सेना के भगवाकरण की कोशिश
मोदी सरकार के चार साल पूरे होने पर मीडिया में उनके कामकाज की समीक्षा और पीएम के वादों का पोस्टमार्टम शुरू हो गया है. द क्विंट में अशोक के मेहता ने लिखा है कि मोदी के नेतृत्व में बीजेपी का जो चुनाव अभियान चला था उसमें रक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा और पूर्व सैनिकों के कल्याण पर काफी जोर था.
मोदी ने डिफेंस में सुधार के मामले में बड़े वादे किए थे. एनडीए सरकार के चार साल पूरे हो गए हैं और इस मामले में इसका स्कोर कार्ड जितना अच्छा होना चाहिए उतना नहीं है. इसके उलट अंदर ही अंदर बीजेपी से जुड़े संगठनों और एजेंसियों के जरिये राष्ट्रवाद की आड़ में इसके भगवाकरण को कोशिश होने लगी है.
अशोक मेहता ने लिखा है कि वन रैंक, वन पेंशन इस सरकार ने लागू की लेकिन यह संतोषजनक नहीं रहा. वहीं राफेल डील के दौरान फ्रांस से ये लड़ाकू विमान नहीं मिल सके हैं. उन्होंने लगातार रक्षा मंत्री बदले जाने की भी आलोचना की है. कुल मिलाकर चार साल के दौरान रक्षा क्षेत्र में मोदी सरकार का स्कोर कार्ड प्रभावी नहीं है और अभी इस सेक्टर में सुधार के लिए बहुत कुछ किया जाना है.
फीका पड़ने लगा है मोदी का जलवा
आरती आर जेरथ ने नरेंद्र मोदी सरकार के चार साल की सत्ता के दौरान सत्ताधारी पार्टी के तौर पर बीजेपी के कमजोर पड़ने की ओर इशारा किया है. द क्विंट में उन्होंने लिखा है कि पिछले साल तक मोदी अपराजेय लग रहे थे लेकिन यूपी के दो उपचुनावों समेत कई राज्यों में बीजेपी को लगे झटके ने साबित किया है कि उनका जलवा कम हो रहा है.
जेरथ ने यह भी लिखा है कि कर्नाटक चुनाव के बाद एकता दिखाने के लिए विपक्षी नेताओं के सिर्फ एक जमावड़े से यह नहीं समझ लेना चाहिए कि बीजेपी को चोट पहुंच सकती है. लेकिन अगर जमीन पर इस एकता ने शक्ल ले ली तो 2019 की कहानी दूसरी हो सकती है.
जेरथ लिखती हैं- टीडीपी जैसे गठबंधन के साथियों को मोदी साथ रखने में सफल नहीं दिखे. शिवसेना भी सरकार के खिलाफ मुखर है. वहीं बिहार में नीतीश के साथ उपेंद्र कुशवाहा और रामविलास पासवान ने गठजोड़ का संकेत देकर उनकी मुश्किलें बढ़ा दी हैं.
इधर लोकसभा में बीजेपी की ताकत घट कर 271 हो गई है. तूतिकोरिन के प्रदर्शन ने लोगों को बंगाल में हुए सिंगुर और नंदीग्राम की याद दिला दी. असंतोष बढ़ रहा है. रोजगार के मोर्चे पर वादा पूरा नहीं हुआ है. अगर 2019 की लड़ाई मोदी को जीतनी है तो उन्हें एक अलग रणनीति अपनानी होगी.
डिजिटल गुलामी की ओर भारत
मोदी सरकार के सत्ता में आते ही देश में डिजिटल इंडिया का नारा जोर-शोर से उछाला गया. लेकिन इन चार सालों में भारत डिजिटल ताकत बन कर उभरने के बजाय डिजिटल उपनिवेश बनने की दिशा में आगे बढ़ता दिख रहा है.
