इस सप्ताह करण थापर ने एक बार फिर हमारे नेताओं को घेरा है. हिन्दुस्तान टाइम्स के अपने कॉलम संडे सेंटिमेंट्स में इस बार उन्होंने दलित मुद्दे पर नेताओं की गंभीरता की पोल खोली है.
करण लिखते हैं- दलितों पर गोरक्षकों के हमलों पर संसद की बहस देश में इस मुद्दे पर जताई जा रही चिंता का नतीजा थी. यह हमारे दलित भाई-बहनों के प्रति हमारी एकता जाहिर करने के लिए थी. यह भारतीय लोकतंत्र का गौरवशाली क्षण होना चाहिए था. लेकिन अफसोस, ऐसा हो न सका. करण ने बिजनेस स्टैंडर्ड का हवाला देते हुए कहा है कि दलितों पर हो रहे हमले पर लोकसभा में आयोजित बहस में डिप्टी स्पीकर को मिला कर सिर्फ 69 सांसद मौजूद थे. सरकार के 76 मंत्रियों में से सिर्फ 6 ने अपनी मौजूदगी दर्ज कराई. पीएम और राहुल गांधी दोनों अनुपस्थित थे. मानो इतना काफी नहीं था. जो सांसद वहां मौजूद थे, वे भी इस बहस को ठीक से नहीं सुन रहे थे. उदित राज ने बिल्कुल सही सवाल उठाया कि संसद में इस बहस के दौरान भी ज्यादातर वही सांसद मौजूद थे, जो दलित और आदिवासी थे. करण कहते हैं, कि 18वीं सदी में ब्रिटेन में विलियम विल्बरफोर्स और 19वीं सदी में अमेरिका में अब्राहम लिंकन जैसी गोरी हस्तियों ने गुलाम प्रथा को खत्म करने का कदम उठाया था. भारत में दलितों के खिलाफ अत्याचारों से लड़ने में ऊंची जाति के लोग कहां हैं. गांधी के बाद इस मोर्चे पर इक्का-दुक्का लोग ही दिखे. बहरहाल, संसद में बहस के दौरान जनजातीय सीट का प्रतिनिधित्व करने वाले भाजपा के अर्जुनराम मेघवाल भी गायब रहे।... तो यह है दलितों के दर्द पर जुबानी जमा-खर्च करने वाले हमारे सांसदों की मानसिकता और उनका हाल. हमारे नेताओं को आईना दिखाने वाला करण का यह कॉलम जरूर पढ़ा जाना चाहिए.
पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम में इस सप्ताह कश्मीर को लेकर नरेंद्र मोदी के रुख पर सवाल उठाया है.
अमर उजाला में छपे अपने कॉलम में चिदंबरम कहते हैं- कश्मीर जल रहा है. बलूचिस्तान पर मोदी के बयान की ओर इशारा करते हुए चिदंबरम कहते हैं- पड़ोसी के घर में लगी आग से खुश होने के बजाय हमें अपने यहां लगी आग को बुझाने का प्रयास करना चाहिए. कश्मीर मुद्दे पर केंद्र सरकार और भाजपा-पीडीपी दर्शक बन कर रह गई है- अति राष्ट्रवादी तर्कों, प्रदर्शनकारियों की उग्रवादियों से तुलना कर. बच्चों से अभिभावकों जैसी अपील कर और अलहदा राय रखने वालों के हर तरीके से धमका कर इन मुद्दों को वे दबाना चाहते हैं. पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री ने किसी अन्य देश के आंतरिक मामलों में दखल देकर एक तीसरा मुद्दा भी उठा दिया है, जिससे निश्चित रूप से स्थितियां और बिगड़ेंगी. पिछले सप्ताह पीएम ने बलूचिस्तान पर जो कहा, उसे भाजपा नेताओं ने मोदी की ओर से उम्मीद के एक नए संसार का दरवाजा खोलने वाला करार दिया. क्या सचमुच ऐसा है? बलूचिस्तान में होने वाले प्रदर्शनों में कभी भारत की भूमिका थी या है, इसका पता कभी नहीं चलेगा क्योंकि भारत ने इनकार का आवरण ढक रखा था लेकिन यह आवरण अब ढक चुका है. परोक्ष रूप से पाकिस्तान को भारत के आतंरिक मामलों में दखल का मौका दे दिया गया. फिर वह दलितों का उत्पीड़न हो, मुसलमानों और उनकी खानपान की आदतों पर हमले, लैंगिक हिंसा या फिर बाल विवाह का मामला. बहरहाल, 26 मई 2014 को शपथग्रहण समारोह में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को आमंत्रित करने से लेकर बलूचिस्तान की उथल-पुथल पर पाकिस्तान को चेतावनी देने तक भारत की पाकिस्तान नीति कई बार पलटी खा चुकी है कि उसे ओलंपिक के जिमनास्ट विजेता का पदक मिल सकता है.
