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संडे व्यू: ‘नेपाल फर्स्ट’ पॉलिसी, हिंदू एकता के मुश्किल सवाल

सुबह मजे से पढ़ें संडे व्यू जिसमें आपको मिलेंगे अहम अखबारों के आर्टिकल्स

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‘नेपाल फर्स्ट’ पॉलिसी

नेपाल के पीएम खड्ग प्रसाद शर्मा ओली तीन दिन के दौरे पर भारत में हैं. ओली के इस दौरे को भारत-नेपाल रिश्तों में नई जान डालने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है.

विदेश मामलों के जाने-माने विश्लेषक सी राजा मोहन ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है- नेपाल में भारत के प्रति संदेह है. ओली को नेपाल में यह कह कर भारत आना पड़ा कि वह अपने देश हित के खिलाफ कोई समझौता नहीं करेंगे.

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नेपाल के पीएम केपी ओली और पीएम मोदी
(फाइल फोटो: PTI)

राजा ने भारत और नेपाल के मौजूदा खटास भरे रिश्तों को ठीक करने के लिए कुछ उपाय सुझाए हैं. वह लिखते हैं-भारत सबसे पहले नेपाल की संप्रभुता को स्वीकार करे और फिर उसी आधार पर उससे रिश्ते कायम करने का वादा करे.भारत को नेपाल के साथ खास रिश्ते की जगह संप्रभु समानता की थ्योरी को लेकर चलना होगा.

दूसरा, भारत ओली से ‘इंडिया फर्स्ट पॉलिसी’ की उम्मीद के बजाय ‘नेपाल फर्स्ट’ पॉलिसी को तवज्जो दे. यह भारत की ओर से दी गई रियायत नहीं होगी. उल्टे भारत को इससे फायदा है क्योंकि उत्तर में मजबूत और संप्रभु नेपाल भारत के ही हित में है. तीसरा, भारत को नेपाल के आर्थिक विकास में सहयोग करना होगा. लंबी और खुली सीमा पर कारोबार का जर्जर इन्फ्रास्ट्रक्चर, आर्थिक सहायता की जटिल प्रक्रिया और इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में देरी के जरिये भारत ने नेपाल की मुश्किलें बढ़ा दी हैं.

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हिंदू एकता के मुश्किल सवाल

एशियन एज में आकार पटेल ने देश में एससी-एसटी एक्ट पर दलितों के आंदोलन के संदर्भ में कई सवाल खड़े किए हैं. उन्होंने पीएम नरेंद्र मोदी की उस अपील का हवाला देकर अपनी बात रखी है, जिसमें कहा गया गया है कि देश के सभी सांसद दलितों के साथ दो दिन रहें.

पटेल का कहना है, बीजेपी का लक्ष्य हिंदुओं को राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से एकजुट करना है. लेकिन हिंदुओं की एकता में कई रोड़े हैं. 85 फीसदी आबादी में एकता आसान नहीं है. दलितों के आंदोलन से साफ है कि अंदरुनी विभाजन काफी ज्यादा है.

दूसरे, आरएसएस चाहता है कि सभी हिंदू एक हो जाएं लेकिन यह अपने संगठन की कमान किसी आदिवासी, दलित और महिला को देने को तैयार नहीं है. क्या ऊंची जाति के हिंदू आरक्षण का समर्थन करेंगे. नहीं. क्योंकि उन्हें इससे घाटा होता दिखता है.

पटेल लिखते हैं- पीएम दावा करते हैं कि अंबेडकर का सबसे ज्यादा सम्मान बीजेपी ने किया है.लेकिन कुछ राजनीतिक दलों के नेताओं और दलितों का कहना है कि अंबेडकर को सम्मान की जरूरत नहीं है. ये बताइए कि आपने दलितों के लिए क्या किया. बीजेपी की दुखती रग यही है. दलितों को असलियत पता है. दो रात दलितों के बीच रुक कर बीजेपी अपने मकसद में कामयाब नहीं होने वाली है.

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शिवराज का बाबा प्रेम

मध्य प्रदेश की शिवराज सरकार की ओर से पांच बाबाओं को राज्य मंत्री का दर्जा देने पर हिन्दुस्तान टाइम्स में नमिता भंडारे ने जबरदस्त तर्क दिए हैं.

नमिता लिखती हैं- बाबाओं से भारत का पुराना मोह रहा है. सबके अपने-अपने रासपुतिन रहे हैं. इंदिरा के धीरेंद्र ब्रह्मचारी से लेकर नरसिम्हा राव के चंद्रस्वामी तक. बहरहाल, शिवराज सिंह चौहान का गैर निर्वाचित बाबाओं को राज्यमंत्री का दर्जा देना अभूतपूर्व है.