इस हालात के बारे में द क्विंट के एडिटोरियल डायरेक्टर राघव बहल ने लिखा है-
“मोदी राज के चार सालों में भारत की डिजिटल इकॉनमी का दिल बैठ गया है. इस हकीकत ने प्रधानमंत्री के यंग इंडिया, डिजिटल इंडिया और मेक इन इंडिया जैसे बड़े वादों को चकनाचूर कर दिया है.डिजिटल अमेरिका और चीन भारत के टेक्नॉलजी क्षेत्र को गुलाम बनाकर खत्म कर रहे हैं.”
वॉलमार्ट ने फ्लिपकार्ट का अधिग्रहण करके यह साबित कर दिया है कि भारत किस तरह डिजिटल गुलाम होता जा रहा है. क्या भारत को डिजिटल गुलामी से मुक्ति मिलेगी? राघव निराशा जाहिर करते हैं.
वह लिखते हैं- मैं इस बात की करीब-करीब भविष्यवाणी कर सकता हूं कि भारत को डिजिटल गुलामी से छुटकारा दिलाने की इस जंग में आगे क्या-क्या होने वाला है. भारत के एंटरप्रेन्योर को उनके अंतरराष्ट्रीय मुकाबलेबाजों की तुलना में बराबरी के या उनसे ज्यादा अधिकार देने का सीधा और स्पष्ट निर्देश जैसे ही प्रधानमंत्री कार्यालय से जारी होगा, संदेह से भरी कानाफूसी का दौर पॉलिसी फ्रेमवर्क को अपनी गिरफ्त में लेना शुरू कर देगा. मैं बड़े भरोसे के साथ शर्त लगा सकता हूं कि मई 2019 में मोदी सरकार के पांच साल पूरे होने तक भारत को डिजिटल गुलामी से मुक्ति की कोशिश के एक भी मामले पर मंजूरी की अंतिम मुहर नहीं लगी होगी.
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मोदीनोमिक्स का रिपोर्ट कार्ड
इकनॉमी के मोर्चे पर मोदी सरकार की नीतियों को विवेक कौल ने द क्विंट के लिए लिखे लेख में कसौटी पर कसा है. मोदीनोमिक्स का रिपोर्ट कार्ड पेश करते हुए वह लिखते हैं- इस सरकार की एक बड़ी सफलता रही है जीएसटी को लागू करना लेकिन इसे बेहद बुरी तरह से लागू किया गया.
रियल एस्टेट रेगुलेशन एंड डेवलपमेंट एक्ट यानी रेरा लाना भी एक बड़ा कदम है. केंद्र के स्तर पर यह ठीक है लेकिन राज्य इसे लागू करने में लचर रह हैं. रेरा को ठीक से लागू करना सवाल बना हुआ है. बैंकों की विकराल होती एनपीए की समस्या को भी मोदी सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया है. उसे लगता है यह समस्या अपने आप ठीक हो जाएगी. हां पिछले एक साल में उसे महसूस हुआ है कि यह गंभीर समस्या है.
रेलवे में सुधारों की कमी, नोटबंदी से हुई दिक्कतें, रोजगार के मोर्चे पर असफलता, मेक इन इंडिया की नाकामी समेत तमाम खामियों को गिनाते हुए भी कौल लिखते हैं कि मोदी सरकार का प्रदर्शन इकनॉमी के मोर्चे पर औसत से थोड़ा ही अच्छा है. वैसे भी जब तक कोई संकट नहीं होता. भारत में सरकारें शायद ही इकोनॉमी के मोर्चे पर किसी पहलकदमी के लिए जागती हैं.
विपक्षी एकता के बनते-बिगड़ते समीकरण
एशियन एज में आकार पटेल ने अपने कॉलम में कर्नाटक चुनाव के बाद विपक्षी एकता की बन रही तस्वीर का जायजा लिया है. उन्होंने लिखा है कि कई दलों ने अपने विकल्प खुले रखे हैं. पश्चिम बंगाल में बीजेपी मजबूत विपक्ष बन कर उभरी है और कांग्रेस अप्रासंगिक हो गई है. इसलिए ममता को कांग्रेस से गठजोड़ में गुरेज नहीं होगा.
