ADVERTISEMENTREMOVE AD

सावित्रीबाई और फातिमा की दोस्ती: एकजुटता की ऐसी मिसाल जिसकी आज भारत को जरूरत

सावित्रीबाई फुले की जिंदगी में फातिमा शेख की बहुत खास जगह थी, जिन्हें वह अपनी ‘सबसे भरोसेमंद साथी’ कहती थीं.

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

ऐसा कहा जाता है और यह कहना बिल्कुल सही भी है, कि आज अगर आप पढ़ सकती हैं, तो इसके लिए आपको सावित्रीबाई का शुक्रगुजार होना चाहिए. अगर आप आज लिख सकती हैं, तो आपको सावित्रीबाई का शुक्रिया अदा करना चाहिए. यह लेख सवित्रीबाई फुले और फातिमा शेख के बारे में है जिनकी दोस्ती समय की कसौटी पर खरी साबित हुई और यह एकजुटता की ऐसी मिसाल है, जिसकी आज भारत के नागरिकों को जरूरत है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

यह लेख लेखिका रीता राममूर्ति गुप्ता की लिखी किताब ‘सावित्रीबाई फुले, हर लाइफ, हर रिलेशनशिप, हर लीगेसी’ (Savitribai Phule, Her Life, Her Relationships, Her Legacy by author, Reeta Ramamurthy Gupta) के अंशों पर आधारित है.

महिलाओं और निचली जातियों को सार्वजनिक स्थानों तक पहुंच नहीं थी, शिक्षा की तो बात ही छोड़ दें, सावित्रीबाई फुले को फातिमा में अपनी आवाज और तार्किकता की परछाईं दिखी.

सावित्रीबाई अपने पति ज्योतिराव फुले के साथ पूना में रहती थीं, जो ब्राह्मणों का पारंपरिक गढ़ था. उन्होंने फातिमा के साथ मिलकर लड़कियों और महार, मंगल, शूद्र और अतिशूद्र जैसे हाशिए पर रहने वाले जातियों के लिए 18 से ज्यादा स्कूल शुरू किए.

“आने वाली पीढ़ियों के लिए फातिमा की जिंदगी के सिरों को फिर से जोड़ना जरूरी है, जिसके विवरण सिर्फ जुबानी किस्सों में मिलते हैं. शिक्षा और आज हम जिन मौकों का इस्तेमाल कर पा रहे हैं, उसके लिए हम उनके भी उतने ही कर्जदार हैं जितना सावित्रीबाई के.”
रीता राममूर्ति गुप्ता ने क्विंट को बताया

दो महत्वाकांक्षी छात्राएं और पुरुषवादी, ब्राह्मणवादी समाज

किताब में बताया गया है, “अगर सुबह कोई शूद्र सामने पड़ जाता तो यह ब्राह्मणों के लिए अपशकुन माना जाता था… ब्राह्मणों को शूद्रों के पैरों के निशान नहीं दिखने चाहिए. उनको रास्ते की अपवित्र मिट्टी को मिट्टी की परत से ढंकना पड़ता था, इसलिए उन्हें तहल्या (कमर पर बांधी डालियां जिनसे वे अपने रास्ते को साफ करते चलते थे) बांध कर चलना होता था.

महिलाओं का हाल और ज्यादा बदतर था— उनकी शादी छोटी उम्र में ही ज्यादा उम्र के राजाओं और पुरुषों से कर दी जाती थी, इसलिए वे जल्दी विधवा हो जाती थीं. आमतौर पर महिलाओं से अपेक्षा की जाती थी कि वे पर्दे/घूंघट में रहें, पुरुषों के सामने न आएं, जोर से न हंसें, ऊंची आवाज में बात न करें और यहां तक कि पुरुषों के सामने जूते-चप्पल भी न पहनें.

किताब में लिखा है, “महिलाओं की पढ़ाई को धर्म विरुद्ध माना जाता था.” सावित्री और फातिमा की कहानी इसी दौर की कहानी है.

बचपन में सावित्री छिपकर स्कूल में लड़कों को पढ़ते हुए देख रही थीं तब उन्हें पकड़ लिया गया था और उन्हें धमकी दी गई थी कि अगर दोबारा दिखाई दीं तो “तुम्हारे पिता और भावी पति की मौत हो जाएगी,” और “तुमसे कोई भी शादी नहीं करेगा.”

