भारत-चीन नए विवादपूर्ण दौर की शुरुआत में?
पी चिदंबरम ने द इंडियन एक्सप्रेस में सवाल उठाया है कि क्या भारत और चीन एक नए विवादपूर्ण दौर की शुरुआत में हैं? 'गलवान घाटी, हॉटस्प्रिंग और पैंगोंग त्सो में प्रमुख ठिकानों पर चीनी कब्जे' के बाद 15-16 जून की रात दोनों ओर के सैनिकों के बीच खूनी झड़प का जिक्र करते हुए वे इस सवाल का उत्तर ‘हां’ में देते हैं.
चिदंबरम ने लिखा है कि ताजा संघर्ष में भारत के 20 सैनिक शहीद हो गए, 80 घायल हुए और 10 बंधक बना लिए गए, जिन्हें 18 जून को छोड़ दिया गया. 1975 के बाद पहली बार इस तरह की घटना हुई है, जिसमें बड़ी संख्या में जानें गई हैं. चिदंबरम इस दौरान 45 साल की शांति को उपलब्धि बताते हैं.
चिदंबरम ने लिखा है कि एक झूठमूठ की हवा बनाई गई थी कि मोदी और शी जिनपिंग के बीच व्यक्तिगत रिश्ते हैं जो गुजरात के सीएम के तौर पर चीन का पसंदीदा होने, वुहान (2018) और महाबलीपुरम (2019) के रूप में देखने को मिला था. वह लिखते हैं कि घटना के बाद भारतीय विदेश मंत्रालय का बयान कमजोर दिखा, जबकि चीन का आक्रामक. चीनी घुसपैठ की योजना पिछले साल अगस्त में ही बना ली गई होगी जब जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्थिति में बदलाव हुआ था और गृह मंत्रालय ने अक्साई चिन को भारत का हिस्सा बताया था. यह कारगिल का अक्षम्य दोहराव है. ऐसा लगातार सैटेलाइट इमेज लिए जाते रहने के बाद हुआ.
‘मोदी ने दोहरा दी नेहरू वाली गलती’
तवलीन सिंह ने जनसत्ता में लिखा है कि चीन न भारत का भाई पहले था और न आगे होगा. पंडित नेहरू ने जो गलती की थी, नरेंद्र मोदी ने वही गलती दोहरा दी है. तवलीन सिंह ने मोदी और राजनाथ सिंह के दो बयानों का सोशल मीडिया पर हो रहे जिक्र का उल्लेख करते हुए लिखा है कि तत्कालीन भारतीय नेतृत्व को दुत्कारने वाले उनके बयान आज खुद उन्हें चिढ़ा रहे हैं. वह लिखती हैं कि वे खुद भी उनके बयानों के झांसे में आ गई थीं और उन्हें लगा था कि इनके नेतृत्व में मजबूत भारत के सामने चीन वाकई आंखें झुकाकर बातें करेगा.
अहमदाबाद और महाबलीपुरम में शी जिनपिंग की मेहमाननवाजी का जिक्र करते हुए तवलीन सिंह लिखती हैं कि उसका कोई फायदा नहीं हुआ.
रक्षा विशेषज्ञों के हवाले से वह लिखती हैं कि अमेरिका के करीब भारत का जाना और अक्साई चिन पर भारत के दावों के बाद चीन ने यह आक्रामकता दिखाई है. अगर भारत ने इतिहास की ओर ध्यान दिया होता तो चीन की ओर वह दोस्ती का हाथ नहीं बढ़ाता. शांति चाहने का अर्थ यह कतई नहीं है कि भारत जवाब नहीं दे सकता या अपनी सीमा की रक्षा नहीं कर सकता.
‘दिल्ली में होम आइसोलेशन बहाल’
आतिशी और अक्षय मराठे ने हिंदुस्तान टाइम्स में लिखा है कि होम आइसोलेशन को 'खत्म करने संबंधी' केंद्र सरकार की पहल पहेली बनी हुई थी. बहुत अच्छा हुआ कि शनिवार को इसे वापस ले लिया गया. इसके तहत 5 दिन का इंस्टिट्यूशनल क्वॉरंटीन अनिवार्य कर दिया गया था. इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की गाइडलाइन के भी यह खिलाफ था.
