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Uttarakhand Avalanche: कम नहीं पहाड़ों की चुनौती, टास्क फोर्स से करनी होगी तैयारी

उत्तराखंड हिमस्खलन में अब तक पर्वतारोहियों के 26 शव बरामद, जानिए पर्वतारोहण की चुनौतियां पर क्या कहते हैं एक्सपर्ट?

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उत्तरकाशी में द्रौपदी का डांडा-2 पर्वत चोटी के पास हुए हिमस्खलन (Uttarakhand Avalanche) में अब तक 26 शव बरामद हो चुके हैं जबकि 3 पर्वतारोहियों की तलाश अभी भी जारी है. शुक्रवार, 7 अक्टूबर को 4 शवों को डोकरानी बामक एडवांस बेस कैंप से उत्तरकाशी जिला अस्पताल लाया गया, जहां चारों शव का पोस्टमार्टम किया गया. पर्वतारोहण की चुनौतियां किस हद तक खतरनाक होती हैं, इसका उदाहरण सिर्फ यह एक हादसा नहीं है.

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इस हिमस्खलन में उत्तरकाशी के गांव लोन्थरु की पर्वतारोही सविता कंसवाल की भी मृत्यु हो गई है. सविता कंसवाल ने इस साल 12 मई को समुद्र तल से लगभग 8848 मीटर ऊंचे एवरेस्ट शिखर पर पर्वतारोहण किया था, इसके 16 दिन बाद ही 28 मई को उन्होंने समुद्र तल से 8463 मीटर ऊंचे माउंट मकालू शिखर पर भी पर्वतारोहण किया.

तकनीकी रूप से बेहद कठिन माने जाने वाले माउंट मकालु पर एवरेस्ट पर्वतारोहण के 16 दिन के भीतर ही चढ़ जाने की वजह से सविता कंसवाल ने पर्वतारोहण की दुनिया में तहलका मचा दिया था. इससे पहले साल 2019 में सविता कंसवाल समुद्र तल से 7120 मीटर ऊंचे त्रिशूल शिखर पर भी पर्वतारोहण कर चुकी थीं. अभावों के बीच से निकलकर पहाड़ों की रानी बनने की सविता कंसवाल की ये कहानी अद्भुत रही और हमेशा याद की जाएगी.

यहां हम समझने की कोशिश करते हैं कि जलवायु परिवर्तन के इस कठिन समय में पर्वतारोहण जोखिम भरा कैसे बन गया है.

कम नहीं है पर्वतारोहण की चुनौतियां

पर्वतारोहण खेल लगता बड़ा आकर्षक है लेकिन यह बहुत चुनौतीपूर्ण है. पहाड़ चढ़ने के दौरान सबसे ज्यादा मौतें हाइपोथर्मिया की वजह से होती हैं. पिछले साल अक्टूबर में मुंबई के तीन पर्यटकों की हिमाचल प्रदेश में इसी वजह से मौत हो गई थी.

जब शरीर का तापमान तेजी से गिरने लगता है और यह 35 डिग्री या इससे कम हो जाता है तो उसे हाइपोथर्मिया बोला जाता है. इसके शिकार लोगों को अत्यधिक कंपनी महसूस होने लगती है, सोचने की क्षमता पर भी असर पड़ता है.

पर्वतारोहण के दौरान ट्रेनिंग में कमी भी जानलेवा साबित होती है. कई बार अनुभवी प्रशिक्षक भी पर्वतारोहण के दौरान ओवरकॉन्फिडेंस में मौसम का मिजाज समझने में नाकामयाब होते हैं या उसके खतरे को हल्के में लेते हैं और मारे जाते हैं.

पर्वतारोहण में वाइट आउट आम समस्या है, चारों तरफ बर्फ देखने से मार्ग समझने में भ्रम पैदा हो जाता है. कंपास की कुशल जानकारी रखने वाला ही इस समस्या से बच सकता है.

एक्यूट माउंटेन सिकनेस, ट्रैफिक भी समस्या

पर्वतारोहण में ट्रैफिक की समस्या भी आने लगी है साल 2019 में एवरेस्ट में पर्वतारोहण के दौरान यह समस्या लोगों की नजरों में आई थी. सीमित संसाधनों के साथ पहाड़ चढ़े लोगों के लिए ट्रैफिक की वजह से चढ़ाई और मुश्किल बन जाती है.

पर्वतारोहियों के लिए एक्यूट माउंटेन सिकनेस भी एक बड़ी समस्या है. यह एक ऐसी बीमारी है जो आमतौर पर 8000 फीट से अधिक ऊंचाई पर पर्वतारोहियों या यात्रियों को प्रभावित कर सकती है. एक्यूट माउंटेन सिकनेस हवा के दबाव में कमी और ऊंचाई पर कम ऑक्सीजन के स्तर के कारण होती है.

