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'भारतीय राष्ट्रवाद' सत्ता का हथियार? राष्ट्रवाद की बुनियादी परिभाषाओं का संकलन

Book Review: इस किताब को पढ़ने से दिमाग में कई ऐसे अहम सवाल पैदा होते हैं, जो लोकतांत्रिक देश के लिए बेहद जरूरी हैं.

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मौजूदा वक्त के हिंदुस्तान में हर कोने से लगभग हर रोज ऐसी आवाजें आ ही जाती हैं, जो देश के नागरिकों को, खासतौर से एक खास तहजीब को मानने वाले लोगों को अपनी देशभक्ति और राष्ट्रप्रेम साबित करने की जिद करती हैं. 'भारतीय राष्ट्रवाद: एक अनिवार्य पाठ' (Bhartiya Rashtravad: Ek Anivarya Paath) नाम की यह किताब हमें फिर से अपने स्वतंत्रता सेनानियों और उन राष्ट्रवादियों के विचारों के समंदर में गोता लगाने की ओर इशारा करती है, जिन्होंने हिंदुस्तान को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराया और भारतीय राष्ट्रवाद (Indian Nationalism) की बुनियाद रखी.

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किताब: भारतीय राष्ट्रवाद: एक अनिवार्य पाठ

संपादक: एस. इरफान हबीब

प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन

कीमत: 399 रूपए

पेज: 339

'भारतीय राष्ट्रवाद: एक अनिवार्य पाठ' एस इरफान हबीब द्वारा संपादित अंग्रेजी भाषा में 2017 में Aleph Book Company प्रकाशन से पब्लिश हुई किताब Indian Nationalism: The Essential Writings का हिंदी अनुवाद है. अनुवादकों में प्रभात सिंह, जितेंद्र कुमार, अभिषेक श्रीवास्तव, अशोक कुमार पांडेय, अर्जुमंद आरा और श्रीप्रकाश के नाम शामिल हैं.

Book Review: इस किताब को पढ़ने से दिमाग में कई ऐसे अहम सवाल पैदा होते हैं, जो लोकतांत्रिक देश के लिए बेहद जरूरी हैं.

किताब का कवर

(फोटो- राजकमल प्रकाशन)

किताब की फिजिकल टेस्ट की बात करें तो इसके फ्रंट कवर पेज पर सबसे ऊपर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का एक कथन लिखा हुआ है- "राष्ट्रवाद के लिए घृणा जरूरी है क्या?" इसके नीचे किताब का टाइटल और संपादक का नाम दिया गया है. इसके बाद निचले हिस्से में उन सभी लेखकों/विचारकों ने नाम लिखे गए हैं, जिनके विचारों को किताब में शामिल किया गया है.

किताब के पिछले आवरण पर लोकतंत्र और मौजूदा लोकतंत्र से जुड़े कुछ सवाल और विचार लिखा गया है. इसके अलावा ये भी बताया गया है कि ये किताब हमें क्या बताती है.

किताब में कैसे और किसके विचार शामिल हैं?

इस किताब में 13 तरह के विचारों शामिल किया गया है, जिसमें कुल 23 ऐसे व्यक्तित्वों (लेखकों/विचारकों) के विचार हैं, जिन्होंने हिंदुस्तान की बुनियाद में अपना अहम योगदान दिया है. किताब के संपादक एस इरफान हबीब ने महादेव गोविंद रानाडे, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, बिपिन चंद्र पाल, श्री अरबिन्दो, अल्लामा इकबाल, मौलाना हुसैन अहमद मदनी, रवींद्रनाथ टैगोर, सरोजिनी नायडू, प्रफुल्ल चंद्र राय, महात्मा गांधी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, जवाहरलाल नेहरू, बी.आर.अंबेडकर, सी.राजगोपालाचारी, सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह, एम.एन रॉय, मौलाना अबुल कलाम आजाद, खान अब्दुल गफ्फार खान, ख्वाजा अहमद अब्बास और जय प्रकाश नारायण के द्वारा राष्ट्रवाद पर दिए गए विचार को संकलित किया है.

गौर करने वाली बात ये है कि जिन लोगों के विचारों को इसमें शामिल किया गया है, उनका बैकग्राउंड एक-दूसरे से अलग है. उनके विचार अलग हैं लेकिन जब देश अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहा था, तो इन सभी व्यक्तित्वों का मकसद एक ही था, विचार भले ही अलग थे.

वीडी सावरकर के विचार क्यों नहीं शामिल किया गया?

