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विवाह और गोद लेने का अधिकार: सेम-सेक्स मैरिज पर SC के फैसले के 7 महत्वपूर्ण बिंदु

"केंद्रीय कानून की अनुपस्थिति में राज्य की विधायिकाएं समलैंगिक विवाह के संबंध में "कानून या रूपरेखा" बना सकती हैं."

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भारत में समलैंगिक विवाहों (Same-sex marriages) को कानूनी रूप से मान्यता देने के खिलाफ अपने फैसले में, सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी भी की. वो यह थी कि राज्य विधानसभाएं किसी भी केंद्रीय कानून की गैर-मौजूदगी में समान-लिंग विवाह (Same-sex marriages) को मान्यता देने और विनियमित करने वाले कानून बनाने के लिए आजाद हैं.

जबकि इस फैसले ने केंद्र को "संघ में शामिल समलैंगिक जोड़ों के अधिकारों के दायरे को बताने और स्पष्ट करने के उद्देश्य से" एक समिति बनाने का निर्देश दिया है, लेकिन इसके गठन के लिए समय सीमा नहीं बताई गई है.

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भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एसके कौल, एसआर भट्ट, हिमा कोहली और पीएस नरसिम्हा द्वारा दिया गया 366 पन्नों का फैसला विभिन्न मुद्दों पर आधारित है - जिसमें यह भी शामिल है कि क्या शादी करने के अधिकार को मौलिक अधिकार माना जा सकता है? क्या समलैंगिक जोड़े कोई बच्चा गोद ले सकते हैं और क्या एक गैर-विषमलैंगिक नागरिक संघ प्रशंसनीय (non-heterosexual civil union) है?

क्विंट हिंदी ने इस फैसले की गहराई से जांच की है ताकि आपको यह न करना पड़े - और यहां इस फैसले के प्रमुख निष्कर्ष दिए गए हैं.

शादी करने का कोई मौलिक अधिकार नहीं

सभी पांच न्यायाधीशों ने सर्वसम्मति से सहमति व्यक्त की कि "शादी करना कोई मौलिक अधिकार नहीं है."

सीजेआई ने ऐसा अपने फैसले में कहा, जिसका समर्थन न्यायमूर्ति कौल ने किया, "संविधान स्पष्ट रूप से विवाह करने के मौलिक अधिकार को मान्यता नहीं देता है. किसी संस्था (शादी जैसी) को कानून द्वारा दी गई सामग्री के आधार पर मौलिक अधिकार के दायरे में नहीं लाया जा सकता है. हालांकि, वैवाहिक संबंधों के कई पहलू संवैधानिक मूल्यों के प्रतिबिंब हैं, जिनमें मानव गरिमा का अधिकार और जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार शामिल हैं,

न्यायमूर्ति भट ने कहा कि "विवाह का कोई अयोग्य अधिकार नहीं है, सिवाय इसके कि यह कानून द्वारा मान्यता प्राप्त है, जिसमें रीति-रिवाज द्वारा छोड़ी गई जगह भी शामिल है." वैधानिक अधिकार वह है जो संसद द्वारा पारित किसी भी कानून द्वारा प्रदान किया जाता है.

जस्टिस कोल्ही और नरसिम्हा भी सहमत हुए.

"विवाह का अधिकार एक वैधानिक अधिकार है, और जिस हद तक यह प्रदर्शित किया जा सकता है, यह कानूनी रूप से लागू करने योग्य कस्टमरी प्रैक्टिस से मिलने वाला अधिकार है. ऐसे अधिकार, वैधानिक या प्रथागत (statutory or customary), के प्रयोग में, व्यक्तियों (individuals) के लिए राज्य कानून की सुरक्षा बढ़ाने के लिए बाध्य है, ताकि वे बिना किसी डर और दबाव के अपनी पसंद चुन सकें."
जस्टिस नरसिम्हा

स्पेशल मैरिज एक्ट को हटाया नहीं जा सकता

पीठ तब सहमत थी जब उसने कहा कि वह विशेष विवाह अधिनियम 1954 की संवैधानिक वैधता को रद्द नहीं कर सकती. सीजेआई ने कहा कि अदालत "अपनी संस्थागत सीमाओं के कारण एसएमए में शब्दों को नहीं पढ़ सकती है."

