हर साल 13 अप्रैल को सियाचिन दिवस (Siachen Day) मनाया जाता है. सियाचिन दुनिया का सबसे ऊंचा रणक्षेत्र है. बता दें पिछले 39 सालों से भारतीय फौज यहां तैनात हैं. सियाचिन दिवस ऑपरेशन मेघदूत (Operation Meghdoot) के अंतर्गत भारतीय सेना के साहस कि याद में मनाया जाता है. ग्लेशियर में लगभग 3000 सैनिक हमेशा ड्यूटी पर रहते हैं. यहां मौजूद हर एक सैनिक करीब तीन महीने सेवा देता है. जहां जवान दुश्मनों पर कड़ी निगाह बनाए रहते है, वहीं बेरहम मौसम के कारण कई मुश्किलों और चुनौतियों का सामना भी करते हैं सैनिक.
39 साल पहले सियाचिन की बर्फीली ऊंचाइयों पर कब्जा करने और अपने प्राणों की आहुति देने वाले सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए हर साल 13 अप्रैल को यह मनाया जाता है.
-40 डिग्री तक रहता है तापमान
भारतीय जवान सबसे ऊंची रणभूमि सियाचीन में देश की हिफाजत के लिए दिन रात -40 डिग्री तापमान में भी डटे रहते हैं, दिन में तापमान -40 डिग्री रहता है तो रात में -70 डिग्री पहुंच जाता है. ऐसे में भी जवान दिन-रात बर्फ के तूफान और ग्लेशियर को अपनी हिम्मत, जज्बे और देश प्रेम के आगे झुका देते है और ऐसे बेरहम मौसम में जहां एक दिन बिताना भी आसान नहीं है वहां तैनात रह कर दुश्मन के नापाक मंसुबों के खिलाफ खड़े रहते है. यहां की चुनौतियों का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले तीस साल में हमारे 846 जवानों ने प्राण की आहुति दी है. वहीं कुछ की मौत बर्फ के तूफान में फंसने के कारण भी हुई.
फिर भी हर भारतीय के लिए यह गर्व करने की बात है कि इतने खराब हालातों के बावजूद देश के 10 हजार से ज्यादा जवान इस चोटी पर बंदूक ताने खड़े रहते है.
जम जाता है खाना
सियाचिन ग्लेशियर 20 हजार फुच की ऊंचाई पर है, यहीं वजह है कि यहां पारा इतना गिर जाता है कि खाने पीने का सामान भी जम जाता है, मौसम के चलते जवानों को लिक्विड डाइट लेने को कहा जाता है, जिसके लिए सूप पीने से पहले उसे घंटों गर्म करना होता है, ताकि वो पिघल जाए और पीने योग्य हो जाए और दूसरा चैलेंज यह होता है कि सूप को गर्म होते ही पी लिया जाए वरना शून्य तापमान में जरा देर में ही सूप फिर जम जाता है.
साल 2019 में सियाचिन से एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें सैनिक दिखा रहे थे कि किस तरह से खाने के लिए उन्हें पहले जमे हुई चीजों को पिघलाना पड़ता है. वीडियो में सैनिक ने दिखाया कि किस तरह से जूस जमकर किसी पत्थर या ईंट जैसा हो गया, जिसको पीने के लिए पहले उसे गर्म करना होगा फिर ही उसको पिया जा सकता है. अंडे को हथौडे़ से मारकर तोड़ना पड़ता है, सब्जियों को भी सीधे सीधे काट कर नहीं बना सकते उन्हें पहले उबालना होता है, वहीं वीडियो में सैनिक हथौड़े से आलू टमाटर, प्याज, अदरक काटते हुए दिखाई दे रहे हैं.