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इससे तात्कालिक तौर पर दो बड़ी चिंता पैदा होती है. पहली तो यह शिवराज के लिए नैतिकता के बिल्कुल खिलाफ है. क्योंकि ये बाबा उनके खिलाफ नर्मदा घोटाला यात्रा शुरू करने वाले थे. शिवराज पर गोहत्या रोकने में नाकामी और नर्मदा के किनारे पौधे लगाने में घोटाले के आरोप लगाए जा रहे हैं. चौहान की ओर से मंत्री बनाए जाने के बाद इन बाबाओं ने आंदोलन रोक दिया है.

दूसरी चिंता यह है कि भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान को देखते हुए क्या हिंदू धर्म के बाबाओं को मंत्री पद देना ठीक है. ऐसे वक्त में जब लिबरल लोगों को ‘सिक्यूलर’ कह कर लांछित किया जा रहा हो तब भारतीय समाज के ताने-बाने के लिए ऐसे साधु-संतों के प्रमोशन का क्या मतलब है? उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद प्रसिद्ध न्यायविद फालि एस नरीमन ने सवाल उठाया था- क्या हिंदू राज की शुरुआत है?

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किसान आंदोलन का दूसरा पहलू

ऐसे वक्त में जब देश में महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, आंध्र समेत देश के कई राज्यों में किसान अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतर चुके हैं तो स्वामीनाथन एस. अंकलसरैया का यह कहना अजीब लग सकता है कि ऐसे आंदोलन ग्रामीण इलाकों के संकट के बजाय किसानों की दबदबे का सबूत हैं. लेकिन उन्होंने इसके समर्थन में मजबूत दलील पेश की है.

टाइम्स ऑफ इंडिया के अपने कॉलम में अंकलसरैया लिखते हैं कि किसानों के बढ़ते आंदोलन ग्रामीण इलाकों की समस्याओं को दिखाने के बजाय यह बताते हैं कि ऐसे आंदोलन और होंगे.

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आंदोलन में शामिल किसान 
(फोटो:Twitter)

स्वामीनाथन लिखते हैं- किसानों को दी जाने वाली रियायतों का फायदा बड़े किसानों को मिलता है. गरीब किसानों और कृषि श्रमिकों को नहीं. और यह बात शायद ही राष्ट्रीय मीडिया में बहस का मुद्दा बनती है. किसान अमेरिका जैसे औद्योगिक देश समेत पूरी दुनिया में एक बड़ी लॉबी हैं. भारत में किसानों का वोट लेने के लिए पार्टियां और सरकारें एक दूसरे से होड़ लेती हैं.

किसानों की खुदकुशी के बारे में भी मिथ बना हुआ है. 2012 में लांसेट में विक्रम पटेल और अन्य के रिसर्च पेपर में कहा गया है बेरोजगार युवाओं और गैर किसानों की आत्महत्या की रफ्तार किसानों और कृषि श्रमिकों की तुलना में तीन गुना ज्यादा है.

स्वामीनाथन का कहना है कि अगर किसानों की मदद ही करनी है तो उन्हें फसल के सीजन में सीधे 4000 रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से सब्सिडी दी जाए और यह सिर्फ पांच एकड़ तक सीमित हो. दूसरे सारे सब्सिडी बंद कर दिए जाएं. यह फसलों के मूल्यों और उत्पादन में छेड़छाड़ के बगैर किसानों की मदद का सबसे आसान तरीका होगा.

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रोनाल्डो के गोल की वो गूंज

खेल किस तरह बंटी हुई दुनिया को एक कर सकता है, इसका उदाहरण देते हुए हिन्दुस्तान टाइम्स में सौम्य भट्टाचार्य ने एक बेहतरीन लेख लिखा है. रियल मैड्रिड और जुवेंटस के बीच चैंपियंस लीग के क्वार्टर फाइनल में क्रिस्टियानो रोनाल्डो के अद्भुत गोल के बाद दर्शकों की प्रतिक्रिया का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा है कि इसने दिखा दिया कि खेल लोगों के बीच विभाजन को कैसे खत्म कर सकता है.

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सौम्य लिखते हैं रोनाल्डो के इस गोल के बाद जो हुआ वह जबरदस्त था. गोल जुवेंट्स के खिलाफ हुआ था और इससे उसके कंपीटिशन से बाहर जाने का खतरा पैदा हो गया था. लेकिन जुवेंट्स के दर्शक रोनाल्डो के इस शानदार गोल की तारीफ में उठ खड़े हुए है और रोनाल्डो के हाथ उनकी ओर आभार में जुड़ गए. जुवेंट्स की ओर से खेलने वाले दुनिया के महानतम गोलकीपर जियालुइजो बफन ने खुद आगे बढ़ कर रोनाल्डो की तारीफ की और उन्हें बधाई दी. खेल खत्म होने के  बाद जुवेंट्स के कोच मेसिमिलियानो एलेग्री ने भी रोनाल्डो की भरपूर तारीफ की.

