मोदी राज के चार सालों में भारत की डिजिटल इकॉनमी का दिल बैठ गया है. इस हकीकत ने प्रधानमंत्री के यंग इंडिया, डिजिटल इंडिया और मेक इन इंडिया जैसे बड़े वादों को चकनाचूर कर दिया है (क्या आप इसमें स्मार्ट सिटी को भी जोड़ना चाहेंगे?). इन हालात में अगर प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) की बौखलाहट बढ़ती जा रही है, तो ये कोई हैरानी की बात नहीं है.
मेरे हाल के दो लेख/वीडियो वायरल हो गए. उन्होंने पाठकों और नीतियां बनाने वालों की दुखती रग को छू दिया. पहले लेख, में मैंने मोदी के मशहूर हार्ड हिटिंग अंदाज में एक शॉर्ट फॉर्म गढ़ा था- DACOIT यानी डिजिटल अमेरिका/चाइना कॉलोनाइजिंग एंड ऑब्लिटरेंटिंग इंडियन टेक. (डिजिटल अमेरिका और चीन भारत के टेक्नॉलजी क्षेत्र को गुलाम बनाकर खत्म कर रहे हैं). इसमें भारत की उन गलत और भेदभावपूर्ण नीतियों को उजागर किया गया था, जिनकी वजह से पहली पीढ़ी के भारतीय एंटरप्रेन्योर हथियार डालने पर मजबूर हो रहे हैं. इससे हमारी डिजिटल इकॉनमी अमेरिका और चीन की जागीर या उपनिवेश बनती जा रही है. (द टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस लेख को अपने संपादकीय पेज पर प्रमुखता से छापने की इजाजत मांगी.)
जल्द ही प्रधानमंत्री के एक प्रमुख सहयोगी ने मुझे ये टेक्स्ट मैसेज भेजा :
कैबिनेट ऑफिसर: अभी-अभी आपका DACOIT शीर्षक वाला वीडियो देखा. यह खतरनाक ढंग से चिंता पैदा करने वाला लग रहा है. जब भी आपके पास वक्त हो, मैं इस बारे में आपसे बात करना चाहूंगा.
कुछ ही हफ्ते बाद, वॉलमार्ट ने फ्लिपकार्ट का अधिग्रहण करके मेरे 'डकैती' वाले दावे को सच साबित कर दिया. इसके बाद मेरे दूसरे लेख में मैंने बताया कि हमने किस तरह फ्लिपकॉर्ट के फाउंडर्स को कानून तोड़ने को मजबूर किया, जिससे वो बड़ी अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के लिए एक आसान और सस्ता शिकार बन गए. इस बार भी प्रधानमंत्री मोदी के एक और हाईप्रोफाइल सलाहकार ने मुझे ये SMS भेजा:
प्रधानमंत्री के सलाहकार: ये संदेश आपके लेख के बारे में है. प्लीज सोमवार को फोन कीजिए. मैं आपसे चर्चा करना चाहूंगा, ताकि मेरी टीम आपसे आगे बातचीत कर सके.
दुर्भाग्य से दोनों ही बार बातचीत शुरुआती टेक्स्ट मैसेज से आगे नहीं बढ़ सकी, हालांकि मैंने बड़े उत्साह के साथ इस सिलसिले को आगे बढ़ाने की पेशकश की थी.
लेकिन डिजिटल स्टार्टअप की शुरुआत करने वाले एक बेहद सम्मानित फर्स्ट जेनरेशन फाउंडर से भी व्हाट्सऐप पर मेरा बड़ा ही दिलचस्प संवाद हुआ (यहां साफ कर दूं कि वो फ्लिपकार्ट से संबंधित नहीं हैं).
फर्स्ट जेनरेशन फाउंडर: आपका ‘डकैती’ वाला लेख और वीडियो बहुत अच्छा लगा. इसी तरह की बातें मैं भी कहता रहा हूं, लेकिन ये सरकार ठीक से सुनती नहीं है.
मैं: हां, हम यहां गुलाम बनते जा रहे हैं और वो स्टीयरिंग व्हील पर बैठे सो रहे हैं.