शनिवार को द टेलीग्राफ में लिखे अपने लेख में मशहूर लेखक और इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने देश में खनन उद्योग में भ्रष्टाचार का जिक्र कर देश की मौजूदा राजनीतिक संस्कृति की बखिया उधेड़ी है.
अपने गृह राज्य कर्नाटक में उभरे आईटी और माइनिंग इंडस्ट्री की तुलना कर उन्होंने यह दिखाया है कि कैसे एक तरफ आईटी उद्योग और इसके पुरोधाओं ने अपने ईमानदार प्रयास के जरिये देश में एक क्रांति का सूत्रपात किया और लाखों लोगों के लिए रोजगार और बेहतर भविष्य के दरवाजे खोले. एक ईमानदार कार्य संस्कृति के इसके अगुवा सादा और लो-प्रोफाइल लाइफस्टाइल के हिमायती दिखे. वहीं भ्रष्टाचार और राजनीतिक संरक्षण को औजार बना कर काम करने वाले कर्नाटक के खनन उद्यमी सार्वजनिक जीवन में गले में मोटी सोने की चेन और बीएमडब्ल्यू कारों का प्रदर्शन करते दिखे. कर्नाटक में बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं का जिक्र करते हुए गुहा ने बताया है कि कानूनों को ताक पर रख कर निजी माइनिंग उद्योग को बेलगाम छूट देने का पर्यावरण पर कितना घातक असर होता है. उन्होंने लिखा है कि छत्तीसगढ़ के बस्तर और कर्नाटक में माइनिंग उद्योग पर कब्जा करने की होड़ में जो आपराधिकता और अराजकता दिखती है वह भारत के सबसे बड़े लोकतंत्र की इमेज को धो कर रख देती है. गुहा कहते हैं- मैं न तो माइनिंग पर राज्य के नियंत्रण की मांग कर रहा हूं और न ही इस पर पूरी तरह से प्रतिबंध की. लेकिन मैं इतना जरूर चाहूंगा कि अपनी खनन नीति पर हम थोड़ा ठहर कर गौर करें. हम इस पर सोचें कि नियमनविहीन और गैरकानूनी खनन से क्या नुकसान हुआ है.
इंडियन एक्सप्रेस में इस बार तवलीन सिंह ने रियो का सबक शीर्षक से लिखे अपने लेख में ओलंपिक में भारत के प्रदर्शन के बहाने देश में मानव संसाधन के लचर विकास पर चिंता जताई है.
