जमाखोर सरकार, भूखी जनता
पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि केंद्रीय खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री राम विलास पासवान के मुताबिक 20 अप्रैल तक देश के पास 524.5 लाख मीट्रिक टन का खाद्य भंडार है जिनमें 289.5 लाक मीट्रिक टन चावल और 235 लाख मीट्रिक टन गेहूं है. कभी देश अनाज का आयात करता था और आज हम आत्मनिर्भर हैं. इस अनाज पर केंद्र और राज्य दोनों अपना-अपना हक समझते हैं.
केंद्र को लगता है कि वह अनाज का संग्रहण और वितरण करता है तो राज्यों को लगता है कि उसके पैसे से अनाज की खरीद होती है. वास्तव में यह अनाज देश के लोगों का है जिसे पैदा भी खेतिहर मजदूर करते हैं और यह आम लोगों के टैक्स के पैसे से खरीदा भी जाता है.
चिदंबरम लिखते हैं कि देश लॉकडाउन में हैं. देश के गरीब और खासकर बूढ़े और बच्चे लाइन में लगकर भोजन नहीं ले सकते, कुपोषण भी बड़े पैमाने पर है.
ऐसे में भूख से मौत को रोकने के लिए यह जरूरी है कि हर परिवार को 10 किलो अनाज और हर परिवार को 5 हजार रुपये देने की तत्काल व्यवस्था हो. देश में कुल 13 करोड़ परिवारों पर 65 लाख मीट्रिक टन अनाज और 65 हजार करोड़ रुपये की राशि इन दो कार्यों पर लगेंगे. मगर, ऐसा सुनिश्चित करके हम लोगों को भूख से मरने से बचा सकते हैं.
चीनी निवेश से डरने की जरूरत नहीं
एसए अय्यर ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि चीन का भारत में निवेश करना बुरा नहीं, अच्छा संकेत है. यह इस तथ्य के बावजूद है कि निवेशक चीनी कंपनियां नहीं चीन की कम्युनिस्ट पार्टियां हैं जिनका उन कंपनियों पर पूरा नियंत्रण है. ऐसे निवेश में जोखिम भारत का नहीं, निवेशक कंपनियों का है. लेखक बताते हैं कि भारत ने यह सुनिश्चित करके कि विदेशी कंपनियों को भारतीय डाटा को भारतीय सर्वर में ही सुरक्षित करना होगा, जरूरी काम कर दिया है.
अय्यर लिखते हैं कि विदेशी कंपनियां हमेशा से भारत में नीतिगत फैसलों में बदलाव के कारण परेशान होती रही हैं. वे उदाहरण देते हैं कि वॉलमार्ट ने फ्लिपकार्ट के अधिग्रहण पर 16 बिलियन डॉलर खर्च किए, लेकिन भारत सरकार ने ई कॉमर्स नियमों में ऐसा बदलाव लाया कि फायदा रिलायस जियो को हुआ और वॉलमार्ट अधिक निवेश का शिकार हो गया. वोडाफोन पर 2 बिलियन डॉलर का टैक्स विवाद हो या फिर नोकिया कंपनी पर 10 हजार करोड़ की पेनाल्टी का सवाल, टू जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस रद्द कर दिए जाने के मामले में विदेशी कंपनियों को हुए नुकसान की बात हो
या फिर आईबीएम और कोकाकोला के लिए 1977 में देश छोड़ कर चले जाने की स्थितियां- हमेशा से विदेशी कंपनियों को भुगतना पड़ा है. ऐसे में जो विदेशी निवेशक निवेश करते हैं जोखिम उनका यादा है. ऐसे में चीनी निवेश जितना ज्यादा हो, भारत के लिए उतना अच्छा है. भारतीय बाजार में भारतीय हितों की रक्षा के लिए बुनियादी चिंता सरकार को करते रहना चाहिए.
लॉकडाउन खत्म करने का समय
तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि पूर्णबंदी समाप्त करने का समय आ गया है. बेरोजगारी या भूख से मरने की आशंका बेचैन करने लगी है. विकसित देशों में लंबे लॉकडाउन की तैयारी है, जबकि हमारे देश में ऐसा नहीं है. मुंबई में जो मजदूर रात में काम करते हैं और दिन में सोते हैं, वे लोग उन मजदूरों को साथी बनाते हैं जो दिन में काम करें और रात में सोएं. ऐसा करने पर दोनों एक ही घर में रह पाते हैं. अमेरिका जैसे देश में जहां हर व्यक्ति को बेरोजगारी भत्ता के अलावा 15 सौ डॉलर दिए गये हैं, वहीं हमारे देश में बमुश्किल 500 रुपये जनधन खातों में पहुंचाए गये हैं.
लेखिका भारत सरकार के अजीबो-गरीब नियमों का उल्लेख करती हैं. कारोबार और कारखाने खुल सकते हैं लेकिन खुलने के बाद एक भी मुलाजिम कोरोना संक्रमित पाया गया तो मालिकों को जेल भेजा जा सकता है. इसके अलावा मुलाजिमों के लिए आवास का प्रबंध अहाते में करना होगा.
ऐसी चीजें मुंबई जैसे शहर में मुमकिन नहीं है जहां जगह की कमी है और लोग झोपड़ियों में रहने को मजबूर हैं. लेखिका का कहना है कि कोरोना की विपदा ने हमें बता दिया है कि हम विकास के चाहे जितने दावे कर लें लेकिन न तो हम गरीब, लाचार लोगों की सहायता कर सकते हैं और न ही उनके लिए बुनियादी सुविधाएं ही जुटा सके हैं.