भारत के क्रांतिकारियों में गिने जाने वाले विनायक दामोदर सावरकर आए दिन सुर्खियों में रहते हैं. राष्ट्रवाद पर उन्होंने भी अपने कुछ विचार दुनिया के सामने रखे थे लेकिन इस संकलन में विचारों को नहीं शामिल किया गया है. किताब के संपादक ने किताब के अंदर ही इसकी वजह भी बताई है.

एस. इरफान हबीब कहते हैं कि सावरकर पहले क्रांतिकारी थे लेकिन बाद में उनकी राजनीति बिल्कुल बदल गई थी. उनके हिंदू राष्ट्रवाद में दूसरे धर्मों के लिए नफरत पैदा हो गई थी.

इसके अलावा किताब में कई अन्य वजहों का भी जिक्र किया गया है, जिसको जानने के लिए किताब पढ़नी पड़ेगी.

'राष्‍ट्रवाद' जैसे सीरियस टॉपिक का संकलन

'राष्‍ट्रवाद' एक बहुत ही सीरियस टॉपिक है, इसे यह किताब (भारतीय राष्ट्रवाद: एक अनिवार्य पाठ) बेहद ही सरल अल्फाज और विचारों से परिभाषित करती है. मौजूदा दौर के तथाकथित राष्ट्रवाद और राष्ट्रवादी विचारों से अलग इस किताब के लेख हमें उस दौर में ले जाते हैं, जब हमारे भारतीय राष्ट्रवाद और लोकतंत्र की पैदाइश हुई थी.

यह किताब मौजूदा दौर में थोपे जा रहे तथाकथित राष्ट्रवाद के सामने उस वक्त के राष्ट्रवाद को समझाती है, जब हमारे देश के राजनेताओं और विचारकों ने भारत को अपने सच्चे राष्ट्रवादी विचारों से सींचा और हिंदुस्तान को 'हिंदुस्तान' बनाया.

किताब के संपादक एस. इरफान हबीब का मानना है कि

मौजूदा वक्त में इस किताब में संकलित किए गए विचारों को पढ़ना, इस पर अमल करना और लोगों में इसको प्रमोट करना बेहद जरूरी हैं.
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इस किताब को पढ़ने पर पिछले दिनों राजकमल प्रकाशन से ही प्रकाशित हुई, लेखक रविकांत द्वारा संपादित किताब 'आज के आईने में राष्ट्रवाद' की याद आती है. उसमें मौजूदा भारत के कई विचारकों के लेखों और विचारों को जगह दी गई है.

आलोचकों का मानना है कि मौजूदा वक्त में राष्ट्रवाद की एक नई परिभाषा गढ़ी जा रहा है. कई उसे धर्म से जोड़कर देखते हैं. लेकिन दूसरी तरफ एस इरफान हबीब द्वारा पेश किए गए इस संकलन में हर धर्म से जुड़े लोगों के राष्ट्रवादी विचार हैं और हर पहलू से राष्ट्रवाद को परिभाषित किया गया है.

किताब में राष्ट्रवाद की कैसी परिभाषाएं शामिल की गई हैं?

पूरी तरह से राष्ट्रवाद पर केंद्रित इस किताब में कुल 13 दृष्टि से इसकी परिभाषाएं शामिल की गई हैं, जो इस तरह से हैं.

  1. राष्ट्र और संस्कृति की प्रारंभिक उदार दृष्टि

  2. धर्म-केंद्रित राष्ट्रवाद

  3. विश्वबंधुत्व का नजरिया और राष्ट्रवाद

  4. समावेशा राष्ट्रवाद और समन्वयवादी संस्कृति

  5. समानुभूति और राष्ट्रवाद

  6. विखंडनकारी ताकतों का मुकाबला और राष्ट्र निर्माण

  7. राष्ट्रवाद और संस्कृति की एक सारग्राही दृष्टि

  8. राष्ट्रवाद परिभाषित

  9. संस्कृति और राष्ट्रवाद का उदार दक्षिणपंथी नजरिया

  10. राष्ट्रवाद की क्रांतिकारी दृष्टि

  11. अविभाज्य राष्ट्रवाद

  12. एकीकृत राष्ट्रवाद

  13. राष्ट्र और राष्ट्रीयता परिभाषित

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भारत का बुनियादी राष्ट्रवाद

इस किताब में ये भी बताया गया है कि भारत में राष्ट्रवाद या भारतीय राष्ट्रवाद की शुरुआत कब, कहां से शुरू हुई, किस तरह से भारत का राष्ट्रवाद यूरोप के राष्ट्रवाद से अलग है और अंग्रेजों की हुकूमत के दौर में राष्ट्रवाद किस तरह से उभरा और किस तरह से इसका दायरा बढ़ता गया. यह दायरा बढ़ते-बढ़ते बगावत और अवज्ञा के आंदोलनों से होते हुए राष्ट्र निर्माण के आंदलोन का रूप किस तरह बन गया.

