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शैंपू से नहाकर इस तरह ‘धुल’ रहा है भारतीय समाज

भारत के लोग हर साल लगभग 8,000 करोड़ रुपये का शैंपू लगाते हैं.

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भारत के लोग आम तौर पर हर दिन शैंपू से सर नहीं धोते. मार्केट रिसर्च सर्वे के मुताबिक, जो लोग शैंपू इस्तेमाल करते हैं, वे भी आम तौर पर हफ्ते में दो दिन शैंपू करते हैं. पश्चिमी देशों में लोग जब भी नहाते हैं, शैंपू भी कर लिया करते हैं. लेकिन चूंकि भारत की महिलाएं लंबे बाल रखती हैं, इसलिए वे जब शैंपू लगाती हैं, तो बाकी दुनिया से थोड़ा ज्यादा, 2 मिलीलीटर एक्सट्रा शैंपू लगाती हैं.

भारत में शैंपू का बाजार बड़ा है. भारत के लोग हर साल लगभग 8,000 करोड़ रुपये का शैंपू लगाते हैं.

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वैसे तो शैंपू के बारे में कई लोगों के दिमाग में अरसे तक यह धारणा थी कि यह खाते-पीते लोगों का शौक है और गरीब और ग्रामीण लोग तो साबुन से ही सिर धो लेते हैं, या सिर ही नहीं धोते. लेकिन अब यह आंकड़ा आ चुका है कि ग्रामीण भारत में शैंपू की खपत शहरी भारत से कहीं ज्यादा है. कंपनियां यह बात जानती हैं और इसलिए उनके सेल्स और प्रमोशन में गांव का खासा महत्व है.

भारत में हर साल बिकने वाले 8000 करोड़ रुपये के शैंपू में से लगभग आधा, कोई 54% शैंपू सैशे यानी प्लास्टिक की पुड़िया में बिकती है. शैंपू बनाने वाली कंपनियां चाहे वह देशी हो या विदेशी, भारत में माल बेचना है, तो उसे सैशे या यानी पुड़िया में शैंपू बेचना ही होगा. हिंदुस्तान यूनिलीवर से लेकर प्रोक्टर एंड गैंबल तक को इस रणनीति को अपनाना पड़ा और वे खूब कामयाब हैं.

लेकिन ऐसा हमेशा नहीं था. पहले शैंपू बॉटल में ही बिकते थे.

1983 में केविन केयर कंपनी ने चिक ब्रांड नेम से सैशे में शैंपू बैचने की शुरुआत की और इसके बाद जो हुआ, उसके गवाह हम सब हैं. चिक शैंपू की शुरुआती कीमत 1 रुपये थी.

इस प्रोडक्ट ने शैंपू का नया बाजार ही खोल दिया.देखते ही देखते, यह ब्रांड दक्षिण भारत में शैंपू का सबसे बड़ा ब्रांड बन गया और पूरे भारत में शैंपू बेचने के मामले में कई साल तक यह कंपनी दूसरे नंबर पर रही. यह सैशे में प्रोडक्ट बेचने की सबसे कामयाब कहानी है. शैंपू मार्केट की सभी कंपनियों ने सैशे में भी माल बेचने का मॉडल अपना लिया.

भारत के लोग हर साल लगभग 8,000 करोड़ रुपये का शैंपू लगाते हैं.
केविन केयर कंपनी ने चिक ब्रांड नेम से 1983 में शैंपू बैचने की शुरुआत की
(सांकेतिक फोटो: iStock)

सैशे में शैंपू बेचने की बात 1983 में अजीब सी थी. शैंपू के बारे में तब यही धारणा थी कि आम लोग साबुन से ही सिर धो लेते हैं. शैंपू का इस्तेमाल तो सिर्फ अमीर लोग करते हैं. केविन केयर कंपनी के संस्थापक आर. चिन्नी कृष्णन (चिन्नी के सी और कृष्णन से के से मिलाकर ही ‘चिक’ ब्रैंड नेम बना है) ने कहा, “जिस चीज का इस्तेमाल अमीर लोग करते हैं, वह आम लोगों के लिए भी सुलभ होनी चाहिए.”

