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Custodial Death In UP: Uttar Pradesh में सबसे ज्यादा हिरासत में मौतें क्यों?

पुलिस कस्टडी में मौतों को लेकर SC कई बार सख्त भी हुआ है और प्रदेश के पुलिस विभाग को दिशा निर्देश भी दिए हैं

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भारत
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9 नवंबर 2021 को उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के कासगंज जिले में एक युवक अल्ताफ की पुलिस कस्टडी में मौत हो जाती है. मृतक के परिजनों ने स्थानीय पुलिस के ऊपर हत्या का आरोप लगाया वही आला अधिकारियों ने पुलिस के बचाव में कहा कि 5 फुट 6 इंच लंबे अल्ताफ ने पुलिस थाने में बनी हवालात में तकरीबन ढाई फुट पर लगे नल की टोटी से लटक कर आत्महत्या कर ली. परिवार द्वारा लगाए जा रहे गंभीर आरोपों पर हालांकि पुलिस ने बाद में मुकदमा जरूर दर्ज कर लिया लेकिन आला अधिकारीयों द्वारा मौत का कारण किसी के गले नहीं उतर रहा था.

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हिरासत में हुई मौत के अगर ताजे आधिकारिक आंकड़ों की बात करें तो पिछले साल पूरे देश में 2544 ऐसे मामले आए जिसमें या तो न्यायिक या पुलिस हिरासत में मौत हुई है. इन आंकड़ों में 501 मामलों के साथ उत्तर प्रदेश पहले नंबर पर है. पुलिस हिरासत में मौतों को लेकर उत्तर प्रदेश पुलिस समय-समय पर सवालों के घेरे में रहती है लेकिन आरोपी पुलिस कर्मियों को अपने विभाग का पूरा संरक्षण रहता है जिसकी वजह से इन मामलों में सही कार्रवाई नहीं हो पाती है.

अक्टूबर 2019 में हापुड़ के छिजारसी टोल प्लाजा के पास से प्रदीप तोमर को हत्या के एक मुकदमे में संदिग्ध मानते हुए स्थानीय पुलिस उठा लेती है. प्रदीप की पुलिस हिरासत में मौत हो जाती है और जब उसका शव परिजनों को दिया जाता है तो उसकी हालत देखकर वह सन्न रह जाते हैं.

पूरी तरीके से काला पड़ चुका प्रदीप का शरीर पुलिसिया बर्बरता की दास्तां सुना रहा था. जिसने भी बर्बरता की उस तस्वीर को देखा वह सहम सा गया. परिवार और गांव वालों के आक्रोश के बीच स्थानीय पुलिस ने अपने महकमे के लोगों पर मुकदमा दर्ज किया.

दो आरोपी पुलिसकर्मियों को गिरफ्तार भी किया गया लेकिन अंत में पुलिस ने अभियुक्तों को अपनी जांच में क्लीन चिट देते हुए अंतिम रिपोर्ट लगा दी. अदालत ने भी उसे स्वीकार कर लिया.

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नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की एक रिपोर्ट के अनुसार 2001 से लेकर 2020 तक पुलिस कस्टडी में 1888 मौतों में 893 पुलिसवालों के खिलाफ मुकदमे दर्ज हुए जिसमें 358 मुकदमों में जांच के दौरान आरोप पत्र दाखिल हुए. इन सब मुकदमों में सिर्फ 26 पुलिस वालों को बाद में सजा हुई. आंकड़ों के हिसाब से पुलिस वालों के खिलाफ मुकदमे तो दर्ज हुए लेकिन न्याय की दहलीज तक पहुंचते-पहुंचते इन्होंने दम तोड़ दिया. अगर एक्सपर्ट्स की मानें तो इसके कई कारण हैं.

पहला कारण पुलिस के खिलाफ पुलिस स्टेशन में दर्ज मुकदमे की जांच पुलिस वाला ही करता है. ऐसे में यह उम्मीद करना की जांच करने वाला पुलिस अधिकारी अपने साथी और आरोपी पुलिसकर्मी के खिलाफ सही जांच और साक्ष्य पेश कर देगा, ये हकीकत से परे है. दूसरा पुलिस कस्टडी में मौत के मामलों में पीड़ित अक्सर ही गरीब तबके से आते हैं जिन पर दबाव बनाकर या पैसे देकर आरोपी पुलिसकर्मियों द्वारा समझौता कर लिया जाता है. बाद में पीड़ित का गरीब परिवार अदालत के चक्कर और कागजी कार्रवाई में वर्षों तक होने वाले खर्च और समस्या को देखते हुए अदालत में अपने बयानों से पलट जाता है.

पुलिस कस्टडी में मौतों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय कई बार सख्त भी हुआ है और प्रदेश के पुलिस विभाग को दिशा निर्देश भी दिए हैं लेकिन इसका कड़ाई से पालन नहीं होता है.

इसी क्रम में सर्वोच्च न्यायालय से निर्देश आया था कि पुलिस थानों में सीसीटीवी लगाए जाएं ताकि पुलिस कस्टडी में मौत जैसे संवेदनशील मामलों में थाने की पुलिस की कार्यशैली पर नजर रखी जा सके. इस निर्देश का उत्तर प्रदेश में अभी तक कड़ाई से पालन नहीं हो पाया है. पुलिस कस्टडी में मौत के दौरान हो रही कई जांचों में जब सीसीटीवी की बात हुई तो स्थानीय पुलिस द्वारा जवाब आया कि या तो सीसीटीवी नहीं लगे हैं या फिर जो लगे हैं वह खराब हैं.

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हर साल कस्टडी में हुई मौतों को लेकर केंद्र सरकार आंकड़े पेश करती है लेकिन न्यायालयों द्वारा दिए गए दिशा निर्देशों के पालन के क्रम में क्या कार्रवाई हुई इसको लेकर बहुत कुछ सामने निकलकर नहीं आता है.

जब कस्टडी में मौत का कोई सनसनीखेज मामला आता है तो पूर्व में अदालतों द्वारा क्या निर्देश दिए गए थे इस पर चर्चा जरूर होती है, लेकिन कोई सार्थक कदम नहीं उठाया जाता है. नतीजा आरोपी पुलिस वालों को क्लीनचिट मिल जाती है और इसकी वजह से पुलिस के हौसले बुलंद रहते हैं और जैसा चाहे जनता के साथ व्यवहार करती है

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