देश के बेहतरीन फुटबॉलरों में से एक और भारतीय फुटबॉल को उसका स्वर्ण युग (1951-1962) देने में अहम भूमिका निभाने वाले तुलसीदास बलराम (Tulsidas Balaram) का गुरुवार, 16 फरवरी को कोलकाता में 87 साल की उम्र में निधन हो गया. रिपोर्ट के मुताबिक मल्टिपल ऑर्गन फेलियर की वजह से उनकी जान गई. पिछले महीने तबीयत बिगड़ने की वजह से उन्हें कोलकाता के अपोलो हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया था और वो आईसीयू में थे.
चुन्नी गोस्वामी और पीके बनर्जी के साथ, तुलसीदास बलराम को उन तीन स्तंभों में से एक माना जाता है, जिन्होंने 1950 और 60 के दशक में भारतीय फुटबॉल टीम के स्वर्ण युग की शुरुआत की.
बलराम को 1962 में जकार्ता में एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने और रोम 1960 ओलंपिक खेलों में उनके शानदार प्रदर्शन के लिए खास तौर से याद किया जाता है.
फुटबॉल के लिए बचपन से ही दीवाने थे बलराम
तुलसीदास बलराम का जन्म 4 अक्टूबर, 1936 को ब्रिटिश भारत के हैदराबाद राज्य के सिकंदराबाद के पास अम्मुगुड़ा गांव में हुआ था. वो एक गरीब परिवार से ताल्लुक रखते थे, और यही वजह थी कि उन्हें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा.
तुलसीदास बलराम ने एक बार अपने बचपन को याद करते हुए कहा था कि तब फुटबॉल में बहुत कम स्कोप था और मेरी मां चाहती थीं कि मैं पढ़ाई पर ध्यान दूं, ताकि मुझे सरकारी नौकरी मिल सके, लेकिन मैं फुटबॉल के लिए पागल था.
फुटबॉल खेलने के लिए पुलिस वाले से मांगे थे पुराने फटे जूते
जब बलराम ने फुटबॉल खेलने का मन बना लिया तो पता चला कि फुटबॉल के जूते काफी मंहगे हैं. बलराम का परिवार उनके लिए जूते नहीं खरीद सकता था. एक दिन तुलसीदास बलराम से एक मोची ने कहा कि वह सेना या पुलिस के पुराने जूतों से एक जोड़ी बना सकता है.
इसके बाद तुलसीदास बलराम एक ट्रैफिक पुलिस में काम करने वाले कर्मचारी से मिले और उन्होंने उससे पुराने जूते मांगे, लेकिन उसने बलराम को दूर हटने को कहा. बलराम उसके पीछे पड़ गए और आखिरकार पुलिसकर्मी ने बलराम को एक फटा हुआ जूता दे दिया.
इसके बाद तुलसीदास बलराम उस पुराने जूते को लेकर मोची के पास गए, उन्होंने जूते की मरम्मत करवाई और उसे फुटबॉल खेलने लायक बनवाया.
जूते की मरम्मत के लिए मोची ने 2 रूपए मांगे, इसके बाद उन्होंने अपनी मां से कहा कि मुझे किताबों के लिए पैसों की जरूरत है.
फुटबॉल खेलने के लिए जूता तैयार हो जाने के बाद तुलसीदास बलराम ने फुटबॉल खेलना शुरू किया.
फुटबॉल खिलाड़ी के रूप में बलराम का रोमांचक सफर
19 साल की उम्र में तुलसीदास बलराम की मुलाकात भारत के जाने-माने कोच सैयद अब्दुल रहीम से हुई. जब वह सिकंदराबाद में एक स्थानीय टूर्नामेंट में खेल रहे थे. भारतीय फुटबॉल के पिता के रूप में पहचाने जाने वाले, अब्दुल रहीम एक प्रभावशाली कोच थे, जो उस वक्त हैदराबाद पुलिस की ओर से कोचिंग कर रहे थे.
तुलसीदास बलराम की प्रतिभा को पहचानने के बाद, रहीम ने उन्हें 1956 की संतोष ट्रॉफी के लिए हैदराबाद टीम के ट्रायल में भाग लेने के लिए कहा.
इसके बाद तुलसीराम बलराम ने हैदराबाद के लिए खेला और बॉम्बे के खिलाफ फाइनल में भी अच्छा प्रदर्शन किया.
अब्दुल रहीम, तुलसीदास बलराम को मासिक भत्ता भी देते थे ताकि वे अपने गांव से हैदराबाद में प्रैक्टिस करने के लिए एक साइकिल किराए पर ले सकें.
तुलसीदास बलराम अब 20 साल के हो चुके थे और उन्हें ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न में 1956 के ओलंपिक के लिए भारतीय राष्ट्रीय फुटबॉल टीम के लिए चुना गया. अब्दुल रहीम की टीम चौथे स्थान पर रही. ग्रीष्मकालीन खेलों में फुटबॉल में भारत का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था.