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इस सोच ने भारत में एफएमसीजी यानी रोजमर्रा के इस्तेमाल में आने वाली उपभोक्ता सामग्री के बाजार को हमेशा के लिए बदल दिया. चिक शैंपू से शुरू हुई इस मार्केट क्रांति से न सिर्फ शैंपू के बाजार को बदल डाला, बल्कि भारतीय समाज को भी इसने कई तरह से प्रभावित किया है.

इसे एक मिसाल से समझिए कि शैपू का एक सैशे समाज पर कैसे असर डालता है. कर्नाटक और महाराष्ट्र के एक हिस्से में कुछ जातियों में धार्मिक मान्यता है कि अगर लड़की के सिर पर लट बन जाए, यानी ढेर सारे बाल इकट्ठा होकर रस्सी की शक्ल ले लें, तो इसका मतलब है कि देवी आदेश कर रही हैं कि लड़की को मंदिर के हवाले कर दिया जाए, जहां वह देवदासी बन कर रहे.

धार्मिक व्यभिचार के लिए बदनाम देवदासी प्रथा हालांकि कानून के तहत अब पूरी तरह प्रतिबंधित है, लेकिन वास्तविकता यही है कि यह पूरी तरह कभी बंद नहीं हुई. बालों का लट बनना बालों की लंबे समय तक धुलाई न होने से जुड़ा मामला है. बालों में लट बनने की वजह से हर साल बड़ी संख्या में लड़कियां देवदासी बनती रही हैं और बाद में उनमें से ज्यादातर देह व्यापार में धकेल दी जाती हैं.

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अब इस बीच अगर लोगों की जिंदगी में एक रुपये का शैंपू ‘सैशे’ आ गया और बाद में एक सैशे की कीमत घटकर 50 पैसे रह गई, तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि कितनी लड़कियां देवदासी और आगे चलकर वेश्या बनने से बच गई होंगी.

50 पैसे या एक रुपये का शैंपू सैशे जाने कितनी लड़कियों के बालों को साफ रखने में मदद करके लट बनने से रोक रहा होगा. किसी शोधकर्ता के लिए यह रिसर्च का दिलचस्प विषय हो सकता है.

भारत के लोग हर साल लगभग 8,000 करोड़ रुपये का शैंपू लगाते हैं.
भारत के लोग हर साल लगभग 8,000 करोड़ रुपये का शैंपू लगाते हैं
(सांकेतिक तस्वीरः Twitter)
ऐसा एक शोध उत्तर प्रदेश में 2007 में किया गया. इसे पेंसिल्वेनिया यूनिवर्सिटी के देवेश कपूर, स्वतंत्र शोधकर्ता चंद्रभान प्रसाद, हावर्ड यूनिलर्सिटी के लैंट प्रिचेट और राजीव गांधी फाउंडेशन के श्याम बाबू ने किया. इस शोध में यूपी के आजमगढ़ और बुलंदशहर जिलों के दो ब्लॉक में यह देखने की कोशिश की गई कि 1990 से 2007 के बीच खासकर दलितों की जीवन शैली और कंज्यूमर व्यवहार में क्या बदलाव आया है.

इस शोध से पता चला कि 1990 में आजमगढ़ जिले में 2.2% दलित ही टूथ पेस्ट का इस्तेमाल करते थे. 2007 में टूथपेस्ट इस्तेमाल करने वाले दलितों की संख्या 53.6% हो गई. यह बदलाव पश्चिम उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले में और तेज हुआ. वहां टूथपेस्ट इस्तेमाल करने वाले दलितों की संख्या 2.9% से 82.3% हो गई.

इसी तरह, 1990 में आजमगढ़ जिले में 0.8% दलित ही शैंपू का इस्तेमाल करते थे. 2007 में शैंपू इस्तेमाल करने वाले दलितों की संख्या 84.5% हो गई. बुलंदशहर जिले में शैंपू इस्तेमाल करने वाले दलितों की संख्या 0.7% से 55.8% हो गई. हेयर ऑयल का आंकड़ा भी तेजी से बढ़ा है.