आतिशी-अक्षय लिखते हैं कि एक इमर्जेंसी नंबर जनता को दिया गया है. खबर करते ही एम्बुलेंस पहुंच जाती है. जांच होती है. शुक्रवार को सैंपल लिया गया, तो शनिवार को रिपोर्ट आ जाती है. आशा वर्कर घर पहुंचकर दवा देते हुए पोस्टर चिपका देती हैं ताकि आसपास के लोग अलर्ट हो जाएं. मरीज का पूरा ख्याल रखा जाता है. दिल्ली में यह प्रयोग सफल है.
इसके विपरीत जबरदस्ती क्वॉरंटीन करने से अतिरिक्त संसाधन खर्च होते हैं, स्टाफ से लेकर एम्बुलेंस और पीपीई किट तक को अस्पताल से दूर ले जाना पड़ता है.
दिल्ली में केवल 6 प्रतिशत मरीज को ही होम आइसोलेशन के बीच अस्पताल ले जाने की जरूरत हुई है. 27 हजार से ज्यादा लोगों में केवल 1618 लोगों को अस्पताल शिफ्ट किया गया है. लेखक खुश हैं कि आदेश वापस ले लिया गया और दिल्ली वालों को इस आदेश की कीमत नहीं चुकानी पड़ी.
‘पत्रकारों पर आफत है COVID-19 संकट’
रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में अतीत के आईने से प्रेस की स्वतंत्रता का सवाल उठाया है. उन्होंने लिखा है कि 1824 में बंगाल सरकार ने एक अध्यादेश के जरिए प्रेस की स्वंत्रता घटा दी थी और अखबारों के लाइसेंस को रद्द करने का अधिकार सरकार को दिया था. इसके विरोध में राजाराम मोहन राय ने सबकी ओर से अथॉरिटी को हस्ताक्षरयुक्त याचिका दी थी. इसमें राजाराम मोहन राय ने लिखा था कि लोगों को जितना ज्यादा अंधकार में रखा जाता है, शासकों को उतना ज्यादा फायदा होता है. आज के दौर में भी यह बात लागू होती है जब स्वतंत्र भारत में पत्रकारों को रिपोर्टिंग करने के लिए मुकदमों का सामना करना पड़ रहा है.
रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि अमर्त्य सेन ने अपनी किताब पुवर्टी एंड फैमाइन (1981) में लिखा है कि लोकतंत्र की तुलना में अकाल वहां अधिक होते हैं जहां तानाशाही होती है. 60 के दशक में चीन का उदाहरण रखते हुए उन्होंने यह बात कही थी.
गुहा लिखते हैं कि COVID-19 महामारी के दौर में राम मोहन राय और अमर्त्य सेन दोनों की ही बातें सटीक हैं. यूएन में मानवाधिकार आयुक्त ने एशिया में COVID-19 के दौरान सरकार की आलोचनात्मक रिपोर्ट पर पत्रकारों के खिलाफ मुकदमों की स्थिति पर चिंता जताई है.
दिल्ली स्थित राइट एंड रिस्क्स एलासिसिस ग्रुप ने ऐसे 55 पत्रकारों को परेशान किए जाने के उदाहरण इकट्ठे किए हैं. इनमें उत्तर प्रदेश में 11, जम्मू-कश्मीर में 6, हिमाचल में 5 मामले शामिल हैं. तमिलनाडु, ओडिशा, प.बंगाल और महाराष्ट्र में ऐसे चार-चार मामले दर्ज किए गए हैं. गंभीर धाराओं में पत्रकारों पर केस दर्ज हुए हैं. प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 2009 में भारत का स्थान 105 था जो अब एक दशक बाद 142 हो चुका है.
