'आंखों देखा हाल' पढ़ने से पहले मैं जानता था कि ये आत्मकथा उस कमेंटेटर की है जिसकी आवाज उस दौर में भी कर्णप्रिय थी जब घरों में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी भी नहीं हुआ करते थे और आज भी सुनाई देती है जब घर-घर में हॉटस्टार है, ये आवाज तब भी थी जब क्रिकेट कमेंट्री का रेडियो ही एकमात्र जरिया था और आज भी धाराप्रवाह है जब पॉडकास्ट का जमाना है.
इसलिए मैंने अनुमान लगाया था कि इस आत्मकथा को पढ़ना मेरे लिए उस पुल को पार करने जैसा होगा, जिसके एक छोर पर क्रिकेट की दुनिया बेरंग है और दूसरे छोर पर चकाचौंध से लबरेज, साथ में नीचे से बह रही होगी अविस्मरणीय किस्सों की धारा. अब मेरा अनुमान कितना सही निकला इसका जिक्र आगे समीक्षा में...
किताब में क्या?
किसी और पेशे से संबंधित किसी व्यक्ति की आत्मकथा होती तो शायद वो सिर्फ आत्मकथा कहलाती, लेकिन 50 सालों से क्रिकेट से जुड़े किसी व्यक्ति की आत्मकथा को उतना ही 'क्रिकेटकथा' भी कहा जाना चाहिए. पेंगुइन से प्रकाशित, सुशील दोषी की किताब 'आंखों देखा हाल' का भी यही चरित्र है.
इसमें आपको पता चलेगा कि कैसे विज्ञान व गणित का एक विद्यार्थी, हिंदी कमेंट्री का पुरोधा बन गया.
ये किताब उनके बचपन के संघर्ष भरे दिनों से शुरू होती है और धीरे-धीरे पढ़ाई, परिवार, व्यवसाय, विदेश यात्राएं, कमेंट्री, किस्से और विश्वकप से होती हुई कोरोना के बाद के कालखंड तक पहुंचती है. 218 पन्नों की किताब 27 अध्यायों में विभाजित है.
शुरू के कुछ अध्यायों में बचपन के दिनों और संघर्षों का जिक्र है, पांचवे अध्याय से उनकी कमेंट्री की शुरूआत होती है. इसके बाद विदेश यात्राओं का जिक्र है. इस बीच पिता के साथ संबंध, उनके देहांत का प्रभाव और पारिवारिक जिंदगी, व्यवसाय का भी जिक्र बीच-बीच में होता रहता है, लेकिन मूल रूप से क्रिकेट के जरिये ही कहानी आगे बढ़ती है. किताब में 5 विश्व कप और उनसे जुड़ी कहानियों का जिक्र प्रमुखता से है. पाकिस्तान के साथ क्रिकेट रिश्तों के बारे में खुलकर चर्चा है कि कैसे उनके अंपायरों की बेईमानी से वे मैच जीतते थे. यहां किताब से एक छोटे किस्से का जिक्र करते हैं-
"जिया उल हक कह रहे थे कि हमें सुनील गावस्कर और विश्वनाथ दे दो तो हम विश्व विजेता बन जाएंगे. पाकिस्तानी अंपायरिंग से नाराज एक भारतीय पत्रकार ने चुपके से कहा, 'अरे भाई आप तो हमें अपने 2 अंपायर ही दे दो, तो हम विश्व विजेता बन जाएंगे', पीछे बैठे जिन लोगों ने इसे सुना एकदम हंस पड़े."
इस किताब में ज्यादातर उन्हीं चीजों का जिक्र है जिनमें सुशील दोषी या तो खुद कमेंटेटर की भूमिका में हैं या उनके सामने चीजें घटित हुई हों. आत्मकथा में खुद के बाद दोषी साहब ने किसी का सबसे ज्यादा जिक्र किया है तो वे सुनील गावस्कर हैं. बाद के ज्यादातर अध्यायों में उनकी चर्चा होती है. बाकी आपको भारतीय क्रिकेट के कई किस्से इस किताब में जानने के लिए मिलेंगे.
मोहिंदर अमरनाथ, गावस्कर, तेंदुलकर, सहवाग, चंदू सरवटे से जुड़ी ऐसी कहानियां मिलेंगी जिनसे शायद आप अनजान हों. आंकड़ों में ज्यादा उलझाने की कोशिश नहीं है, फिर भी कई जगहों पर प्रमाणिकता के लिए आंकड़ों का जिक्र है.
इसके अलावा दोषी साहब ने किताब में पिछले 5 दशकों की सर्वश्रेष्ठ टेस्ट और वनडे टीम बनाई और अंत में मशहूर खिलाड़ियों की कुछ मान्यताओं का जिक्र भी है, जिसे आमतौर पर हम अंधविश्वास कहते हैं.
भाषा?
भाषा के पैमाने पर किताब एकदम खरी उतरती है. पूरी किताब में मुझे सिर्फ 4-5 शब्दों के लिए शब्दकोश का सहारा लेना पड़ा. एक आम पाठक के समझ में आ जाए ऐसी भाषा का प्रयोग है. 'कंक्रीट के जंगल', 'संगीनों के साये में क्रिकेट', 'स्वप्निल पारी' और 'विस्फारित नेत्रों' जैसे मुहावरों ने भाषा में चार चांद लगा दिए हैं. हिंदी कमेंट्री की दुनिया भी हमेशा सुशील दोषी के शब्दों की कर्जदार रहेगी.