फर्स्ट जेनरेशन फाउंडर: बिलकुल ठीक कहा, राघव. ये वाकई मुश्किल हो गया है. विडंबना ये है कि वो बार-बार दोहराते हैं कि वो भारत में एक गूगल और अलीबाबा को उभरता हुआ देखना चाहते हैं!!! मैं ये बात उन सबसे कह चुका हूं, प्रधानमंत्री समेत (बड़ी विनम्रता से). लेकिन वो समझ नहीं पा रहे, क्योंकि वो शॉर्ट टर्म FDI से अभिभूत हैं.
जाहिर है कि मैं इस तेजतर्रार युवा एंटरप्रेन्योर की पहचान उजागर नहीं कर सकता. क्यों? ये सबको पता है.
एक अफसर ने समझ ली बात!
अब मैं आपको व्हाट्सऐप पर हुई एक और महत्वपूर्ण बातचीत के बारे में बताता हूं. ये बातचीत एक ऐसे IAS अफसर से हुई, जो सबसे ज्यादा पहलकदमी लेने वाले अधिकारियों में एक हैं. वो डिजिटल तकनीक से अच्छी तरह वाकिफ हैं और शहरों से जुड़े मुद्दों पर अच्छी पकड़ रखते हैं. (मुझे लगता है, उनके पास करीब ढाई दशक का अनुभव तो होगा ही). मैं आपको ये तो नहीं बता सकता कि वो कौन हैं, लेकिन एक दिन सुबह 7 बजे के आसपास उनसे हुई बातचीत पेश है :
IAS अफसर: आपका बहुत बढ़िया लेख पढ़ा. उसकी ज्यादातर बातों से सहमत हूं. सबसे नहीं. और आप अरुण शौरी की मशहूर लाइन भूल गए - रिफॉर्मर बनने से पहले आपको चुनाव जीतना पड़ता है. कोई भी पार्टी 1 करोड़ 20 लाख ट्रेडर्स को छोड़ नहीं सकती. इसलिए यहां भी सलामी वाली रणनीति चलेगी यानी धीमा जहर. सीधा टकराव नहीं. बहरहाल, मौजूदा पीएमओ को उन मुद्दों की खबर है, जिनका आपने जिक्र किया है और वो उस पर काम भी कर रहे हैं. हालांकि धीरे-धीरे. आपको जल्द ही सकारात्मक बदलाव नजर आएंगे. समस्या ये है कि फ्लिपकार्ट और दूसरे लोगों ने अपनी चालें ठीक से नहीं चलीं. उन्होंने लॉबिंग के लिए गलत लोगों को हायर कर लिया, गलत मुद्दे उठा दिए. क्या आपने इनमें से हरेक मुद्दे पर कुछ और गहराई से लिखा है, जो आप मुझसे शेयर कर सकें?
मैं: आपको बहुत गहरी और जटिल गाइडलाइन्स की जरूरत नहीं है. ये सिर्फ अपना हित देखने वाली स्वार्थी सोच से पैदा हुई समस्याएं हैं, जिनके चलते लोग अजीबोगरीब, गैरकानूनी तौर-तरीके अपनाने को मजबूर हो जाते हैं. लोगों को आजाद छोड़िए. बाजार पर भरोसा कीजिए.
IAS अफसर: माना. लेकिन एक नजरिया पॉलिटिकल इकॉनमी का भी है. और जिन बातों का आपने जिक्र किया, उनमें से कुछ के बारे में एक मजबूत वैकल्पिक दृष्टिकोण भी मौजूद है.
मैं: पॉलिसी बनाने वालों को माइक्रो मैनेजमेंट छोड़ना चाहिए, हारने और जीतने वाले का फैसला अपने हाथ में रखने की कोशिश बंद करनी चाहिए. उनका काम ये होना चाहिए कि वो कंपटीशन को निष्पक्ष और साफ-सुथरा बनाएं, न कि ये तय करें कि किस नियम के तहत कौन क्या कर सकता है! लेकिन दूसरे IAS अफसर आप जैसे नहीं हैं, वो आजादी को गहरे शक के साथ देखते हैं. और राजनेताओं को तो इन बातों की कोई परवाह ही नहीं होती. यही मुख्य समस्या है.
