ADVERTISEMENTREMOVE AD

क्या मुस्लिम परिवार की बेटियां पूरी संपत्ति की मालिक बन सकती हैं?

Kerala Muslim Couple Re Register Marriage: इस्लामिक कानून में बेटियों के लिए उत्तराधिकार के क्या नियम हैं?

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

केरल के एक मुस्लिम कपल ने, जिनकी सिर्फ बेटियां हैं, अपनी शादी को स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत री-रजिस्टर किया है ताकि अपनी बेटियों के प्रॉपर्टी के अधिकारों को बचा सकें. इस खबर के आने के बाद से ही इस्लामिक कानून की पेचीदगियों पर सवालिया निशान लगाए जाने लगे, क्यों ऐसा हुआ? इस्लामिक कानून में बेटियों के लिए उत्तराधिकार के क्या नियम हैं? इन सभी सवालों का जवाब इस आर्टिकल में आपको मिलेगा. भारतीय मुसलमानों की एक बड़ी आबादी से जुड़े उत्तराधिकार कानूनों को लेकर मौजूदा नासमझी और अति सरलीकरण पर भी रौशनी डाली जाएगी.

इस खबर ने कई सवालों को जन्म दिया. सबसे पहला, और बड़ा सवाल जो लोगों के लिए समझना मुश्किल है, वह यह है कि पहली नजर में, पर्सनल लॉ की कई अजीब व्यवस्थाओं के पीछे क्या तर्क हैं? दूसरा सवाल, कि इस्लामी कानून के भीतर ऐसे हालात से कैसे निपटा जाए? क्या देश के सामान्य कानून के तहत शादी को रजिस्टर/री-रजिस्टर करना ही ऐसे हालात से निपटने का इकलौता रास्ता है?
ADVERTISEMENTREMOVE AD

मामला क्या है?

भारत में मुसलमानों के उत्तराधिकार के विषय पर मुसलिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लिकेशन एक्ट, 1973 लागू होता है. एक्ट का सेक्शन 2 साफ तौर से कहता है कि, “जिन मामलों में पक्ष मुसलमान हैं, वहां फैसला मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) लागू होगा.” चूंकि उत्तराधिकार, गार्जियनशिप और कस्टडी के कानूनी मुद्दों से ही शादी का मुद्दा भी जुड़ा हुआ है, इसलिए 1973 के कानून के तहत ही उसे रजिस्टर या बकायदा मुकम्मल किया जाता है. जैसे अगर दो मुसलमान स्पेशल मैरिज एक्ट, 1954 के तहत अपनी शादी को रजिस्टर करने का फैसला करते हैं, जो देश का एक सामान्य कानून है, तो उन्हें इसका हक है. ऐसा करने पर, उत्तराधिकार जैसे मुद्दों पर लागू होने वाला कानून देश का सामान्य कानून, यानी भारतीय उत्तराधिकार एक्ट, 1925 लागू होगा.

इस्लामिक उत्तराधिकार कानून के अनुसार अगर किसी मर्द की सिर्फ बेटियां हैं, तो उन्हें पिता की प्रॉपर्टी का सिर्फ दो तिहाई हिस्सा मिलेगा, बाकी का एक तिहाई बेटियों के चाचा या ताऊ (पिता की तरफ के मर्दों को) को मिलेगा. ऐसे हालात में सिर्फ मरहूम के भाई ही नहीं, बहनें भी बची हुई प्रॉपर्टी में हिस्सेदार होंगी. इस आर्टिकल में आगे इस सिद्धांत पर बात की गई है.

मुसलिम कानून में विकल्प

उत्तराधिकार से जुड़े कानून दो मुद्दों पर काम करते हैं, विरासत और वसीयत. इस्लामी उत्तराधिकार कानून के तहत कोई व्यक्ति अपनी प्रॉपर्टी को वसीयत के जरिए ट्रांसफर कर सकता है, जो उस व्यक्ति की मौत के बाद प्रभावी होता है. कानूनी उत्तराधिकारों के हकों की हिफाजत के लिए शुद्ध संपत्ति के एक तिहाई हिस्से से ज्यादा वसीयत के जरिए ट्रांसफर नहीं किया जा सकता.