उन्होंने कहा, "न्यायालय को, न्यायिक समीक्षा की शक्ति का इस्तेमाल करते हुए, उन मामलों से दूर रहना चाहिए, विशेष रूप से नीति पर प्रभाव डालने वाले, जो विधायी क्षेत्र में आते हैं."

लेकिन सीजेआई और न्यायमूर्ति कौल न्यायमूर्ति भट की इस टिप्पणी से असहमत थे कि "एसएमए का एकमात्र उद्देश्य विशेष रूप से विषमलैंगिक जोड़ों के विवाह को सक्षम बनाना था."

सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा, "भट्ट जे ने माना है कि... एसएमए का उद्देश्य अंतर-धार्मिक विषमलैंगिक विवाह (heterosexual marriage) को सक्षम बनाना था... (और) यह समलैंगिक व्यक्तियों के खिलाफ भेदभाव नहीं करता है."

"मेरा विद्वान भाई ने खुद इसका खंडन किया है जब वह मानते हैं कि एसएमए एक तरफ अपने उद्देश्य पर भरोसा करके भेदभावपूर्ण नहीं है, और दूसरी तरफ राज्य ने अप्रत्यक्ष रूप से समलैंगिक समुदाय के खिलाफ भेदभाव किया है क्योंकि यह इसका प्रभाव है न कि इसका ऑब्जेक्ट जो जरुरी है."

न्यायमूर्ति कौल ने समर्थन करते हुए कहा, "अगर एसएमए का इरादा अंतर-धार्मिक विवाहों को सुविधाजनक बनाना है, तो इसके द्वारा किए गए वर्गीकरण के साथ इसका कोई तर्कसंगत संबंध नहीं होगा, यानी, गैर-विषमलैंगिक संबंधों को छोड़कर."

हालांकि, न्यायमूर्ति कौल ने सीजेआई की तरह ही माना कि "गैर-विषमलैंगिक संबंधों के बीच विवाह को शामिल करने के लिए एसएमए को पढ़ने में कई व्याख्यात्मक कठिनाइयां हैं."

नागरिक संघ में रहने की स्वतंत्रता

जबकि सीजेआई और न्यायमूर्ति कौल दोनों समलैंगिक विवाहों को वैध बनाने के खिलाफ थे, वे "विभिन्न जोड़ों सहित सभी व्यक्तियों की एक संघ में प्रवेश करने की स्वतंत्रता" के पक्ष में थे.

सीजेआई ने कहा, "ऐसी यूनियनों को मान्यता देना और उन्हें कानून के तहत लाभ देना राज्य का दायित्व है."

"यौन अभिविन्यास (sexual orientation) के आधार पर संघ (यूनियन) में प्रवेश करने का अधिकार प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है. ऐसा प्रतिबंध अनुच्छेद 15 का उल्लंघन होगा. इस प्रकार, यह स्वतंत्रता लिंग पहचान या यौन अभिविन्यास की परवाह किए बिना सभी व्यक्तियों के लिए उपलब्ध है."

न्यायमूर्ति कौल ने कहा: "गैर-विषमलैंगिक मिलन और विषमलैंगिक मिलन/विवाह को मान्यता और परिणामी लाभ दोनों के संदर्भ में एक ही सिक्के के दो पहलू माना जाना चाहिए. वर्तमान में एकमात्र कमी ऐसी यूनियंस के लिए उपयुक्त नियामक ढांचे की गैर-मौजूदगी है."

हालांकि, न्यायमूर्ति भट ने कहा कि विवाह या नागरिक संघ के समान मिलन के अधिकार की कानूनी मान्यता का अधिकार, या रिश्ते के पक्षों को कानूनी दर्जा प्रदान करना केवल अधिनियमित कानून के जरिए से ही हो सकता है. उन्होंने कहा, "इसका एक क्रम यह है कि अदालत ऐसे नियामक ढांचे के निर्माण में शामिल या निर्देशित नहीं कर सकती है जिसके परिणामस्वरूप कानूनी स्थिति बनती है."

जस्टिस नरसिम्हा और जस्टिस कोहली इस पर सहमत हुए.