IAS अफसर: मैं आपसे सहमत हूं. समस्या ये है कि कई मामलों में, सबमें नहीं, वो फेयर कंपटीशन तक सुनिश्चित नहीं कर पाते !
मैं: तब इसे बाजार की निर्दयता के भरोसे ही छोड़ दीजिए. सिर्फ अपने फायदे की सोचने वाले लोग तैयार करने से तो ये कहीं बेहतर है.
IAS अफसर: मुझे 3 महीने दीजिए....(इसके बाद उन्होंने ऐसे खास विवरण दिए हैं, जिन्हें बताने से उनकी पहचान उजागर हो जाएगी, इसलिए इस संवाद को यहीं छोड़ता हूं. लेकिन इसका मतलब तो आप समझ ही गए होंगे.)
भारत की डिजिटल आजादी के लिए मोदी बना रहे हैं इलीट IAS की टीम
दुर्भाग्य से प्रधानमंत्री मोदी फिर से वही घातक भूल कर रहे हैं, जिसने उनके 4 साल के राज पर बट्टा लगा दिया है. वो एक आधुनिक, मार्केट फ्रेंडली यानी बाजार का हित देखने वाली पॉलिसी का ढांचा तैयार करने के लिए भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) पर भरोसा कर रहे हैं. (इससे पहले कि ताकतवर IAS लॉबी मेरे पीछे पड़ जाए, मैं बता दूं कि "मैं एक IAS का बेटा हूं." मेरे पिता 1957 बैच के राजस्थान कैडर में रहे और मैंने अपने जीवन में जो कुछ भी हासिल किया है, उसमें IAS बिरादरी का काफी योगदान है).
लेकिन कड़वी हकीकत यही है कि जिस तरह मैं एक जिले का सफल प्रशासक नहीं बन सकता, उसी तरह IAS अफसर भी आमतौर पर प्रतिस्पर्धी बाजार की ताकत को समझने में नाकाम साबित होते हैं. (इसके कई सम्मानित अपवाद भी हैं, लेकिन वो इस नियम को सच ही साबित करते हैं).
इसमें कोई संदेह नहीं कि देश के सबसे बुद्धिमान और प्रतिभाशाली लोग ही IAS अफसर बनते हैं. लेकिन अपने करियर की शुरुआत से लेकर आखिर तक उन्हें सुरक्षा का जो घेरा मिला रहता है, उसके कारण वो सफलता-विफलता के हिचकोले खाते रास्तों से अलग-थलग रह जाते हैं. उन्हें मिलने वाले पैसों पर उनकी मेरिट और उपलब्धियों का कोई असर नहीं पड़ता. आप तेज रफ्तार से फर्राटा भरने वाले हों या पीछे-पीछे घिसटने वाले, आपको चलना उसी धीमी लेन में पड़ता है. इन सीमाओं के चलते आमतौर पर रिस्क से बचने का भाव पैदा हो जाता है; फ्री मार्केट को लेकर मन में गहरा संदेह पलता रहता है. हर चीज को माइक्रो मैनेज करने और उसके लिए तरह-तरह के "प्रावधान तैयार करने" की इच्छा यहीं से पैदा होती है.
पीएम मोदी के स्पष्ट निर्देश पर भी क्यों नहीं हो पाएगा अमल ?
मैं इस बात की करीब-करीब भविष्यवाणी कर सकता हूं कि भारत को डिजिटल गुलामी से छुटकारा दिलाने की इस जंग में आगे क्या-क्या होने वाला है. भारत के एंटरप्रेन्योर को उनके अंतरराष्ट्रीय मुकाबलेबाजों की तुलना में बराबरी के या उनसे ज्यादा अधिकार देने का सीधा और स्पष्ट निर्देश जैसे ही प्रधानमंत्री कार्यालय से जारी होगा, संदेह से भरी कानाफूसी का दौर पॉलिसी फ्रेमवर्क को अपनी गिरफ्त में लेना शुरू कर देगा.
