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संडे व्यू: केवल मुसलमान ही घुसपैठिया? जनता से नफरत, देश से प्यार?

चिदंबरम ने लिखा है कि अब एनआरसी से बाहर लोगों में सिर्फ मुसलमान अवैध प्रवासी रह जाएंगे.

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अब केवल मुसलमान होंगे घुसपैठिया!

पी चिदम्बरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि नकाब दिख चुका है और पंजे दिखने लगे हैं. रफ्तार पकड़ते हिन्दू राष्ट्र अभियान का इंजन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं, तो इस मोर्चे पर लगे हैं अमित शाह. डिजाइनर इंजीनियर है आरएसएस. इन सबने मुसलमानों को संदेश दे दिया है कि वे देश के समान नागरिक नहीं हैं. नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 पारित हो जाने के बाद सबकुछ बदल चुका है.

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चिदम्बरम लिखते हैं कि नागरिकता के सभी पुराने कानून बदल गये हैं. अब 31 दिसम्बर 2014 से पहले बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए लोग अगर हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई हैं तो उन्हें मान लिया जाएगा कि वे धार्मिक रूप से प्रताड़ित हैं और इसलिए भारत के नागरिक हैं. बाकी सारे लोग घुसपैठिए होंगे. श्रीलंका, म्यांमा, भूटान, नेपाल जैसे पड़ोसी देश और अहमदिया, हाजरा, बलूच, रोहिंग्या, यहूदी आदि पर विचार क्यों नहीं हुआ, इसका जवाब नहीं है. जवाब इस प्रश्न का भी नहीं है कि असम समझौते में नागरिकता के लिए तय मार्च 1971 की निर्धारित तारीख क्या खत्म कर दी गयी है?

लेखक का मानना है कि अब एनआरसी से बाहर लोगों में सिर्फ मुसलमान अवैध प्रवासी रह जाएंगे. ऐसे लोग कब तक हिरासत शिविर में रहेंगे, यह भी किसी को नहीं मालूम. अनुच्छेद 14 और 21 और मानवाधिकार पर भी विचार नहीं किया गया है. सब मिलाकर इसे असंवैधानिक विधेयक ही कहा जा सकता है.

न्याय व्यवस्था ही है एनकाउंटर का इलाज

टाइम्स ऑफ इंडिया में एसए अय्यर लिखते हैं कि हैदराबाद में बलात्कार के चार आरोपियों के एनकाउंटर की घटना के बाद से इसके सही और गलत को लेकर बहस चली है. किसी की नजर में पुलिस दोषी है तो किसी की नजर में सही. मगर, वास्तव में अपराधी है मरणासन्न न्यायिक व्यवस्था, जो न्याय नहीं दे पा रही है. वे लिखते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने इस एनकाउंटर की जांच के आदेश दिए हैं मगर वास्तव में जांच के आदेश इस बात के लिए दिए जाने चाहिए कि एनकाउंटर को इतना जन समर्थन मिला कैसे?

लेखक ने अपने संस्मरण से धनबाद में चुनाव कवरेज के दौरान 1984 की घटना का जिक्र किया है जहां माफियाओं की दबंगई को देखते हुए एनकाउंटर की जरूरत बतायी जा रही थी. पुलिस से लेकर वोटर तक ने इस पर हामी भरी थी. वहीं वे पूर्व पुलिस अधिकारी जूलियो रिबेरो की भी याद दिलाते हैं जो एनकाउंटर को निजी एजेंडा चलाने का जरिया मानते थे.

539 सांसदों में 233 पर आपराधिक मामले होने का भी लेखक ने जिक्र किया है और इस बात का भी कि यूपी में 25 हजार बलात्कार और 42 हजार बच्चों के साथ ज्यादती के केस लम्बित हैं जिसके लिए 218 फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने की घोषणा की गयी है.

कानून मंत्रालय का ताजा आंकड़ा है कि हाईकोर्ट के 62 फीसदी पद भर लिए गये हैं. इनमें इलाहाबाद हाईकोर्ट का रिकॉर्ड सबसे अच्छा है जहां 160 में से 60 पद खाली हैं.