Queer कपल गोद नहीं ले सकते

एक महत्वपूर्ण टिप्पणी में, सीजेआई, जो फैसला पढ़ने वाले पहले व्यक्ति थे, उन्होंने कहा कि "अविवाहित जोड़े (Queer जोड़ों सहित) संयुक्त रूप से एक बच्चे को गोद ले सकते हैं." और "सीएआरए [केंद्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण] परिपत्र असंगत रूप से समलैंगिक समुदाय पर प्रभाव डालता है और अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है."

हालांकि, न्यायमूर्ति भट के बहुमत के फैसले में कहा गया कि CARA विनियमों को "शून्य नहीं ठहराया जा सकता है."

न्यायमूर्ति भट्ट ने कहा कहा, "इसके साथ ही, इस न्यायालय की सुविचारित राय है कि CARA और केंद्र सरकार को वास्तविक परिवारों की वास्तविकताओं पर उचित रूप से विचार करना चाहिए, जहां सिंगल व्यक्तियों को गोद लेने की अनुमति है और उसके बाद गैर-वैवाहिक रिश्ते में रहना शुरू कर दिया जाता है."

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समिति का गठन

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति गठित करने का भी निर्देश दिया, जिसका उद्देश्य "यूनियन में शामिल समलैंगिक जोड़ों के अधिकारों के दायरे को परिभाषित और स्पष्ट करना" इसके साथ ही सभी प्रासंगिक कारकों में से "एक व्यापक जांच करना" था.

सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा, "इस समिति में समलैंगिक समुदाय के व्यक्तियों के साथ-साथ समलैंगिक समुदाय के सदस्यों की सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक जरूरतों से निपटने में डोमेन ज्ञान और अनुभव वाले विशेषज्ञ शामिल होंगे."

यह मई में कार्यवाही के दौरान केंद्र के वकील ने जो कहा था, उसके अनुरूप था.

राज्य कानून बनाने के लिए स्वतंत्र

दिलचस्प बात यह है कि न्यायमूर्ति भट ने अपने फैसले की पोस्टस्क्रिप्ट में उल्लेख किया है - जिस पर न्यायमूर्ति कोहली के हस्ताक्षर भी हैं - कि "केंद्र सरकार के बजाय, राज्य विधायिकाएं" कार्रवाई कर सकती हैं और केंद्रीय कानून की अनुपस्थिति में समलैंगिक विवाह के संबंध में "कानून या रूपरेखा" बना सकती हैं.

सीजेआई चंद्रचूड़ ने यह भी कहा कि "सातवीं अनुसूची की सूची III की प्रविष्टि 5 के साथ पढ़े गए संविधान के अनुच्छेद 245 और 246 के तहत, समलैंगिक विवाह को मान्यता देने और विनियमित करने के लिए कानून बनाना संसद और राज्य विधानसभाओं के अधिकार क्षेत्र में आता है."

उन्होंने आगे बताया, "संविधान की सातवीं अनुसूची की समवर्ती सूची की प्रविष्टि 5 राज्य विधायिका और संसद दोनों को विवाह के संबंध में कानून बनाने की शक्ति प्रदान करती है."

ट्रांस लोगों का विवाह का अधिकार

पीठ एक अन्य मुद्दे पर भी सहमत थी - कि "विषमलैंगिक संबंधों में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को मौजूदा वैधानिक प्रावधानों के तहत शादी करने की स्वतंत्रता और अधिकार है."

"विषमलैंगिक संबंधों में ट्रांसजेंडर व्यक्ति मौजूदा कानून के तहत शादी कर सकते हैं. हम भारत संघ की इस दलील से सहमत हैं कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति शादी कर सकते हैं या नहीं, इस मुद्दे को समलैंगिक व्यक्तियों के संबंध में एसएमए के तहत उत्पन्न होने वाले मुद्दों से अलग तय किया जाना चाहिए या Queer रुझान वाले."
सीजेआई चंद्रचूड़

इसका, दूसरे शब्दों में, मतलब है कि ट्रांस पुरुष कानूनी तौर पर ट्रांस महिलाओं या सिजेंडर महिलाओं से शादी कर सकते हैं और ट्रांस महिलाएं कानूनी तौर पर ट्रांस पुरुषों या सिजेंडर पुरुषों से शादी कर सकती हैं - और यह अधिकार पहले से मौजूद है.

हालांकि, ट्रांस-नॉन-बाइनरी व्यक्ति कानूनी रूप से शादी नहीं कर सकते हैं या कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त नागरिक संघ नहीं रख सकते हैं.

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