बीजेपी (BJP) के केंद्रीय नेतृत्व ने हाल ही में दो ऐसे अहम फैसले लिए जिसने महाराष्ट्र (Maharashtra) प्रदेश में हलचल पैदा कर दी है. राज्य के पूर्व मंत्री और वरिष्ठ नेता विनोद तावड़े को राष्ट्रीय महामंत्री बनाया गया है और पूर्व ऊर्जा मंत्री चंद्रशेखर बावनकुले को नागपुर विधान परिषद की सीट पर प्रत्याशी घोषित कर दिया है. इसे पूर्व सीएम और मौजूदा नेता प्रतिपक्ष देवेंद्र फडणवीस को केंद्र से दिया गया संकेत समझा जा रहा है साथ ही पार्टी में पिछले दो सालों से राजनीतिक वनवास झेल रहे नेताओं की वापसी के रूप में देखा जा रहा है. बड़ा सवाल ये है कि आखिर फडणवीस का पत्ता क्यों काटा जा रहा है?
फडणवीस के लिए क्यों माना जा रहा है संकेत?
महाराष्ट्र की महाविकास अघाड़ी सरकार को दो साल पूरे हो गए हैं. सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद बीजेपी को सत्ता से वंचित रहना पड़ा. ऐसे में महाराष्ट्र प्रदेश बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता का मानना है कि केंद्रीय नेतृत्व ने राज्य में देवेंद्र फडणवीस को पूरी छूट दी. लेकिन कोई ठोस परिणाम नहीं आ रहा जिस वजह से पार्टी नए विकल्प टटोलने की तैयारी में दिख रही है.
2019 में फडणवीस के नेतृत्व में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव लड़े गए. जिसमें बीजेपी को शिवसेना के साथ गठबंधन में लड़ने के बावजूद 17 सीटों का नुकसान हुआ. 2014 में बीजेपी ने 122 सीटें जीती थी.
2019 विधानसभा के चुनाव नतीजों के बाद मुख्यमंत्री पद को लेकर शिवसेना के साथ हुए तनावपूर्ण संबंधों को संभालने में भी फडणवीस विफल रहे. शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस ने एक साथ आकर बीजेपी को बड़ा झटका दे दिया.एनसीपी नेता अजित पवार के सहारे सत्ता हासिल करने का प्रयास हुआ. रातोंरात ऑपरेशन को अंजाम दिया गया. पूरे देश में खलबली मच गई. लेकिन ये सरकार भी 80 घंटों से ज्यादा नहीं टिक पाई. इससे बीजेपी के इमेज को काफी नुकसान पहुंचा और सरकार भी नहीं रह पाई.
एमवीए सरकार को गिराने के लिए ऑपरेशन कमल को एक्टिव किया गया. कई विधायकों को लेकर सत्ता में वापस आने की कोशिशें हुई. लेकिन इस बार भी आंकड़ों में बीजेपी मात खा गई.
पार्टी में अंदरूनी गुटबाजी
वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार विवेक भावसार का मानना है कि पार्टी की कमान फडणवीस के हाथों में जाने के बाद कई कद्दावर नेताओं को दरकिनार करने का सिलसिला शुरू हुआ. महाराष्ट्र बीजेपी में शुरू से गोपीनाथ मुंडे और नितिन गडकरी के दो प्रमुख गुट सक्रिय थे. लेकिन सीएम बनते ही फडणवीस ने अपने प्रातिद्वद्वियों के पंख कतरे. मुंडे गुट के एकनाथ खडसे और पंकजा मुंडे ने कई बार पार्टी के खिलाफ नाराजगी जताई. जिसका भुगतान भी उनको करना पड़ा. जबकि गडकरी समर्थक विनोद तावड़े, चंद्रशेखर बावनकुले और आशीष शेलार को साइडलाइन किया जाने लगा,
इसके अलावा दूसरी पार्टी से आए नेताओं को 'टीम देवेंद्र' के नाम से जाना जाने लगा. जिसमें प्रसाद लाड़ को विधानपरिषद की सीट मिली, प्रवीण दरेकर को परिषद का नेता प्रतिपक्ष बनाया गया, नारायण राणे केंद्रीय मंत्री बने तो वहीं हर्षवर्धन पाटिल, राधाकृष्ण विखे पाटिल, धनंजय महाडिक, जयकुमार गोर जैसे शुगर फैक्टरी चलानेवाले नेता फड़नवीस के करीबी हो गए. इससे पार्टी के पुराने नेताओं में नाराजगी चल रही है.
आगामी चुनाव और कास्ट फैक्टर
अगले साल की शुरुआत में महाराष्ट्र में म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन और जिला परिषद के चुनाव होने हैं. इसे महाराष्ट्र के मिनी विधानसभा चुनाव के रूप में देखा जा रहा है. लोगों में एमवीए सरकार के खिलाफ वातावरण बनाने में सफलता नहीं मिली तो बीजेपी को करारी हार का सामना करना पड़ सकता है.
साथ ही महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण और ओबीसी आरक्षण रद्द होने से सरकार के खिलाफ रोष है. ऐसे में मराठा समाज को लुभाने के लिए तावड़े का कार्ड और ओबीसी के लिए बावनकुले को मौका दिए जाने की चर्चा शुरू है. हाल ही में नागपुर में हुए जिला परिषद चुनावों में बीजेपी को कांग्रेस ने मात दी है.
कौन हैं तावड़े और बावनकुले ?
दरअसल, 2019 की विधानसभा चुनाव में तावड़े और बावनकुले का पत्ता कट गया था. इस निर्णय ने कई राजनीतिक विश्लेषकों को चौंका दिया था. विनोद तावड़े अपने छात्र जीवन से ही पार्टी संगठन में सक्रीय थे. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के महासचिव पद से लेकर मुंबई अध्यक्ष और विधान परिषद के वीपक्ष के नेता के तौर पर उन्होंने कई जिम्मेदारियां संभाली है. बावजूद उसके फडणवीस सरकार के कार्यकाल में उन्हें दूसरे और तीसरे पंक्ति का मंत्रिपद दिया गया.
तो वहीं बावनकुले ने 1990 के दशक में बीजेपी के साथ अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत की थी. नितिन गडकरी के कट्टर समर्थक की उनकी पहचान रही है. नागपुर के जिला इकाई के अध्यक्ष, राज्य के सचिव और फिर विदर्भ के प्रभारी के तौर पर जिम्मेदारियां संभाली हैं. बावनकुले ओबीसी समुदाय के तेली समाज में काफी लोकप्रिय है. 2019 में बावनकुले को चुनाव टिकट ना मिलने पर बीजेपी को पूर्व विदर्भ में करीब 10 से 11 सीटों पर नुकसान झेलना पड़ा था.
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