इस साल के आर्थिक सर्वे में त्वरित न्याय की वकालत करते हुए कहा गया है कि निचली अदालतों में 2,279 जज, हाईकोर्ट में 93 और सुप्रीम कोर्ट में 1 जज की नियुक्ति हो जाने से जरूरत पूरी हो जाती है. लेखक का मानना है कि देश को कानून के शासन की जरूरत है. इसके अभाव में ही जया बच्चन अपराधियों के लिए मॉब लिंचिंग की वकालत कर रही हैं.

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जनता के बिना देश से प्यार कैसे?

आकार पटेल ने टाइम्स ऑफ इंडिया में बड़ा सवाल उठाया है कि क्या ऐसा हो सकता है कि देशवासियों को छोड़कर सिर्फ देश से प्यार किया जा सके? अखण्ड भारत की सोच को उन्होंने इसी सवाल के गिर्द रखते हुए कहा है कि वे भारत, इसके वर्तमान, भूत और भविष्य को प्यार करते हैं. वे इस धरती को पहचानते हैं. वे बांग्लादेशी को प्यार करते हैं चाहे वह इटली में रहें या भारत में. कहां जन्म हुआ, वीजा है या नहीं- इन बातों को वे नहीं मानते. अवैध प्रवासी की सोच को भी लेखक खारिज करते हैं.

लेखक को उनका पटेल होना, दुनिया में प्रवासी होना और अमेरिका या इंग्लैंड जैसी संस्कृति को प्रभावित करना भी पसंद है. इसी तरह वे बांग्लादेशी प्रवासियों का लाभ भी भारत को मिले, ऐसी आकांक्षा रखते हैं. यूरोप के रेस्टोरेन्ट में बांग्लादेशियों और इटली में बांग्ला बोलते लोगों के पाए जाने का भी वे जिक्र करते हैं.

लेखक यह मानने को तैयार नहीं कि वीजा बंद हो जाने से आतंकवाद खत्म हो जाता है. वे लिखते हैं कि अमेरिका और पाकिस्तान की सरकारों को पूरा अधिकार है कि वे जिसे गलत मानते हैं, गलत कहें. लेखक कहते हैं कि अखण्ड भारत के विचार का अपने नागरिकों से कोई लेना-देना नहीं है. इससे जुड़ा राष्ट्रवाद स्वीकार करने को लेखक तैयार नहीं जो अपने ही नागरिकों की गले रेंतता हो.

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नागरिकता संशोधन कानून से मिलेगा क्या?

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में सवाल उठाया है कि नागरिकता संशोधन कानून को आर्थिक समस्याओं पर प्राथमिकता क्यों दी गयी और इस कानून से आखिरकार हासिल क्या होगा?

वह लिखती हैं कि असम में हिंसक घटनाओं की खबर देखकर उन्हें 1983 का नेली जनसंहार याद आ गया, जब 2191 लोग (आधिकारिक आंकड़ा) मारे गये थे और अनाधिकारिक रूप से यह संख्या 3 से 10 हजार के बीच थी. मारे गये लोगों में हिन्दू और मुसलमान प्रवासी दोनों थे.

वह लिखती हैं कि अगर असम के इतिहास को सरकार ने समझा होता, तो इतनी जल्दबाजी में यह कदम नहीं उठाया गया होता.

तवलीन सिंह ने लिखा है कि प्रधानमंत्री को झारखण्ड में चुनाव प्रचार करते हुए कहना पड़ा कि आप अपने इस मोदी पर भरोसा कीजिए. लेखिका ने सवाल उठाया है कि आर्थिक मंदी को क्यों नहीं प्राथमिकता दी जा रही है? वह महाराष्ट्र में बीजेपी के अपने दम पर बहुमत में नहीं आने की वजह भी मंदी भी बता रही हैं.

वह लिखती हैं कि दुनिया में मोदी की छवि पर दाग लग गया है. संयुक्त राष्ट्र, पाकिस्तान, बांग्लादेश सबने किसी न किसी रूप में नाखुशी जाहिर की है. देश के गरीब मुसलमान डरे हुए हैं. भारत में दूसरी समस्याएं भी हैं जिनका समाधान भी ढूंढना होगा.

