सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को अपने एक फैसले में कहा कि आरटीआई के तहत अब जजों की नियुक्तियों में कॉलेजियम के अंतिम फैसले को बताना होगा और जजों को अपनी संपत्ति का खुलासा भी करना होगा. बेंच ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट एक पब्लिक अथॉरिटी है और आरटीआई के तहत आती है. लेकिन प्राइवेसी को लेकर एक बड़ा सवाल बना हुआ है. जजों की नियुक्तियों और संपत्ति के खुलासे, दोनों के संबंध में दिए गए फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने जो बात कही है उस पर गौर करना जरूरी है.
संपत्ति के खुलासे में प्राइवेसी का सवाल
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ऐतिहासिक है. लेकिन इस फैसले में प्राइवेसी की लक्ष्मण रेखा खींच दी गई है. चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अगुआई वाली संवैधानिक बेंच ने कहा कि जजों से पारदर्शिता की मांग करने का मतलब यह नहीं है कि यह सर्विलांस टूल बन जाए. ऐसे मामलों में न्यायिक स्वतंत्रता को भी ध्यान में रखना होगा. इस बेंच के दो जजों ने अलग फैसला लिखा. जस्टिस रमना ने कहा कि राइट टु प्राइवेसी एक अहम पहलू है. लिहाजा सीजेआई के दफ्तर से जानकारियां देने के वक्त इसे जरूर ध्यान में रखा जाना चाहिए. जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा ज्यूडीशियरी अलग-थलग होकर काम नहीं कर सकती. जज संवैधानिक पद पर बैठे होते हैं इसलिए उन्हें अपनी पब्लिक ड्यूटी निभानी होगी.
‘पारदर्शिता के लिए न्यायिक स्वतंत्रता पर आंच न आए’
हालांकि सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने कहा कि न्यायिक स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं हैं जज कानूनी नियमों से ऊपर हैं. इसलिए चीफ जस्टिस को जजों की सपंत्तियों के बारे में खुलासा करना ही होगा. लेकिन पर्सनल जानकारियों का खुलासा तभी होगा जब यह जनहित में होगा. अब सवाल यह है कि अदालत किसे पर्सनल जानकारी मानती है.
फैसले में कहा गया है कि जजों और उनके परिवार के मेडिकल रिकार्ड्स, ट्रीटमेंट, च्वायस ऑफ मेडिसिन, हॉस्पिटल, इलाज करने वाले डॉक्टर, जांच की रिपोर्ट पर्सनल जानकारी है. इसमें संपत्तियों और देनदारी, इनकम टैक्स रिटर्न, निवेश का ब्योरा, कर्ज के लेनदेन भी शामिल है. संपत्ति और देनदारी की जानकारी शब्द पर कन्फ्यूजन है. लेकिन कई वकीलों का कहना है कि यह जजों के रिश्तेदारों की संपत्ति और देनदारी के बारे में कहा गया है. जजों की संपत्ति और देनदारी के बारे में नहीं. यानी जजों की संपत्ति और देनदारी को पर्सनल जानकारी नहीं माना गया है.
इसका मतलब यह है कि अगर कोई आरटीआई एक्ट के तहत जजों की संपत्ति का ब्योरा मांगता है और सेंट्रल पब्लिक इनफॉरमेशन ऑफिसर को लगता है कि यह जनहित में है तो इससे जुड़ी सूचना का खुलासा हो सकता है. हालांकि ‘पर्सनल जानकारी’ की लक्ष्मण रेखा तो बरकरार ही रहेगी.
नियुक्तियों पर पूरे खुलासे का पेच
अब बात करते हैं जजों की नियुक्तियों पर लिए जाने वाले अंतिम फैसले के बारे में. सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले के मुताबिक सिर्फ यह बताना होगा कि नियुक्तियों पर क्या अंतिम फैसला लिया गया. किसी जज को क्यों नियुक्त किया और इसके लिए किन बिंदुओं पर विचार किया गया, यह बताना जरूरी नहीं होगा.
दरअसल जजों को नियुक्त करने या किसी को प्रमोट करके बड़ा पद देने के मामले में फाइल नोटिंग में सिर्फ सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही की ही जानकारी नहीं होती बल्कि इसमें जजों से जुड़ी जानकारी भी होती है. इसमें थर्ड पार्टी की ओर से मुहैया कराई जानकारी भी होती है. जिसे वह गोपनीय जानकारी मानती है. जजों की नियुक्ति या उन्हें प्रमोट करने के मामले में कॉलेजियम कई तरह की छानबीन करता है. इनमें जजों, इंटेलिजेंस ब्यूरो, केंद्र-राज्य और हाई और सुप्रीम कोर्ट के बार मेंबरों की जानकारी शामिल होती है.
जजों की संपत्ति के खुलासे के लिए आरटीआई दाखिल करने वाले आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चंद्र अग्रवाल ने सुप्रीम कोर्ट से जस्टिस एच एल. दत्तू, एचएल दत्तू, एके गांगुली और आर एम लोढा की नियुक्तियों के बारे में संबंधित संवैधानिक अथॉरिटिज के बीच चिट्ठी-पत्री का ब्योरा मांगा था. अग्रवाल का कहना था कि इन्हें जस्टिस पी शाह की सीनियरिटी की अनदेखी कर नियुक्त किया गया था. लेकिन अदालत ने अग्रवाल के इस पिटीशन को खारिज कर दिया. साफ है कि जजों की संपत्तियों और उनकी नियुक्तियों के मामले में जानकारियों के खुलासे के आगे एक लक्ष्मण रेखा खींच दी गई है. लिहाजा पारदर्शिता को बार-बार इस लक्ष्मण रेखा से टकराना होगा.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)