आंकड़ों पर शक करने वाले IAS अफसर कहेंगे: सर, हमें ये जरूर देखना चाहिए कि स्टार्ट-अप कहीं बड़े विदेशी या घरेलू निवेशकों का मुखौटा या उनके प्रतिनिधि न बन जाएं. इसलिए हमें इसमें ये प्रावधान रखना चाहिए कि “कोई भी एक शेयरहोल्डर 10% से ज्यादा इक्विटी निवेश नहीं करेगा.”
कॉरपोरेट ढांचे पर शक करने वाले IAS अफसर कहेंगे: लेकिन सर, आपको पता है कि ये बड़ी कंपनियां अपने कॉरपोरेट ढांचे की कई परतों की आड़ लेकर ओनरशिप को किस तरह छिपाती हैं. इसलिए हमें “सिंगल शेयरहोल्डर” की परिभाषा में “प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर” भी जोड़ देना चाहिए. (हे भगवान, एक “निरीह सा प्रावधान” जोड़ने भर से हमारे इस भले अफसर ने एक निवेशक की “वल्दियत” को साबित करना वाकई असंभव बना दिया है. बेचारे निवेशक को अब खुद से जुड़े तमाम लोगों की जीवनी के पोथे जमा कराने पड़ेंगे और उनकी सच्चाई का सिक्योरिटी चेक सैक्रामेंटो से सीतामढ़ी तक कराना पड़ेगा ! )
छोटे उद्योगों के हिमायती IAS अफसर कहेंगे: और सर, क्या हम फ्लिपकार्ट फाउंडर्स के दूसरे वेंचर को “स्टार्ट अप” कह सकते हैं ? आखिरकार, अब तो वो अरबों डॉलर के मालिक हैं. इसलिए हमें “एक और प्रावधान” जोड़ना चाहिए कि ये तमाम लाभ सिर्फ “फर्स्ट जेनरेशन एंटरप्रेन्योर के पहले वेंचर” को ही मिलेंगे. (अब आप ये समझने में सर खपाइए कि “फर्स्ट जेनरेशन” कौन है और “पहले वेंचर को कामयाबी के साथ बेचने के बाद उसका दूसरा वेंचर” क्या कहलाएगा. आप समझ सकते हैं कि यहां तक आते-आते ये नई पॉलिसी ऐसी बन गई है कि उसे लागू करना असंभव होगा.)
ताबूत में आखिरी कील ठोकने वाले IAS अफसर : सर, हमें तकनीक या नई खोज के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले स्टार्ट-अप और "पकौड़े की दुकान" खोलने वाले में फर्क तो करना ही चाहिए. इसलिए सर, ये सारी रियायतें सिर्फ उन्हीं स्टार्ट-अप को मिलनी चाहिए, जिन्हें "इन्नोवेटिव बिजनेस ऑपरेशन" की पहचान के लिए DIPP के तहत गठित इंटर-मिनिस्टिरियल बोर्ड बाकायदा प्रमाणित करे.
देखा, आप कैसे फिर से वहीं पहुंच गए ! "भारतीय एंटरप्रेन्योर्स को 21वीं सदी में अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए तैयार करने" के प्रधानमंत्री मोदी के निर्देश की स्याही सूखी भी नहीं होगी कि इस इलिट IAS ब्रिगेड ने सीतामढ़ी के किसी SHO को ऐसे अधिकार देने का पूरा इंतजाम कर लिया, जिनसे उसे नाजायज फायदा उठाने का मौका मिल सकता है. (हो सकता है ऐसा ही मौका अमेरिकी राज्य कैलिफॉर्निया के शहर सैक्रामेंटो के किसी इलाके के अफसर को भी मिल जाए, लेकिन हम ऐसा पक्के तौर पर नहीं कह सकते.)
तो मैं बड़े भरोसे के साथ शर्त लगा सकता हूं कि मई 2019 में मोदी सरकार के पांच साल पूरे होने तक एक भी मामले पर मंजूरी की अंतिम मुहर नहीं लगी होगी !
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