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चीन के समांतर नहीं, पाक के साथ भारत

रामचंद्र गुहा ने हिन्दुस्तान टाइम्स में अपने आलेख की शुरुआत 26 जनवरी 2006 को द न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी एक स्टोरी से शुरू की है जिसमें दावोस में हुए वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम की बैठक में ‘जहां देखो वहां भारत’ का शोर था. विदेशी निवेशकों की नजर में भारत को चीन के समांतर लोकतांत्रिक विकल्प के तौर पर बताया गया था.

अपने एक उद्योगपति मित्र से मुलाकात के हवाले से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के उदय का लेखक जिक्र करते हैं और बताते हैं कि इस स्थिति तक पहुंचने में पीवी नरसिम्हा राव से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह जैसे प्रधानमंत्रियों की कितनी बड़ी भूमिका रही है.

लेखक विश्वास जताते हैं कि भविष्य के इतिहासकारों को 5 अगस्त की तारीख याद रहेगी कि किस तरीके से भारतीय गणतंत्र के विचार को कपटपूर्ण तरीके से बदल दिया गया. हिन्दुस्तान के इकलौते मुस्लिम बहुल राज्य पर ड्रैकोनियन संहिता थोप दी गयी. व्यक्तिगत स्वतंत्रता, लिंग-जाति की समानता, सांस्कृति विविधता जैसे साझा मूल्यों के लोकतांत्रिक आधार को छोड़ दिया गया.

लेखक बताते हैं कि विप्रो, टीसीएस, इन्फोसिस जैसी कंपनियों ने दुनिया में भारत के बारे में एक सोच दी थी जो सिर्फ रोज़गार, निवेश तक सीमित नहीं था. वे लिखते हैं कि 2014 के बाद से भारत तेजी से बदला है. चीन से वैश्विक शक्ति के रूप में स्पर्धा करती शक्ति से बदलकर यह पाकिस्तान की श्रेणी में आ गया है. सांप्रदायिक नागरिकता संशोधन बिल के बाद दुनिया भारत को एक ऐसे देश के रूप में देखेगी क्षेत्रीय कट्टरता और संकीर्णता के साथ खड़ा है.

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खतरनाक हैं एनकाउंटर, मॉब लिंचिंग

न्यू इंडियन एक्सप्रेस में पुष्पेश पंत बलात्कार और एनकाउंटर की घटनाओं को लेकर चिंतित हैं. वे लिखते हैं कि संक्रामक हो चुकी रेप की घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रही हैं. ज्यादातर मामलों में पीड़िता की हत्या हो जा रही है. समाज में ‘लड़के तो लड़के ही रहेंगे’ वाला भाव मौजूद है. अब भी लोग उकसावे वाले पहनावे जैसी बातों से ऊपर नहीं उठ पाए हैं.

हैदराबाद की घटना के परिप्रेक्ष्य में लेखक लिखते हैं कि अगर लोगों का विश्वास न्याय व्यवस्था से टूट जाता है तो जंगल राज की ओर बढ़ने से समाज को नहीं रोका जा सकता. मॉब लिंचिंग को भी वे न्याय व्यवस्था की असफलता का नतीजा ही मानते हैं.

लेखक का कहना है कि हैदराबाद में एनकाउंटर की घटना का विरोध मुख्य न्यायाधीश की ओर से ही आया. ज्यादातर लोग खामोश रहे या फिर समर्थन किया. लेखक ने जस्टिस कृष्णा अय्यर को भी उद्धृत किया है जिन्होंने जेल के बजाए बेल की वकालत की है. इसके बावजूद गरीब लोगों को बेल नहीं मिल पाता. इस परिस्थिति के बीच अब किसी भी सूरत में रेप के आरोपियों को नहीं बच निकलने की आवाज मजबूत हो चली है. लेखक इस समाज को एनकाउंटर और मॉब लिंचिंग को बचाने की जरूरत पर जोर देते हैं.

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