कोरोना से लड़ाई के लिए कमर कसने का वक्त
शोभा डे ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि लॉकडाउन खत्म होने में 10 दिन बाकी हैं. हम उम्मीद करें कि सबकुछ ठीक रहे. हेल्थ इमर्जेंसी का खतरा भी प्रभावित इलाकों में है. महाराष्ट्र तीन प्रमुख प्रभावित राज्यों में बना हुआ है. किसी अन्य युद्ध के मुकाबले इस युद्ध का अनोखा अनुभव है. हमलावर कोरोना के पास कोई भावना नहीं है, न बुरा इरादा और न ही कोई अहसास है. गलत करने को लेकर कोरोना अनजान बना हुआ है. फिर भी कोरोना से लड़ते हुए हम खुद को बहादुर महसूस कर रहे हैं. मारे जाने पर शहीद होने और कतार में इसी राह पर लोगों के खड़े होने की भावना लिए बैठे हैं.
युद्ध में त्याग भी करना पड़ता है. हम इस भावना के भी साथ हैं. यह सुखद है कि देश में अनाज का भंडार भी पर्याप्त है और इस बार फसल भी बम्पर हुई है. अमेरिका ने जो ऐतिहासिक गलती की है उसका अंजाम डोनाल्ड ट्रंप भुगतेंगे. मगर, भारत में लोग हर्ड मेंटलिटी को समझते हैं हर्ड इम्युनिटी को नहीं. दूसरे देशों के मुकाबले हम अच्छा करने जा रहे हैं. बुरी राजनीति का समय दुनिया में अब नहीं रहा. दुनिया के लोगों और भारत को बस एक अदद वैक्सीन की दरकार है. इस वक्त लिंचिंग की इजाजत सिर्फ कोरोना को है, किसी और को नहीं.
महामारी के बाद बदल जाएगी राजनीति?
चाणक्य हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखते हैं कि महामारी के बाद राजनीति बदलने वाली है. राजनीति से जुड़ी हर प्रक्रिया में बदलाव होगा. एक सोच के साथ इकट्ठा होना, अपनी सोच के लोगों को अपने साथ जोड़ना, राजनीतिक दल खड़े करना, सत्ताधारी दल का अपने काम पर और विरोधी दल का सत्ता विरोध और भावी योजना पर वोट मांगना आदि में बदलाव आने वाला है. महामारी ने जीवन शैली को बदला है और इसका असर राजनीति पर भी पड़ेगा. आम सभा, रैलियां, चौक-चौराहों पर नुक्कड़ सभाएं अब पहले की तरह नहीं हो पाएंगी. मगर, इसका मतलब यह नहीं है कि लोकतंत्र खत्म होने वाला है. बल्कि इससे जुड़ी पार्टियों, प्रशासनिक तंत्र, सिविल सोसायटी सबके काम करने के तरीके बदलने वाले हैं.
प्रचार अभियानों में तकनीक का प्रभाव बढ़ जाएगा. डाटा की अहमियत अधिक हो जाएगी. चुनाव क्षेत्र से जुड़े छोटे-बड़े आंकड़े महत्वपूर्ण हो जाएंगे. वोटिंग की प्रक्रिया भी बदलेगी.
हाल में दक्षिण कोरिया में हुआ चुनाव इसका उदाहरण है. सोशल डिस्टेंसिंग के साथ हुए मतदान में बीमार लोगों के लिए अलग से व्यवस्था थी. वोटिंग के बाद उन्हें टेस्टिंग के लिए ले जाया गया. अमेरिका में भी चुनाव होंगे. भारत में भी बिहार में चुनाव होने वाले हैं. राजनीति की प्रक्रिया में बदलाव जरूर होंगे, लेकिन राजनीति नहीं बदलने वाली है.
कोरोना नहीं ट्रंप से हर्ड इम्युनिटी चाहते हैं अमेरिकी
थॉमस एल फ्राइडमैन ने न्यूयॉर्क टाइम्स में लिखा है कि अमेरिकन बहुत बदकिस्मत हैं कि सबसे बुरा संकट ऐसे दौर में आया है जब डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति हैं. इस संकट में कम से कम मौत हो और अर्थव्यवस्था को कम से कम नुकसान हो, इसके लिए ऐसे राष्ट्रपति की जरूरत थी जो वैज्ञानिक तरीके से नैतिक, आर्थिक और पर्यावरण के मानदंडों में तालमेल बिठाते. लेखक मारिना गोर्बिस की कॉग्निटिव इम्युनिटी के विचार से सहमत हैं जिसमें विज्ञान का महत्व है. लेखक का दावा है कि ट्रंप की डेली ब्रीफिंग भी लोक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो गया है.
ऐसा राष्ट्रपति नहीं चाहिए जो सौहार्दपूर्ण तरीके से कोरोना वायरस से देशवासियों की रक्षा न कर सके और आर्थिक विकास का अपने इकोसिस्टम से तारतम्य न बिठा सके. चूकि इस वायरस ने शारीरिक नुकसान के साथ-साथ आर्थिक नुकसान भी किया है इसलिए सवाल जिन्दगी के साथ दैनिक जीवन का भी हो गया है. ट्रंप हर दिन कहा करते हैं कि जब तक चीन के वुहान से कोरोना नहीं आया था अमेरिका में सबकुछ ठीकठाक था. मगर, यह काले हंस की तरह है जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी. अब लोग बता रहे हैं कि वास्तव में यह कमरे में घुसा काला हाथी है. यानी ऐसा खतरा जो सबको दिखाई दे रहा है लेकिन उससे निकलने का रास्ता किसी को नहीं मालूम.
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