यह अद्भुत उदाहरण था, जब फैन्स और खिलाड़ी आपसी विभाजन और प्रतिस्पर्धा और सबसे ज्यादा हारने की निराशा से ऊपर उठ कर खेल की खूबसूरती की तारीफ में इकट्ठा हो गए थे. खेल देकर नैसर्गिक आनंद उठाने का यह अद्भुत उदाहरण था. खेल शायद इसी का संदेश देते हैं कि प्रतिस्पर्धा से उठ कर कैसे एक साथ इसके आनंद में सराबोर हो जाएं.

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बेहतरीन दस भारतीय

अमूमन पत्र-पत्रिकाएं और अखबार दस सर्वेश्रेष्ठ भारतीयों के बारे में सर्वेक्षण कराते हैं. अमर उजाला में रामचंद्र गुहा ने इस दिलचस्प सर्वेक्षण का जिक्र  करते हुए बताया है कि भारत में इसकी शुरुआत कब से हुई थी.

गुहा लिखते हैं कि इसकी शुरुआत भारत में 1926 में हुई थी जब इंडियन नेशनल हेराल्ड ने यह सर्वेक्षण किया था. अखबार के संपादक थे बी जी हार्निमन. अंग्रेज हार्निमन भारत प्रेमी थी और उन्हें रॉलेट एक्ट के विरोध में चल रहे गांधी के संघर्ष के समर्थन में आलेख लिखने और भाषण देने के कारण निर्वासित कर दिया गया था.

बहरहाल, इंडियन नेशनल हेराल्ड के उस सर्वेक्षण में दस सर्वेश्रेष्ठ भारतीयों की सूची में महात्मा गांधी सबसे ऊपर थे. उसके बाद थे टैगोर, जगदीश चंद्र बोस, मोतीलाल नेहरू, अरबिंदों घोष आदि. ये सभी ऊंची जाति के हिंदू थे. पांच ब्राह्मण थे. सिर्फ एक महिला था. एक भी मुस्लिम, ईसाई , सिख या पारसी नहीं था.

गुहा लिखते हैं- अगर आज इस तरह का सर्वेक्षण कराया जाए तो? इस बात की संभावना है कि इसमें हिंदुओं को लेकर पक्षपात हो लेकिन इसमें निश्चित ही पांच ब्राह्मण नहीं होंगे. मुझे संदेह है कि इस सूची में राजनीति का उसी तरह प्रभुत्व होगा जैसा कि 1926 में था. 2018 में बनाई जाने वाली सूची में फिल्म सितारे और क्रिकेटर होंगे. इस पर कोई सवाल नहीं हो सकता.

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अपनी गलती, दोष दूसरों पर

और अब कूमी कपूर से फेक न्यूज पर सूचना-प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी की फजीहत की इनसाइड स्टोरी सुन लीजिये. इंडियन एक्सप्रेस के अपने कॉलम इनसाइड ट्रैक में वह लिखती हैं- फेक न्यूज पर सर्कुलर वापसी के बाद अपनी किरकिरी करवा चुकी स्मृति ईरानी ने इसका सारा दोष रिटायर हो रहे पीआईबी चीफ फ्रैंक नरोन्हा और दो सीनियर ब्रॉडकास्ट जर्नलिस्टों पर डाल दिया है.

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केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी
(फाइल फोटोः PTI)

स्मृति को एक दिन बाद ही यह सर्कुलर वापस लेना पड़ा था. कहा जा रहा है कि उनकी किरकिरी होने के बाद रिटायरमेंट से पहले छुट्टी पर चल रहे बेचारे नरोन्हा को पीएमओ से तुरंत आदेश मिला कि तुरंत व्हाट्सअप मैसेज करें कि फेक न्यूज के बहाने पत्रकारों पर लगाम लगाने वाला आदेश रद्द कर दिया गया है.

दरअसल नियमों को मूल रूप से तैयार कर पीआईबी साइट पर डालने वाले थे नरोन्हा के उत्तराधिकारी सीतांशु कर. स्मृति का कहना है कि फेक न्यूज की समस्या से लड़ने के लिए बने गाइडलाइंस को लागू करने से पहले वह दो हाई-पावर टीवी एंकरों से लगातार टच में थीं. लेकिन उनका कहना है कि इसमें उनकी कोई भूमिका नहीं है.

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