दूसरी ओर, फातिमा का परिवार उत्तर प्रदेश से महाराष्ट्र आया था और नासिक में बस गया था. उनके परिवार के सदस्य हथकरघा पर तैयार होने वाले कपड़ों के व्यापारी थे, जो निचली जुलाहा जाति से थे.

जब वह सात साल की थीं, तभी उनका परिवार 1837-38 के आगरा अकाल की वजह से पूना आ गया था. माता-पिता की जल्दी मौत हो जाने पर उनके भाई उस्मान शेख सरपरस्त थे. उर्दू और फारसी के विद्वान मुंशी गफ़ार बेग उनके लिए पिता समान थे.

सावित्री और फातिमा की मुलाकात पूना में मिसेज मिशेल के स्कूल में हुई, जहां उन दोनों ने अंग्रेजी की पढ़ाई की थी.

‘फातिमा, मेरी सबसे भरोसेमंद साथी’

किताब में सावित्रीबाई कहती हैं, “सगुना आऊ (ज्योतिराव की चाची) हमारी पथ प्रदर्शक थीं. फातिमा मेरी सबसे करीबी दोस्त थीं, लड़कियों की शिक्षा में हमारी कामयाबी में मेरी सबसे भरोसेमंद साथी. वह बहुत हिम्मतवाली महिला थीं. बाद में हमारा संपर्क नहीं रहा. मैं आखिरी बार उनसे सिंथिया फर्रार के अंतिम संस्कार के मौके पर मिली थी.”

सिंथिया फर्रार अहमदनगर में उनकी टीचर थीं जिन्होंने उन दोनों को अपने स्कूल में पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया था.

दूसरी तरफ, फातिमा ने सावित्री को आलोचनाओं को नजरअंदाज करना और चौतरफा कठिनाइयों की बीच रहमदिल बने रहना सिखाया.

“वह हमेशा पैगंबर को उद्धृत करते हुए कहती थीं: तुम धरती वालों पर दया करो, (अल्लाह) तुम पर दया करेगा,” सावित्री और ज्योतिराव ने इस पर अमल करके दिखाया.

किताब में लिखा है, “जब मैंने 1854 में कविता संग्रह काव्य फुले (Kavya Phule) प्रकाशित किया तो मैंने जोर दिया कि वह (फातिमा) भी अपनी शायरी की एक किताब प्रकाशित करें. उन्हें उर्दू की बहुत अच्छी जानकारी थी और उन्होंने कई नज्में लिखीं थीं. अफसोस की बात है कि उन्होंने उसे कभी प्रकाशित नहीं करवाया…”

किताब में बताया गया है कि अपने समुदाय के वर्चस्व के खात्मा करना में मुट्ठी भर ब्राह्मणों ने भी अपनी मर्जी से भागीदारी निभाई थी.

“सावित्री ने मिसेज मिशेल स्कूल से एलिमेंटरी लेवल का टीचर-ट्रेनिंग कोर्स किया. माना जाता है कि वह ऐसा करने वाली पहली भारतीय महिला थीं. कोर्स पूरा करने का सर्टिफिकेट देने मिसेज मिशेल और फातिमा सावित्री के घर गई थीं.”
ADVERTISEMENTREMOVE AD

फातिमा पर गोबर फेंका गया, सावित्री अपने पास एक साड़ी अतिरिक्त रखती थीं

सावित्री और फातिमा दोनों अपनी ट्रेनिंग के वास्ते कुछ महीने के लिए अहमदनगर में फर्रार के पास गईं. सावित्री और फातिमा दोनों ने कहा था, “जब हम अपने खुद के स्कूल शुरू करेंगे, तो उसे किसी भी जाति या धर्म के बंधन से पूरी तरह आजाद रखेंगे.”

पहला स्कूल 1 जनवरी 1848 को खो गया. सावित्री टीचर और हेड मिस्ट्रेस नियुक्त की गईं और फातिमा टीचर.
सावित्री एक अतिरिक्त साड़ी साथ रखती थीं क्योंकि अक्सर उन पर पत्थर और गंदगी फेंक दी जाती थी. ज्योति और सावित्री ने अपने मां-बाप का घर छोड़ दिया और मुंशी गफ़ार बेग के फातिमा के भाई को खत लिखने के बाद वह फातिमा के घर में रहने लगे.

‘साक्षर व्हा, निर्भार व्हा’— साक्षर बनें और आत्मनिर्भर बनें

“महार और मांग जातियों की लड़कियों और बच्चों को पास के कुएं से पानी पीने की इजाजत नहीं थी. ऐसे में फातिमा और सावित्री ने बच्चों के लिए पानी भी खरीदा. उन्हें जो फंड मिल रहा था वह स्कूल को चलाने के लिए पूरा नहीं पड़ रहा था. ऐसे में, भिड़ेवाला स्कूल को कुछ समय के लिए बंद कर दिया गया.