‘आंख में भर लो पानी’
संकर्षण ठाकुर ने टेलीग्राफ में ‘आंख में भर लो पानी’ शीर्षक से उन सैनिकों की स्थिति के बारे में लिखा है जो अपनी जान हथेली पर रखकर ड्यूटी करते हैं और सिर्फ आदेशों का पालन करते हैं. उन्हें पता नहीं होता कि वे कहा हैं. उनके पैरों तले जमीन भी कब कोई छीन लेता है, उन्हें नहीं पता होता. सर्वोच्च कर्त्तव्य की शपथ के साथ वे लाए गए होते हैं. वह व्यक्ति नहीं, कर्त्तव्यनिष्ठ होता है. वह पूछता नहीं, करता है. उसे पता होता है कि इस राह में वह अपनी जान गंवा सकता है, फिर भी वह रोज ऐसा करता है.
संकर्षण लिखते हैं कि ड्यूटी ज्वाइन करते समय सैनिक अपने डेथ वारंट पर साइन करते हैं. तब उन्हें नौकरी मिलती है, वर्दी और रैंक मिलती है. सैनिकों के लिए आदेश का मतलब होता है अनुपालन, यूनीफॉर्म, रैंक, शरीर, स्मरण, अतीत, वर्तमान, भविष्य, मुस्कान, भावनाएं, काम और ऐसी ही चीजें तमाम.
सैनिक नहीं पूछता कि वह कहां है, ठंड में है या कहीं और. लेकिन, उसे पूछना भी नहीं होता. ये वो ठंड नहीं, जहां पेड़ पौधे सरसराते हैं, मोहब्बत की फिजा महसूस कराती है. उसके बाल, गुलाब और ऐसी भावनाएं नहीं होतीं यहां. तो, यह वो आबोहवा भी नहीं. लेखक कहते हैं कि सैनिकों को ड्यूटी जहां ले जाती है वे जाते हैं चाहे अंधेरा कितना घना हो. सिगरेट भी जान लेती है लेकिन एक चेतावनी का पता होता है. एक सैनिक के जीवन में यह चेतावनी भी नहीं होती. उसे जाना है, बस जाना है. कहां जाना है नहीं पता. कब कौन सी तस्वीर आखिरी हो जाए, उसे नहीं पता. सैनिक सवाल नहीं पूछ सकते.
बॉलीवुड में जीने के लिए मानें रहमान की सलाह
चेतन भगत ने टाइम्स ऑफ इंडिया में सुशांत सिंह राजपूत की खुदकुशी की घटना के परिप्रेक्ष्य में बॉलीवुड में मुश्किल होती जा रही जिंदगी पर चिंता जताई है और यहां जीवन आसान करने का मंत्र सुझाया है. उन्होंने एआर रहमान के हवाले से बताया है कि बॉलीवुड एक खुबसूरत तालाब है जिसमें मगरमच्छ रहता है. इसलिए, हमेशा एक पैर पानी में और दूसरा पैर पाने से बाहर रखने के लिए तैयार रहना चाहिए.
भगत लिखते हैं कि आत्महत्या के एक नहीं कई एक कारण हो सकते हैं. किसी पर आरोप मढ़ना बुद्धिमानी नहीं है. आत्महत्या को किसी पैटर्न से जोड़ना भी उतना ही मुश्किल है. मगर, इस घटना ने बॉलीवुड के भीतर मौजूदा संस्कृति पर बहस छेड़ दी है और बॉलीवुड में मानसिक स्वास्थ्य इन दिनों चर्चा में है. जबरदस्त स्पर्धा इसकी एक वजह है. बॉलीवुड का कोई सीईओ नहीं है और यहां काम करना किसी बड़ी कंपनी में काम करने के अनुभव से अलग है.
इसके अलावा भगत लिखते हैं कि न कोई हमेशा सुंदर बना रह सकता है, न दर्शकों का स्वभाव एक जैसा होता है, मौके की तलाश करने वालों की कमी नहीं है, स्टार आते-जाते रहते हैं. ये स्थितियां बॉलीवुड में असुरक्षा को बताती हैं. अधिक सफलता भी ड्रग्स की ओर ले जाती है और असफलता भी अवसाद की ओर. मानसिक स्वास्थ्य पर दोनों स्थितियों का असर होता है. मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा और भविष्य की सुरक्षा के लिए बॉलीवुड के लोग एक साथ आएं, यह जरूरी हो गया है.
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