जितनी तेजी से पर्वतारोही ऊंचाई पर चढ़ते हैं, उतनी ही अधिक संभावना है कि वह इसके शिकार होंगे. इसके लक्षणों में उल्टी आना, सिरदर्द, हाथ पैरों में सूजन शामिल हैं.

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पर्वतारोहण की चुनौतियां- क्या कहते हैं एक्सपर्ट?

पर्वतारोहण की चुनौतियों पर बात करते जाने-माने पर्वतारोही सुभाष तराण कहते हैं कि "पर्वतारोहण किसी व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक इच्छाशक्ति की सीमाओं की कसौटी है. यह एक ऐसा खेल है जहां आप अपनी जान को दांव पर लगाते हैं और पुरस्कार में रोमांच के साथ-साथ उसे वापस पाते हैं. पर्वतारोहण एक ऐसा खेल है जिसमें कोई दर्शक नहीं होता, वहां पर्वतारोही को अपनी पीठ खुद ही थपथपानी पड़ती है और खतरों से जूझते हुए आगे बढ़ना होता है."

"पहाड़ की चोटी से जो दृश्य एक पर्वतारोही की आंखें देख सकती हैं, वह दृश्य शब्दों और तस्वीरों में उसका आधा भी नहीं समा पाता. एक पर्वतारोही पर्वतारोहण के दौरान पहाड़ की चोटी ही नहीं चढ़ता, वह उस दौरान उस पूरे क्षेत्र की सामाजिक, ऐतिहासिक और भौगोलिक स्थिति के बारे में जान सकता है. पर्वतारोहण का एक महत्वपूर्ण पक्ष पर्यावरण की वह समझ भी है जो अधिकतर व्यक्तियों में पूरी उम्र नहीं आ पाती."
सुभाष तराण

पर्वतारोहण के दौरान होने वाली दुर्घटनाओं को रोका तो नहीं जा सकता लेकिन बचाव की आधुनिक तकनीकों और जरूरी उपकरणों का इस्तेमाल कर जान माल के नुकसान को कम किया जा सकता है. हिमालय का एक बड़ा भाग भारत में पड़ता है जबकि प्राकृतिक आपदाओं के चलते होने वाली दुर्घटनाओं के लिए हिमालय के पहाड़ी प्रदेशों के पास बचाव हेतु उचित साधन और व्यवस्थाएं नहीं के बराबर हैं. एसडीआरएफ जैसे बचाव दल पहाड़ के निचले क्षेत्रों में तो कामयाब हो सकते हैं लेकिन ऊंचाई वाले क्षेत्रों में, जहां बिना एक्लमटाईजेशन प्रोसेस के एक घंटा रहना भी मुश्किल है. दुर्घटना और खराब मौसम की परिस्थिति में यह बचाव दल कैसे किसी और का बचाव कर सकते हैं. आईटीबीपी और सेना का भी हाल कुछ अलग नहीं है.

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पर्वतारोहण से जुड़े हादसे- विकल्प क्या है?

पर्वतारोहण के दौरान शेरपाओं के भरोसे पहाड़ की चोटियों पर चढ़ने वालों से बेवजह की उम्मीद पालना ठीक नहीं है.

इससे बेहतर है कि हिमालय के इन दुरूह क्षेत्रों में स्वैच्छिक रूप से हाई एल्टिट्यूड में काम करने वाले सेना, अर्ध सैनिक बल, तथा दूसरे सरकारी/अर्द्ध सरकारी विभागों के अलावा स्थानीय युवाओं को लेकर एक ऐसे टास्क फोर्स का गठन किया जाए जो ऐसे समय में तुरंत हरकत में आ जाए.

अभी कुछ दिन पहले मनासलू के सम्मिट कैंप के उपर हुए हिमस्खलन में बहुत से लोग दब गये थे, लेकिन बर्फ का मिजाज समझने वाले स्थानीय शेरपाओं ने बर्फ में दबे ऐसे बहुत से लोगों की जान बचाई, जिनका बचना लगभग असंभव बताया जा रहा था. आप अगर बर्फीले क्षेत्रों में रहने वाले लोगों से पूछेंगे कि बर्फीली पहाड़ी पर कब चढ़ना है, वह आपको बर्फ में हाथ लगाकर ही उसका मिजाज बता देंगे.
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भारत में साहसिक खेलों के विकास पर झटका है यह हिमस्खलन

भारत में साहसिक खेल बहुत कम खेले जाते हैं. कुछ खेलों के संसाधन बहुत महंगे होते हैं और कुछ खेल सस्ते संसाधन के बावजूद लोकप्रिय नही हैं. साइकिल रेसिंग, कार रेसिंग, पर्वतारोहण आदि खेलों को हम साहसिक खेलों में शामिल कर सकते हैं.

जलवायु परिवर्तन के इस कठिन समय में पर्वतारोहण अब जोखिम भरा बन गया है. भारत में साहसिक खेलों के विकास पर इस हिमस्खलन की खबर से रोक लगेगी और अभिभावक अपने बच्चों को ऐसे खेलों में भेजने से डरेंगे.

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