वसीयत न होने पर प्रॉपर्टी उत्तराधिकार के कानून के मुताबिक, ट्रांसफर होती है. हालांकि प्रॉपर्टी के ट्रांसफर का एक उसूल, जो मौजूदा बहस के लिहाज से मौजूं है, वह है हिबा का उसूल. प्रॉपर्टी का मालिक, किसी को भी अपनी जिंदगी के दौरान अपनी प्रॉपर्टी का हिबा कर सकता है, और इसमें प्रॉपर्टी की मात्रा कुछ भी हो सकती है. यानी, आसान शब्दों में यह ऐसा ट्रांसफर है जिस पर कोई पाबंदी नहीं है, और यह पूरी संपत्ति भी हो सकती है. इस उसूल को भारतीय कानूनी प्रणाली में मान्यता मिली है. जिसे भारतीय संपत्ति कानून में ‘उपहार’ की अवधारणा कहा जाता है. यह हिबा की ही तरह है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

ऐसा देखा गया है कि कुछ परिवारों में, कई कारणों से, सिर्फ बेटियों वाले मुस्लिम पिता अपनी सारी प्रॉपर्टी को अपनी बेटियों को देना चाहें-उसके बचे हुए हिस्से को अपने भाई-बहनों को दिए बिना. इसका इस्लामी उत्तराधिकार कानून में यह विकल्प है कि माता-पिता अपनी जिंदगी में अपनी बेटियों को पूरी प्रॉपर्टी तोहफे में दे सकते हैं. ऐसे कई मामलों में माता-पिता अपने हितों की भी रक्षा करते हैं. वे गिफ्ट डीड में लिखकर रखते हैं कि प्रॉपर्टी में उनका और उनके स्पाउस का लाइफ इंटरेस्ट रहेगा. यानी जिंदगी रहते वह और उनका स्पाउस प्रॉपर्टी का आनंद लेता रहेगा. अगर किसी एक बेटी को ज्यादा वित्तीय मदद की जरूरत है तो माता-पिता उसे प्रॉपर्टी में बड़ा हिस्सा दे सकते हैं.

इस्लामी स्कॉलर मुफ्ती तबरेज आलम कासमी के अनुसार, बेटियों के बीच संपत्ति का असमान वितरण, शरिया के सिद्धांतों के मुताबिक नहीं है, जब तक कि किसी एक बेटी को खास देखभाल या मदद की जरूरत न हो. हालांकि, व्यावहारिक रूप से अंतिम फैसला, तोहफा देने वाले माता-पिता पर निर्भर करता है.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

इस्लामी कानून में स्थिति

इस्लामी कानून में उत्तराधिकार कानून की एक व्यापक व्यवस्था है. इस्लामी उत्तराधिकार कानून हिस्सेदारों यानी शेयरर्स और बकायों यानी रेसिड्यूरीज में बंटा हुआ है. शेयरर्स ऐसे उत्तराधिकारी होते हैं जिन्हें प्रॉपर्टी का एक निश्चित प्रतिशत मिलता है. बकाया हिस्सा, रेसिड्यूरीज को जाता है.

जैसा कि शब्दों से ही जाहिर होता है, मुख्य हिस्सेदार में अमुख्य हिस्सेदार शामिल नहीं होते. मुख्य हिस्सेदारों में तीन महिलाएं (बीवी, मां, बेटी) और दो पुरुष (पति और पिता) सहित पांच रिश्ते हैं. अमुख्य हिस्सेदार सात हैं, जिनमें दो पुरुष (दादा सहित) और पांच महिलाएं (बहन, पोती और दादी सहित). मैं यहां यूटेराइन यानी गर्भाशय से रिश्ते (एक मां, पर अलग-अलग पिता), रक्त संबंध और दूर के संबंधों का जिक्र नहीं कर रही ताकि समझने में आसानी हो. इसके अलावा ऐसे मामले दुर्लभ भी होते हैं.

यहां यह भी साफ किया जाता है कि सिर्फ बेटियों वाले मरहूम पिता की प्रॉपर्टी के ट्रांसफर का मौजूदा विषय सुन्नी मत के लिहाज से ही पेश किया जा रहा है.

तर्क क्या है

कानून और समाज आपस में जुड़े हुए हैं. कानून अक्सर उस समाज का आइना होता है, जिसमें हम रहते हैं. ऐसी दुनिया मौजूद है जिसमें मर्दों से यह उम्मीद की जाती है कि वे औरतों को सिर्फ आर्थिक ही नहीं, सामाजिक संरक्षण भी देंगे. यह पढ़कर बेचैन मत होइए. इसी दुनिया में आप और मैं रहते हैं. इस बारे में आकदमिक चर्चा से एकदम परे कि दुनिया कैसी होनी चाहिए. इन्हीं सामाजिक सच्चाइयों के इर्द-गिर्द, ज्यादातर कानूनी प्रणालियां घूमती हैं, खासतौर से व्यक्तिगत और स्वदेसी. यहां तक कि हमारी आधुनिक कानूनी व्यवस्था में भी पुरुष रिश्तेदारों की तरफ से भरण पोषण की अवधारणा मौजूद है.

एक पुरुष तलाक के बाद अपनी बीवी का आर्थिक भरण पोषण करने के लिए कानूनी रूप से बाध्य है. ज्यादातर मामलों में एक पिता कानूनी रूप से अपनी बेटियों का तब तक भरण पोषण करने को बाध्य है, जब तक कि उनकी शादी नहीं हो जाती. पुरुषों को महिलाओं पर जो जैविक और सामाजिक विशेषाधिकार मिला हुआ है, उसके नतीजे के तौर पर ही उस पर यह जिम्मेदारी आ जाती है और यही अक्सर इन कानूनों में नजर आता है.

