांग्रेस के नेताओं में ताजगी नहीं है.
भारत के लिए संसदीय लोकतंत्र ही फिट
मार्क टुली ने हिन्दुस्तान टाइम्स में बहस छेड़ी है कि भारत के लिए संसदीय लोकतंत्र कितना उपयुक्त है. या फिर भारत को ऐसा राष्ट्रपति चाहिए जिसके पास सारे अधिकार हों. मगर, दूसरी स्थिति में राष्ट्रपति अधिक लोकतांत्रिक नहीं होता. वहीं कमजोर होकर भी प्रधानमंत्री लोकतांत्रिक होता है.
मार्क टुली दो प्रधानमंत्रियों की याद दिलाते हैं जो कमजोर होकर भी प्रभावशाली रहे. एक नरसिंह राव जिन्होंने अल्पमत की सरकार चलाई और दूसरे अटल बिहारी वाजपेयी जिन्होंने विशालकाय गठबंधन का नेतृत्व किया. मार्क टुली भारतीय लोकतंत्र के उस स्याह पहलू को भी दिखलाते हैं जिसमें महज 31 फीसदी वोट लेकर बीजेपी को 282 सीटें मिल जाती हैं और 19 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल करके भी कांग्रेस महज 42 सीट ही हासिल कर पाती है. लेखक का मानना है कि तमाम कमियों के बावजूद संसदीय लोकतंत्र ही भारत के हित में है और यही विविधताओं से भरे हिंदुस्तान के लिए सही लगता है.
देशभक्ति दिखावे की चीज नहीं
रामचंद्र गुहा ने अमर उजाला में अपने एक संस्मरण के माध्यम से देशभक्ति को समझने और समझाने की कोशिश की है. वह लिखते हैं कि जब उन्होंने चिपको आंदोलन से जुड़ी पहली किताब लिखी और इसी गरज से वे शोध करते हुए वे गढ़वाल पहुंचे . वहां उनकी मुलाकात बीएस पुंडीर और शेर सिंह मेवाड़ नाम के दो ऐसे बुजुर्ग पूर्व सैनिकों से मुलाकात हुई, जिन्होंने गढ़वाल रियासत के भारत में विलय में भूमिका निभाई थी.
लेखक याद करते हैं कि उन बुजुर्ग पूर्व सैनिकों में से एक ने उन्हें हस्तलिखित पांडुलिपी सौंपी थी- ‘टिहरी गढ़वाल का क्रांतिकारी इतिहास’. उस पुस्तक में अपनी देशभक्ति को छोड़कर उस पूर्व सैनिक ने हर बात का वर्णन किया था कि किस तरह राजा अपनी प्रजा की इच्छा के सामने नतमस्तक हो गया और भारतीय गणराज्य में टिहरी गढ़वाल का विलय हुआ.
लेखक को दोनों पूर्व सैनिकों का साथ, उनके साथ बिताए पल, उनकी सादगी, उनकी कुर्बानी सबकुछ याद है मगर जिस बारे में खुद उन पूर्व सैनिकों ने कभी बताया नहीं था. उनका सम्मान स्थानीय लोगों में था.
लेखक लिखते हैं कि उन्हें उनकी याद इसलिए आ रही है क्योंकि देशभक्ति से खुद को जोड़ रहे लोगों को उन कुर्बानियों के बारे में, उनकी देशभक्ति के बारे में बहुत कम पता है. ये चीजें प्रदर्शन की नहीं होतीं
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