इन दो जिलों में, 2007 में ऐसे दलितों की संख्या 15 फीसदी से भी कम रह गई, जो इनमें से किसी भी चीज का इस्तेमाल नहीं करते. 1990 के मुकाबले यह बहुत बड़ा बदलाव है.
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खासकर दलितों के बीच इन प्रोडक्ट की सेल बढ़ने का शोधकर्ताओं ने यह निष्कर्ष निकाला कि बाजारवाद के दौर में कंज्यूमर बेस, समाज के सबसे नीचे के तबकों तक भी पहुंचा और बाजार ने दलितों के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाया.

यह भी देखने की बात है कि शोधकर्ताओं ने जीवन शैली के स्टैंडर्ड को नापने के लिए जिन तीन प्रोडक्ट, यानी टूथपेस्ट, शैंपू और हेयर ऑयल, की खपत में बदलाव का अध्ययन किया, वे तीनों प्रोडक्ट छोटी पैकिंग या सैशे में उपलब्ध हैं. शैंपू तो इन पिछड़े इलाकों में मुख्य रूप से सैशे में ही ज्यादा बिकता है.

इसका मतलब यह हुआ कि दिल्ली या मुंबई या बेंगलुरु का एक मिडिल क्लास शहरी कंज्यूमर जिसे शैंपू या हेयर ऑयल का इस्तेमाल करती है, वही प्रोडक्ट, बेशक सैशे में आजमगढ़ और बुलंदशहर की दलित बस्ती की लड़की भी इस्तेमाल कर रही है. उस लड़की को भी इन प्रोडक्ट का इस्तेमाल करते वक्त उसी मॉडल या स्टार बनने के सपने आते होंगे, जो दिल्ली या मुबंई के कंज्यूमर को आते होंगे.

इसका मतलब यह हुआ कि आम लोग और गरीब लोग विज्ञापनों में स्टार्स को जिन प्रोडक्ट का इस्तेमाल करते देख फैंटसी पालते थे, वे प्रोडक्ट अब उनकी पहुंच में आ गए.

सुदूर गांव की एक लड़की शैंपू से सिर धोकर टीवी वाले मॉडल की तरह बाल झटकने की सोच सकती है, जो कल्पना किसी शहरी लड़की के दिमाग में आती होगी. साथ ही गांव के प्रभावशाली लोग और प्रभावशाली जातियों के लोग शैंपू या हेयर ऑयल का जो ब्रांड इस्तेमाल करते होंगे, वही ब्रांड दलित बस्तियों तक पहुंच गया.

यह फैंटसी के स्तर पर आया लोकतंत्र है, जो बाजार पर सवार होकर आया है.

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बात सिर्फ शैंपू और हेयर ऑयल की नहीं है. देखते ही देखते, तमाम ब्यूटी और पर्सनल केयर प्रोडक्ट सैशे और छोटे पैकेट में भी बिकने लगे. इनमें फेसवाश, शेविंग क्रीम, मॉस्चराइजर, हेयर कंडीशनर, लिक्विड शॉप, टूथ पेस्ट यानी कोई भी प्रोडक्ट हो सकता है.

इन प्रोडक्ट के छोटे पैकेट ने न सिर्फ बाजार को डेमोक्रेटिक बनाया है, बल्कि इन प्रोडक्ट के बाजार का विस्तार भी किया है. इस तरह से ये प्रोडक्ट उन गांवों, बस्तियों और मोहल्लों तक पहुंचे हैं, जहां बड़ी पैकिंग के साथ शायद से कभी न पहुंचते या काफी कम मात्रा में काफी देर से पहुंचते.

चिन्नी कृष्णन के चिक शैंपू ने जो रास्ता दिखाया, उस पर बाजार की गाड़ी अब सरपट दौड़ रही है.

(लेखिका भारतीय सूचना सेवा में अधिकारी हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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