इसी सामाजिक समझदारी के चलते इस्लामिक परंपरा औरतों पर यह दबाव नहीं बनातीं (आमतौर पर) कि वे परिवार चलाने की वित्तीय जिम्मेदारी निभाएं. यह उस हद तक है कि अगर महिला अपने पति से ज्यादा कमाती है, तो भी पति, इस्लामी रिवाजों के हिसाब से, उसकी आय से हिस्सा नहीं मांग सकता. उसे पति से साझा करना, बीवी का विशेषाधिकार है. मुस्लिम शादी की यह पूर्व शर्त भी होती है कि पति को अपनी पत्नी को मेहर देना होगा. कुल मिलाकर, एक पुरुष को उसके सामाजिक विशेषाधिकार की याद दिलाई जाती है कि उसे जिंदगी भर औरतों के प्रति ज्यादा जिम्मेदार होना है

महिलाओं का कोई वित्तीय दायित्व नहीं होता, और उन्हें इस्लामी उत्तराधिकार कानून के तहत निर्धारित हिस्सा मिलता है. कई जगहों पर तो वे रेसिड्यूरी शेयर भी होती हैं (मतलब बकाया हिस्से में भी उनका हिस्सा होता है). इस्लामी उत्तराधिकार कानून के सिद्धांतों के तहत वित्तीय जिम्मेदारियों के हिसाब से प्रॉपर्टी का वितरण होता है. जहां हिस्सा कोई पारस्परिक वित्तीय दायित्व नहीं बढ़ाता, वहां पुरुषों और महिलाओं का हिस्सा बराबर होता है. उदाहरण के लिए मरहूम, जिसके बच्चे हैं, की प्रॉपर्टी में पिता और मां का हिस्सा बराबर होता है.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

परिस्थितियों के हिसाब से नियम

मरहूम पिता की प्रॉपर्टी में बेटी (या बेटियों) का हिस्सा पुरुष रिश्तेदारों (दादा और चाचा-ताऊ) से ज्यादा होता है. चूंकि माता-पिता की वित्तीय जिम्मेदारी, और अगर पिता की मौत हो जाती है, तो माता और बहनों की जिम्मेदारी भाई पर होती है, इसलिए पारस्परिक वित्तीय अधिकारों का तर्क समझ आता है.

अगर महिला के पति की मृत्यु हो जाती है और वह शादी नहीं करती या अपने पति को तलाक दे देती है तो उसकी वित्तीय जिम्मेदारी उसके पिता या बेटे (या बेटों) या भाई (या भाइयों) पर आ जाती है.

यह सिद्धांत सीआरपीसी के सेक्शन 125 से अलग है जिसमें जब किसी महिला की शादी हो जाती है तो उसका पिता उसके भरण पोषण के लिए वित्तीय रूप से जिम्मेदार नहीं होता. यह जिम्मेदारी स्थायी रूप से उसके पति पर आ जाती. उसका तलाक होने के बावजूद पति की ही यह जिम्मेदारी रहती है, जब तक कि वह दूसरी शादी न कर ले.

इसी तरह अगर पिता की मौत हो जाती है, और उसके बच्चे और बीवी जिंदा रहते हैं तो उसकी बेटियों और बीवी की जिम्मेदारी बेटों की होती है, अगर मरहूम पिता का बेटा हो. अगर मरहूम पिता की सिर्फ बेटियां होती हैं तो पिता के भाइयों को यह जिम्मेदार बनती है (अगर दादा जिंदा नहीं होते).

बीवी की वित्तीय जिम्मेदारी उसके पिता की होती है, और अगर पिता जिंदा नहीं होता तो उसके भाइयों की. ऐसी स्थिति में प्रॉपर्टी का 1/2 (अगर एक बेटी होती है) या 2/3 (अगर एक से ज्यादा बेटियां होती हैं) हिस्सा बेटियों को मिल जाएगा. 1/8 हिस्सा बीवी के नाम होगा. बकाया हिस्सा मरहूम के भाई-बहनों के नाम होगा. मरहूम की बीवी अपने माता-पिता की प्रॉपर्टी की भी हकदार होगी.

दिलचस्प बात यह है कि अगर कोई व्यक्ति शरीयत कानून की बजाय भारतीय उत्तराधिकार कानून को चुनता है तो इसका उसके अपने हिस्सों और रिश्तेदारों से उसकी बेटियों के हिस्से पर क्या असर होगा, यह देखने जैसी बात होगी. क्योंकि बाकी के रिश्तेदार तो अब भी इस्लामी उत्तराधिकार कानून के तहत आते होंगे.

(लेखिका दिल्ली में रहने वाली वकील हैं. उनका ईमेल आइडी है, advnabeelajamil@gmail.com. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×