नवीन पटनायक के लिए कांग्रेस बीजेपी से बड़ी दुश्मन है. इसलिए अगर वह विपक्षी एकता की कोशिशों की इस तस्वीर में नहीं दिखे तो सही फैसला किया. टीआरएस प्रमुख के चंद्रशेखर बेंगलुरू आकर देवगौड़ा से मिल गए लेकिन शपथ ग्रहण समारोह में मंच पर नहीं दिखे.
पटेल लिखते हैं- बहरहाल बीजेपी की कोशिश रहेगी कि जो पार्टियां इस अलायंस में नहीं हैं उन्हें नाराज न किया जाए. खास कर तमिल पार्टियों को.हालांकि स्थानीय स्तर पर ऐसा करना आसान नहीं है.
हाल के एक सर्वे में राजस्थान और मध्य प्रदेश में, जहां बीजेपी 15 साल से राज कर रही है, कांग्रेस से पीछे दिखाया गया है. मध्य प्रदेश में 2013 में बीएसपी ने सिर्फ चार सीटें जीती थीं लेकिन वह यहां 6 फीसदी से ज्यादा वोट शेयर जीतने में कामयाब रही थी.
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इकनॉमी के बदतर हालात से चेत जाएं
अमर उजाला में पी चिदंबरम ने अपने कॉलम में अर्थव्यवस्था के मोर्च पर मोदी सरकार नीतियों से पैदा मुश्किलों का जिक्र किया है. वह लिखते हैं- जब आप आईपीएल के रोमांचक क्रिकेट मैचों और कर्नाटक में चले सत्ता के खेल का आनंद उठाने मे व्यस्त थे. ठीक उसी वक्त अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर भी काफी कुछ घटा. यही ठीक समय है कि जब हमें सरकार से साफ कहना चाहिए कि वह उन मुद्दों पर गौर करे जो कि अर्थव्यवस्था को गंभीर चुनौती दे रहे है.
चिदंबरम लिखते हैं-
“चालू खाते का घाटा 2012-13 के दौरान एक बड़ी चुनौती बन गया था. तेल के दाम में आई नाटकीय गिरावट ने एनडीए सरकार को यह दावा करने में मदद की उसने तीन साल में ही चमत्कार कर दिया है. लेकिन अब ज्वार उतर चुका है सरकार के पास कोई जवाब नहीं है.”
चिदंबरम ने गिरते रुपये, निर्यात में गिरावट, बैंकों के एनपीए के बढ़ते बोझ और रोजगार में कमी का जिक्र करते हुए लिखा है- आप जब इसे पढ़ रहे हैं तो सरकार अपने चार साल का जश्न मनाने के लिए प्रचार सामग्री की बाढ़ ला देगी. अगर आप इस जश्न में शामिल होना चाहते हैं तो निश्चित तौर पर हों लेकिन अर्थव्यवस्था की बदतर स्थिति को याद जरूर रखें.
आलिया भट्ट का जवाब नहीं
अमर उजाला में पूर्व राजनयिक सुरेंद्र कुमार ने आलिया भट्ट की तारीफ करते हुए एक दिलचस्प लेख लिखा है. कुमार लिखते हैं- अपनी ताजा फिल्म राजी में शानदार अभिनय के लिए उन्हें न सिर्फ अब भी लगातार बधाइयां मिल रही हैं बल्कि उनके पिता और चर्चित फिल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट इसे आलिया की सबसे अच्छी फिल्म बता रहे हैं.
पच्चीस की उम्र और करीब 10 फिल्मों में काम कर चुकीं आलिया अगर इसी तरह पहचान और पुरस्कार पाती रहीं तो वह दूर नहीं जब उन्हें बॉलीवुड का अमिताभ बच्चन कहा जाएगा. बेशक यह तुलना बिग बी के असंख्य समर्पित फैन्स के लिए ईशनिंदा की तरह लग सकती है लेकिन अगर कोई आलिया भट्ट के शुरुआती पांच साल के फिल्म करियर का आकलन करे तो पाएगा कि वह अपनी समकालीनों से न केवल मीलों आगे हैं बल्कि वह मिलेनियम स्टार भी हैं.
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