दूध के कैन को खोलने में 40 मिनट तक का वक्त लग जाता है क्योंकि ठंड से बचने के लिए सैनिक मोटे-मोटे दस्ताने पहने होते है और ठंड की वजह से हाथ-पैर भी सुन हो जाते हैं, जिसकी वजह से दूध के डिब्बे को पकड़ना इतना आसान काम नहीं होता. चॉकलेट और सूखे मेवे सैनिकों के लिए काफी मुफीद माने जाते हैं. क्योंकि वो बर्फ में जमते नहीं और जम भी जाएं तो उन्हें पिघलाने की जरूरत नहीं पड़ती. साथ ही जवानों को बर्फ पिघला कर ही पानी पीना होता है पानी के लिए अलग से कोई सुविधा नहीं होती.
नहाना भी है एक मुश्किल
नहाने के लिए जो पानी इस्तेमाल होता है उसके साथ भी पूरी सावधानी बरती जाती है. नहाने के दौरान पानी जमे नहीं इसलिए उसे बराबर स्टोव पर रखा जाता है. केरोसिन तेल यहां की लाइफलाइन है, क्योंकि इसी पर सब कुछ निर्भर करता है. पहले इसे कैन में सप्लाई करते थे, लेकिन अब पाइपलाइन बिछा दी गई है.
बीमारियां
यहां भूख की कमी बड़ी समस्या है, लेकिन जिंदा रहने के लिए कुछ न कुछ खाना पड़ता है. इसमें गर्म और ठंडे की दिक्कत ज्यादा है. गर्म किए खाने और पेय पदार्थ को ठंडा होने से पहले लेना पड़ता है जिसका असर सैनिकों के पाचन तंत्र पर पड़ता है. इसलिए किसी सेहतमंत जवान को भी टॉयलेट में 2-3 घंटे का वक्त लगता है.
सियाचिन में सबसे बड़ी समस्या अंगों के जमने की है. शरीर का जो हिस्सा किसी मेटल के संपर्क में आता है, पलक झपकते ही वह जम या कट जाता है. फिर उसे दुरुस्त करना काफी मुश्किल काम है. ठंड से अंगों के कटने का भी खतरा होता है जिसे शीतदंश या फोर्स्टबाइट कहते हैं. बेहोशी और बराबर सिरदर्द बने रहना यहां की दूसरी सबसे बड़ी समस्या है.
जो जवान यहां डटे रहते हैं उनमें शरीर का वजन घटना, भूख की कमी, नींद न आना और याददाश्त खोने (मेमोरी लॉस) की शिकायत सामान्य है. बोलचाल भी सामान्य नहीं रह जाती है, जीभ फंसने से धीरे धीरे हकलाहट आने लगती है. मुश्किल ट्रेनिंग और जज्बे के बावजूद सैनिकों को हाइपोक्सिया, हाई एल्टीट्यूड एडिमा जैसी बीमारियां हो जाती हैं, जिससे फेफड़ों में पानी भर जाता है, शरीर के अंग सुन हो जाते हैं
सियाचिन ग्लेशियर में भारतीय फौज की करीब 150 पोस्ट हैं, जिनमें करीब 10 हजार फौजी तैनात रहते हैं अनुमान है कि सियाचिन की रक्षा पर साल में 1500 करोड़ रुपए खर्च होते हैं.
भारी बैग और पैर बांधकर चलते रहते है
ऊंचाई वाले जिस स्थान पर जवानों की तैनाती होनी होती है, वहां तक पहुंचने के लिए सैनिकों को बेस कैंप से 10 दिन पहले यात्रा शुरू करनी पड़ती है. इसके लिए सैनिकों की टुकड़ी रात को ढाई या 3 बजे निकल पड़ती है ताकि 9 बजे से पहले वहां पहुंचा जा सके. समूह में चल रहे जवानों के पैर एक रस्सी से बंधे होते हैं ताकि कोई साथी अगर गिर या फिसल जाए तो समूह से वो अलग न हो.
साथ ही हर फौजी के साथ 20-30 किलो का बैग होता है जिसमें बर्फ काटने वाली एक कुल्हाड़ी, उसके हथियार और रोजमर्रा के कुछ सामान होते हैं. शून्य से नीचे तापमान में रहने के बावजूद सैनिक पसीने से तरबतर होते हैं क्योंकि शरीर पर 6-7 तह मोटे और गर्म कपड़े होते हैं.
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