वह लिखती हैं ओलंपिक में भारत के लचर प्रदर्शन पर मचाई जा रही हाय-तौबा कुछ दिनों में शांत हो जाएगी. एक महादेश बराबर देश का ओलंपिक में यह प्रदर्शन और एक खेल मंत्री का अशोभनीय व्यवहार अगले कुछ सप्ताहों में भुला दिया जाएगा और इसमें कोई शक नहीं है कि अगली बार जब हमारे युवा भारतीय किसी अंतरराष्ट्रीय मुकाबले में उतरेंगे तो फिर फेल हो जाएंगे. यह सिर्फ खेलों की बात नहीं है बल्कि आपको पीसा (प्रोग्राम फॉर इंटरनेशल स्टूडेंट असेसमेंट) जैसे इंटरनेशनल टेस्ट की याद होगी, जहां हमारे स्टूडेंट सेकेंड लास्ट पोजीशन पर आए थे. हम सिर्फ किर्गिस्तान से ऊपर थे. यह चार साल पहले की बात है और इस बीच इस स्थिति को सुधारने के लिए क्या हुआ है, यह एक रहस्य ही है. तवलीन लिखती हैं कि आजादी के इन 70 साल के इतिहास में अगर हम सबसे ज्यादा किसी क्षेत्र में बुरी तरह फेल रहे हैं तो वह है मानव संसाधन का विकास. हमने अंग्रेजों से गवर्नेंस का ढांचा विरासत में ले लिया. जहां सुविधासंपन्न लोगों के लिए अलग व्यवस्था थी और देसी लोगों के लिए अलग. मेरा सामना ऐसे किसी बड़े अफसर या राजनेता से नहीं हुआ जो अपने बच्चों को पढ़ने के लिए सरकारी स्कूल में भेजता है या फिर बीमार पड़ने पर सरकारी अस्पताल की मदद लेता है. तवलीन लिखती हैं मानव संसाधन विकास के क्षेत्र में हम जब तक बड़े बदलाव नहीं करेंगे तब तक हमारे स्टूडेंट और नौजवान अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में फेल होते रहेंगे.
सिर्फ 80 रुपये में जीतो ओलंपिक मेडल चेतन भगत ओलंपिक में पदक जीतने का बेहद सस्ता नुस्खा ढूंढ लाए हैं. वह मात्र 80 रुपये में भारत को ओलंपिक मेडल जीतने का गणित समझा रहे हैं. टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखे अपने लेख में उन्होंने सिफारिश की है कि भारत का ओलंपिक फंड 10000 करोड़ रुपये का होना चाहिए. यह भले ही बहुत ज्यादा लगता हो लेकिन प्रति भारतीय 80 रुपये ही हिसाब बैठता है. उन्होंने इस फंड के बेहतर और पारदर्शी उपयोग के लिए नंदन नीलकेणी के आधार सेट-अप की तरह ही एक्सटर्नल सेट-अप की व्यवस्था करने की हिमायत की है. चेतन यह भी बताते हैं कि इस फंड को किस तरह खर्च करना है ताकि ज्यादा से ज्यादा और अच्छे नतीजे मिल सकें. कुल मिलाकर चेतन का यह गणित दिलचस्प है और उनका यह लेख भी. जरूर पढ़ें.
शराबबंदी पर नीतीश का राजनीतिक दांव
एशियन एज में अशोक मलिक ने बिहार में गोपालगंज में जहरीली शराब से हुई मौतों के बहाने नीतीश कुमार की शराबबंदी की नीति पर सवाल उठाए हैं और इसके पीछे की राजनीति का खुलासा किया है.
मलिक लिखते हैं नीतीश ने बिहार में शराब पीने या रखने पर सामूहिक दंड देने का जो बेहद बड़ा कदम उठाया है, वह इससे पहले 1942 में ही दिखा था, जब अंग्रेजों ने असहयोग आंदोलन के दौरान इस तरह के कड़े दंड का प्रावधान किया था. मलिक लिखते हैं कि शराबबंदी कभी भी सफल नहीं रही. चाहे 1920 में अमेरिका में या फिर 1990 के दशक में आंध्रप्रदेश, हरियाणा या फिर पुराने बांबे स्टेट में या फिर गुजरात मे. हर जगह नियम तोड़े-मरोड़े जाते है. शराबबंदी को लेकर नीतीश पर हिप्पोक्रेसी के आरोप लग रहे हैं. नीतीश सरकार ने पिछले दस साल के दौरान शराब दुकानों के लाइसेंस बांट कर 30000 करोड़ कमाए और यह पैसा राज्य के विकास में लग. शराबबंदी को लेकर नीतीश की अपनी राजनीति है. मलिक के मुताबिक बिहार में जेडीयू लालू यादव के आरजेडी के मुकाबले कम संगठित है. लिहाजा शराबबंदी के जरिये महिला मतदाताओं की लामबंदी कर नीतीश अपने लिए एक सुरक्षा कवच बना लेना चाहते हैं. नीतीश अपने इस कदम को देश भर में लागू करने की पैरवी कर रहे हैं. ऐसा करके वह अखिल भारतीय छवि बनाना चाहते हैं, जो भविष्य के विपक्षी गठबंधन की अगुवाई कर सकता है.
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