तुलसीदास बलराम ने यूगोस्लाविया के खिलाफ सेमीफाइनल में भारत के लिए खेला, जिसमें भारत 4-1 से हार गया. यह मेलबर्न 1956 ओलंपिक में उनकी एकान्त उपस्थिति थी लेकिन उच्चतम स्तर पर फुटबॉल खेलने का अनुभव युवा खिलाड़ी के लिए एक सीखने का अनुभव था.
भारत वापस आने के बाद, तुलसीदास बलराम ने एक और बड़ा कदम उठाया और कोलकाता के दिग्गज 'पूर्वी बंगाल' (East Bengal) में शामिल होने के लिए अपना घर छोड़ दिया. इन वर्षों में, शहर उनका घर बन गया और अपनी जिंदगी के आखिरी दिनों तक वो यहीं रहे.
बलराम, 'ईस्ट बंगाल' के एक हिट खिलाड़ी थे. उन्होंने इस ऐतिहासिक टीम की कप्तानी भी की. उन्होंने 1958 की IFA शील्ड सहित प्रसिद्ध रेड और गोल्ड जर्सी पहनकर कई ट्राफियां जीतीं. उन्होंने बंगाल टीम को 1959, 1960 और 1962 में तीन संतोष ट्रॉफी खिताब दिलाने में भी मदद की.
हालांकि, तुलसीदास बलराम के सबसे अच्छे पल टीम इंडिया की जर्सी में आए. उनके रहते हुए भारतीय टीम ने 1958 में टोक्यो में एशियाई खेलों के सेमीफाइनल में जगह बनाई और 1959 में मलेशिया में आयोजित मर्डेका टूर्नामेंट में भारत के उपविजेता बनने में एक बड़ी भूमिका निभाई.
तुलसीदास बलराम को रोम में 1960 के ओलंपिक के लिए भारतीय टीम के लिए चुना गया और उन्होंने ग्रुप डी के शुरुआती मैच में स्टार-स्टड हंगरी के खिलाफ टूर्नामेंट में भारत का पहला गोल किया.
तुलीदास बलराम ने दूसरे मैच में यूरोपीय दिग्गज फ्रांस के खिलाफ फिर शानदार प्रदर्शन किया.
तुलसीदास बलराम की सबसे बड़ी उपलब्धि 1962 में जकार्ता में हुए एशियाई खेलों में गोल्ड मेडल था. उन्होंने टूर्नामेंट में भारतीय फुटबॉल टीम के लिए हर एक मैच में खेला, जिसमें दो गोल किए, एक थाईलैंड और जापान के खिलाफ.
दुर्भाग्य से यह बलराम के करियर का अंत साबित हुआ क्योंकि इस शानदार स्ट्राइकर को 1963 में 27 साल की उम्र में रिटायर होना पड़ा. यह वो दौर था, जब वो अपने चरम पर पहुंच रहे थे.
फेफड़े की बीमारी से पीड़ित थे तुलसीदास बलराम
तुलसीदास बलराम को प्लुरिसी (Pleurisy) नाम की बीमारी हो गई थी. इसकी वजह से उनके सीने में तेज दर्द और सांस लेने में कठिनाई होती है. ऐसा खासकर दौड़ते वक्त होता था. इस बीमारी ने सीमित चिकित्सा सुविधाओं के कारण बलराम के लिए फुटबॉल खेलना जीवन-जोखिम बना दिया.
तुलसीदास बलराम ने कभी शादी नहीं की क्योंकि वह किसी और पर बोझ नहीं डालना चाहते थे. परिवार का कोई करीबी सदस्य नहीं होने के कारण, बलराम अपने उत्तरपाड़ा स्थित घर में अकेले रहते थे.
फुटबॉल से संन्यास लेने के बाद, बलराम ने सेलेक्टर और यूथ टीमों के कोच के रूप में कार्य किया. वह बासुदेब मंडल, मेहताब हुसैन और संग्राम मुखर्जी जैसे भारत के अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ियों के गुरु रह चुके हैं.
तुलसीदास बलराम के नाम कई कीर्तिमान
1962 के एशियाई खेलों में भारतीय फुटबॉल टीम के साथ स्वर्ण पदक विजेता
1956 के ओलंपिक में भारतीय फुटबॉल टीम के साथ चौथा स्थान. ग्रीष्मकालीन खेलों में भारत का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन
1959 मर्डेका कप में उपविजेता
1960 के ओलंपिक में भारत के तीन में से दो गोल दागे
1962 में अर्जुन पुरस्कार विजेता
संतोष ट्रॉफी विजेता- 1956 (हैदराबाद), 1958, 1959 और 1962 (बंगाल)
आईएफए शील्ड विजेता- 1958 (पूर्वी बंगाल)
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