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वसुंधरा राजे को झुकना पड़ा,प्रेस की आजादी पर पाबंदी का विधेयक वापस

विधेयक के वापस लेने पर कांग्रेस ने जताई खुशी

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भारी आलोचनाओं और विरोध के बाद आखिरकार राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार को झुकना पड़ा है. विधानसभा में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने विवादास्पद ‘दंड विधियां संशोधन विधेयक’ को सदन की प्रवर समिति से वापस लेने की घोषणा की है. इस विधेयक को लेकर विपक्ष समेत कई जनसंगठनों ने सरकार की कड़ी आलोचना की थी.

सदन में वसुंधरा राजे ने बजट पेश करने के दौरान कहा था कि जिस विधेयक को हमने प्रवर समिति को भेजा और अध्यादेश की अवधि समाप्त हो गई. फिर भी हम इसे प्रवर समिति से वापस ले रहे हैं. राजस्थान सरकार ने 6 सितंबर 2017 को यह अध्यादेश लाई थी और इसे 23 अक्टूबर 2017 को विधेयक विधानसभा में पेश किया गया.

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विपक्ष ने बताया था “काला कानून”

वसुंधरा राजे सरकार 'दंड विधियां संशोधन विधेयक, 2017' और 'सीआरपीसी की दंड प्रक्रिया संहिता, 2017' पेश किया था. सरकार के इस विधेयक को विपक्ष ने ‘काला कानून’ करार दिया था.

वसुंधरा सरकार के विधेयक पेश करने के बाद कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष सचिन पालट ने सोशल मीडिया पर सरकार के इस कदम का जमकर विरोध किया. उन्होंने लिखा, ‘राज्य में अंधा काला कानून लाने वाली बीजेपी सरकार ने आज शांति से प्रदर्शन कर रहे वरिष्ठ नेतागण और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया. अध्यादेश के माध्यम से अफसर, सांसद, विधायक आदि के खिलाफ शिकायत दर्ज करना आसान नहीं रहेगा और प्रेस या सोशल मीडिया के माध्यम से उठाया नहीं जायेगा. यही नहीं, उल्लंघन करने पर सजा का प्रावधान भी कर दिया गया है.

क्यों उठा था वसुंधरा सरकार के विधेयक पर विवाद?

वसुंधरा सरकार के विधेयक में राज्य के सेवानिवृत्त और सेवारत न्यायाधीशों, मजिस्ट्रेटों और लोकसेवकों के खिलाफ ड्यूटी के दौरान किसी कार्रवाई को लेकर सरकार की पूर्व अनुमति के बिना उन्हें जांच से संरक्षण देने की बात की गई थी.

यह विधेयक बिना अनुमति के ऐसे मामलों की मीडिया रिपोर्टिंग पर भी रोक लगाता था. विधेयक के अनुसार, मीडिया अगर सरकार की ओर से जांच के आदेश देने से पहले इनमें से किसी के नामों को प्रकाशित करता है, तो उसके लिए 2 साल की सजा का प्रावधान था.

जज, मजिस्ट्रेट और लोक सेवक के खिलाफ केस दर्ज कराने के लिए सरकार से अभियोजन स्वीकृति लेना जरूरी था. 180 दिन में सरकार या तो अभियोजन स्वीकृति देगी या यह बताएगी कि मामला दर्ज होने योग्य है या नहीं. कोर्ट भी इस्तगासे और प्रसंज्ञान से अनुसंधान का आदेश नहीं दे सकता था. पूर्व में गजटेड अफसर को लोक सेवक माना जाता था लेकिन सरकार ने संशोधित बिल में इस दायरे को बढ़ा दिया था.

भारी विरोध के चलते 120 दिनों के भीतर इस विधेयक को सरकार ने वापस ले लिया है. विपक्षी दल इस बिल को काला कानून बता रहे थे.

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