किताब में राष्ट्रवाद को लेकर सिर्फ ऐसे लोगों का ही जिक्र नहीं है, जो सियासत से जुड़े रहे बल्कि उन साहित्यकारों और इतिहासकारों के विचारों की झलक देखने को मिलती है, जिन्होंने राष्ट्रवाद या भारतीय राष्ट्रवाद की बुनियादी परिभाषा दी.

किताब की भाषा

अगर किताब की भाषा यानी जबान के बारे में बात की जाए तो इसमें हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू तीनों के इस्तेमाल की वजह से चीजों को समझने में मुश्किल नहीं होती है. उर्दू शब्दों में नुक्ता इग्नोर करने वाले डिजिटल जमाने में उर्दू के शब्द नुक्ते के साथ लिखे गए हैं, जो हर जगह देखने को नहीं मिलते हैं. लेकिन किताब में हिंदी के कुछ कठिन शब्दों का भी प्रयोग है. 'संकीर्ण', 'प्रतिध्वनित', 'विपुल','क्षोभ', 'विद्रूप', 'शाश्वत' जैसे शब्दों का अर्थ समझने के लिए एक आम पाठक को डिक्शनरी के पन्ने पलटने पड़ सकते हैं.

किताब का निचोड़

इस किताब में यह बताने की कोशिश की गई है कि राष्ट्रवाद कोई कसौटी नहीं है, जिस पर हम हर रोज कसे जाते रहें बल्कि राष्ट्रवाद पलने-बढ़ने का एक स्वाभाविक हिस्सा है, यह किसी सचेतन प्रयास का नतीजा नहीं है. भारत का राष्ट्रवाद आक्रामक और विद्वेषपूर्ण कभी नहीं था.

अगर आप भारत के बुनियादी राष्ट्रवाद या आजादी के तीन-चार दशक तक के राष्ट्रवाद और मौजूदा राष्ट्रवाद में फर्क जानने में दिलचस्पी रखते हैं, भारत को आजादी दिलाने वाले राजनेताओं की कलम से निकली राष्ट्रवाद की परिभाषा के अर्क को समझना चाहते हैं और भारतीय राष्ट्रवाद के अब तक के उतार-चढ़ाव को जानने की कोशिश करना चाहते हैं, तो ये किताब आपके कई सवालों के जवाब देती नजर आएगी.

किताब में यह भी बताने की कोशिश की गई है कि ऐसे दौर में हम किस तरह से अपने सदियों पुराने राष्ट्रवाद को फिर से जिंदा करने की कोशिश कर सकते हैं, जिसमें विविधता में एकता की बात कही गई है.
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किताब में इस बात का भी जिक्र है कि सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि नए दौर की दुनिया में कई देशों का राष्ट्रवाद, किस तरह से विविधताओं को नापसंद कर रहा है और इसे एक दुश्मन की जरूरत पड़ रही है और राज्य के द्वारा संचालित राष्ट्रवाद नागरिकों के खिलाफ एक हथियार बनकर उभर रहा है.

कुल मिलाकर यह एक समसामयिक किताब है, जो राष्ट्रवाद से जुड़े सभी पहलुओं को पाठकों के सामने बेहद तफ्सील से लाने की कामयाब कोशिश करती है. हिंदुस्तान के लोकतंत्र, तहजीब और इसकी सेक्युलर रवानी से मोहब्बत करने वाले हर देशभक्त नागरिक को यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए.

पाठक की नजर से...

किताब के अंदर अलग-अलग लेखकों/विचारकों के द्वारा राष्ट्रवाद पर दिए गए विचार हैं. इससे पहले लेखक का नाम और विचार का शीर्षक लिखा हुआ है. किताब के आखिरी हिस्से में पेज नंबर 325 से 330 पर क्रम से सभी विचारकों का परिचय दिया गया है. अगर यही परिचय हर चैप्टर में राष्ट्रवाद की परिभाषा से पहले विचारक के नाम के साथ दिया गया होता, तो किताब पढ़ने वाले को विचारक के बारे में जानने के लिए किताब के पन्न पलटकर आखिरी हिस्से में नहीं जाना पड़ता.

अगर आम पाठक के नजरिए से देखा जाए तो किताब में शामिल किए गए कुछ कठिन शब्दों की जगह आसान शब्दों का प्रयोग किया जा सकता था.

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