'सीमा रेखा' और 'शंका का गलियारा' जैसे शब्द आज क्रिकेट की दुनिया को सुशील दोषी ने ही दिए. भाषाई समीक्षा में मैं इतना ही कह सकता हूं कि वे जिस अंदाज में कमेंट्री करते हैं उसी शैली में लेखनी भी.
सबसे खास बात कि इसमें अंग्रेजी के शब्दों का बेवजह प्रयोग नहीं है. आजकल के लेखक पाठकों के बीच छा जाने के लिए हिंदी किताबों में अंग्रेजी शब्दों का उपयोग करने से कतई नहीं कतराते, लेकिन यहां दोषी साहब हिंदी की शुद्धता के साथ समझौता किये बिना अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहे, इसलिए ये और भी सराहनीय है.
गुणवत्ता/चित्र?
पेंगुइन ने प्रकाशन में साफ सफाई का पूरा ध्यान रखा है. शब्द स्पष्ट हैं, फॉन्ट साइज आंखों के लिए सहज है. किताब को थोड़ी दूरी से भी पढ़ेंगे तो आंखों पर जोर नहीं पड़ेगा. हर अध्याय के बाद एक खाली पन्ना दिया गया है, पाठक सुविधानुसार इस पन्ने का उपयोग कर सकते हैं.
चित्रों की बात करें तो इसमें अध्यायों के बीच में कोई चित्र नहीं है, लेकिन किताब के बीचों-बीच 4 ग्लॉसी पेज हैं. इनमें हर पन्ने पर 3-3 रंगीन फोटो हैं, जिसमें सुशील दोषी के जीवन भर की बड़ी उपलब्धियों को दर्शाया गया है. इसमें राष्ट्रपति भवन में पद्मश्री लेने से लेकर उनके नाम वाले कमेंटेटर बॉक्स तक कई महत्वपूर्ण फोटो हैं.
अगर क्रिकेट में रुचि नहीं तो?
अब सबसे अहम सवाल ये आता है कि क्या वो लोग इस किताब को खरीदें जिनकी क्रिकेट में रुचि नहीं है? इसके लिए आपके पास 3 विकल्प हैं.
पहला, यदि आप क्रिकेट में दिलचस्पी रखते हैं तो ये किताब आपके पास होनी ही चाहिए.
दूसरा, यदि आपको क्रिकेट में कोई रुचि नहीं, लेकिन कहानियां पसंद हैं, तो भी ये किताब पढ़ने में मजा आएगा.
तीसरा, यदि आपको सिर्फ भाषा में रुचि है, और वाक्यों में मुहावरों के प्रयोग की कला देखना चाहते हैं तो भी इसे खरीद सकते हैं.
लेकिन यदि आप बहुत ज्यादा आंकड़ें खोजना चाहते हैं या उपन्यास जैसा टेस्ट खोज रहे हैं तो आपको थोड़ी निराशा हो सकती है.
कहां कमी रह गई?
4-5 शब्द ऐसे मिले जिनमें साधारण प्रूफ की गलतियां हैं, लेकिन इसमें 1 बड़ी तथ्यात्मक गलती भी मिली. इसमें पृष्ठ संख्या 149 पर लिखा है कि भारत पहले T20 विश्व कप सन 2017 में विजेता बना, यहां 2007 होना चाहिए था.
कई जगहों पर पाठकों को लग सकता है कि किसी-किसी बात को जबरदस्ती खींचा जा रहा है. किताब में किस्से हैं, लेकिन उनमें ज्यादा गहराई नहीं है. खासकर मैदान से जुड़े विवाद और खिलाड़ियों के बीच आपसी टकराव, लड़ाई झगड़े की कहानियां नहीं हैं, जिनमें आमतौर पर पाठक ज्यादा रुचि लेते हैं.
पढ़ने के बाद ऐसा भी लग सकता है कि सुनील गावस्कर का जिक्र ज्यादा हो गया है. लेखक विराट-रोहित जैसे नए खिलाड़ियों के साथ अपने किस्सों का जिक्र करते तो सोने पे सुहागा हो जाता.
लेकिन ध्यान रखना होगा कि आत्मकथा की अपनी सीमाएं हैं. हां, सुशील दोषी मशहूर कमेंटेटर के अलावा एक सफल उद्योगपति भी हैं. चूंकि ये आत्मकथा है, तो इसपर भी थोड़ा और विस्तार से बात हो सकती थी.
खरीदें या नहीं?
पाठक इतना तो संतुष्ट हो सकते हैं कि ये किताब किसी खास उम्र वर्ग के लिए नहीं है, बल्कि उभरते नौजवान से लेकर अनुभवी व्यक्ति तक सबके लिए इसमें कुछ न कुछ है, क्योंकि दोषी साहब ने आधी शताब्दी तक काम करने के बाद इसे लिखा. ये आत्मकथा अपने आप में एक इतिहास भी है, क्योंकि इसने अपने भीतर कई इतिहास सहेज रखे हैं. शायद समय के साथ कुछ यादें धुंधली पड़ जातीं, लेकिन दोषी साहब ने उन्हें फिर से ताजा कर दिया है. क्रिकेट के साथ इसमें कहानी है, भाषा सहज है, उबाऊ नहीं है. जल्दी पढ़ के निपटा सकते हैं. कीमत भी सस्ती है, मात्र 250 रुपयों में इसे आप ऑनलाइन मंगा सकते हैं.
हालांकि, आत्मकथा के साथ कड़वा सत्य ये भी है कि पाठक को यदि व्यक्ति में रुचि नहीं है तो उसके व्यक्तित्व में भी नहीं होती, इसलिए पाठक की पसंद ही सर्वोपरी होनी चाहिए.
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