सन 1848-1853 के बीच उन्होंने 18 स्कूल खोले. बाद में, सावित्री ने फातिमा को स्कूलों की हेड मिस्ट्रेस बना दिया ताकि वह खुद गांवों में जा सकें और लोगों को अपनी लड़कियों को उनके स्कूल भेजने के लिए राजी कर सकें.

“ज्योतिराव और सावित्री के स्कूलों का सिलेबस ब्राह्मणों द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों से अलग था. इसमें विषयों की विस्तृत श्रृंखला, मराठों का इतिहास, भारत और एशिया का भूगोल, व्याकरण, अंकगणित और सामाजिक-आर्थिक समस्याओं पर बुनियादी लेखन शामिल था.”

लिंग एवं सामाजिक न्याय

फातिमा, सावित्री और ज्योति और उनके सहयोगियों ने 1851 और 1853 के बीच जो स्कूल स्थापित किए, वे 75 रुपये प्रति माह के अतिरिक्त अनुदान के माध्यम से दक्षिणा निधि के लाभार्थी बन गए.

यह फंड के मूल उद्देश्य से एक बड़ा बदलाव था, जो उन लोगों को प्रोत्साहित और पुरस्कृत करना था जो हिंदू पवित्र पुस्तकों के विद्वान बन गए थे.

फातिमा और सावित्री ने अपने स्कूल के बच्चों के लिए एक पुरस्कार वितरण समारोह भी आयोजित किया. यहां अंग्रेज स्थानीय अभिजात वर्ग और आम लोगों, दोनों के साथ घुल-मिल गए. फातिमा ने लड़कियों से गणित और इतिहास पर सवाल पूछे और उन्होंने मंच पर जोर-शोर से जवाब दिया.

सावित्री ने फातिमा की मदद से एक महिला सेवा मंडल की भी स्थापना की. इसके द्वारा उठाए गए मुद्दों में से एक हिंदुओं में विधवाओं का जबरन मुंडन भी था.

“सावित्रीबाई और फातिमा संदर्भ और धारणा के महत्व को बहुत अच्छी तरह समझती थीं, जिसे हम अक्सर समझने से चूक जाते हैं.”
रीता राममूर्ति गुप्ता ने क्विंट से कहा
ADVERTISEMENTREMOVE AD

उन्होंने बताया कि लोगों की इस गलत सोच को दूर करने के लिए कि उन्होंने धर्म परिवर्तन कर लिया है, “महिला सेवा मंडल के गठन के दौरान सावित्रीबाई ने लोगों को यह दिखाने के लिए कि वह अभी भी उनकी ही हैं, हल्दी कुमकुम समारोह आयोजित किया. दूसरी तरह फातिमा ने मुस्लिम और हिंदू लड़कियों को कढ़ाई और सिलाई की ट्रेनिंग भी देती थीं ताकि स्थानीय लोगों से उनका जुड़ाव न टूटे.”

“यह देखते हुए कि फातिमा उदार और आजाद ख्यालों वाली थीं, यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि मुस्लिम और हिंदू दोनों धर्मों के रूढ़िवादियों ने उनका उतना ही विरोध किया होगा जितना सावित्री का किया था. … भाई उस्मान बेग ने कभी भी फातिमा की पसंद के बारे में किसी को नहीं बताया. वह उनका सबसे बड़ा गौरव और सबसे बड़ी जिम्मेदारी थीं.”

28 जनवरी 1853 को, सावित्री ने एक शिशुहत्या निषेध गृह (Infanticide Prohibition Home) खोला— जो भारत में अपनी तरह का पहला था.

सावित्री ने भाई उस्मान बेग को फातिमा के लिए बरकत का रिश्ता बताकर जोड़ी बनाने वाले की भूमिका भी निभाई. बरकत और फातिमा एक-दूसरे को पांच साल से जानते थे.

लोगों को शिक्षित करने का उनका संघर्ष अपने आप में एक क्रांति थी, उनकी दोस्ती इसे परवान चढ़ा रही थी.

रीता राममूर्ति गुप्ता ने ठीक ही लिखा है, “सामाजिक सुधार आंदोलन के पूरे असर को शायद सिर्फ महसूस किया जा सकता है, नापा नहीं जा सकता.”

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×