"रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था."
अक्सर लोगों के द्वारा पढ़ा जाने वाला ये शेर खुद मिर्जा गालिब (Mirza Ghalib) ने मीर तकी मीर (Mir Taqi Mir) के लिए लिखा था. इस शेर में सिर्फ 'मीर' की ही अजमत नहीं नज़र आती बल्कि 'गालिब' की महानता भी दिखती है. इस एपिसोड में हम उर्दू के बेमिसाल शायर मीर तक़ी मीर और उनसे जुड़े रोचक क़िस्सों के बारे में बात करने वाले हैं. बताएंगे कि उनके पिता ने उन्हें विरासत ऐसा क्या दिया कि वो परेशान हो गए और एक नवाब से वो क्यों गुस्सा हो गए थे.
1722 में आगरा (Agra) के अकबराबाद में पैदा हुए मीर तक़ी मीर का असली नाम मोहम्मद तक़ी था. उनके बाप-दादा सऊदी अरब के हिजाज से हिन्दुस्तान आए थे और कुछ वक्त हैदराबाद और अहमदाबाद में जिंदगी बसर करने के बाद आगरा आकर रहने लगे. वो कुछ वक्त दिल्ली में भी रहे.
लफ्ज-ओ-मानी के जादूगर, बेमिसाल शायर मीर तकी ‘मीर’ उर्दू गजल के ऐसे नाम के तौर पर पहचाने गए, जिनकी शायरी का नशा हर उर्दू से मोहब्बत करने वाले पर चढ़ ही जाता है. ‘मीर’ को उन लोगों से भी तारीफें मिलीं, जिनकी अपनी शायरी ‘मीर’ से बहोत अलग थी.
उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया
अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आंखें मूंद
या'नी रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया
मिर्जा गालिब से लेकर हसरत मोहानी तक, मीर के चाहने वाले हर जमाने में रहे. उर्दू शायर नासिर काजमी ने तो साफ तौर से अपने शेर के जरिए कहा है कि...
शे’र होते हैं मीर के, नासिर
लफ़्ज़ बस दाएं बाएं करता है
मीर साहब ने उर्दू शायरी के लिए एक आधुनिक चाल चलन तैयार किया, जिसमें उनकी सरजमीं और लोगों की अलग-अलग तहजीब शामिल है.
मीर तकी मीर की जिदगी मुफलिसी में गुजरी लेकिन उन्होंने अपनी कलम के वजूद और आत्मसम्मान पर कभी आंच नहीं आने दी. कहते हैं कि बादशाह भी अगर उनकी शायरी को ध्यान लगाकर नहीं सुनते थे, तो मीर शायरी सुनाना बंद कर देते थे. कई बार तो मीर इसके चलते भरी महफिल को छोड़कर चले जाते थे.
एक बार लखनऊ के नवाब ने उन्हें तोहफ़े के बदले शेर पढ़ने को कहा. इस पर मीर ने इनकार करते हुए कहा कि आप हमारी शायरी नहीं समझ पाएंगे. इसके अलावा एक क़िस्सा और है. एक बार मीर तक़ी मीर नवाब के बर्ताव की वजह से गुस्सा हो गए और नवाब के एक हजार रुपए को ठुकरा दिया.
कहा जाता है कि मीर नवाबों के शहर लखनऊ में काफ़ी दिनों तक रहे लेकिन उनको लखनऊ से उतना प्यार नहीं हुआ जितना दिल्ली से था.
क्या कहूं तुम से मैं कि क्या है इश्क़
जान का रोग है बला है इश्क़
इश्क़ ही इश्क़ है जहां देखो
सारे आलम में भर रहा है इश्क़
इश्क़ है तर्ज़ ओ तौर इश्क़ के तईं
कहीं बंदा कहीं ख़ुदा है इश्क़
मीर तकी मीर ने 18वीं शताब्दी के अन्य फारसी जुबान के शायरों से अलग उर्दू में लिखा. शायद इसीलिए उनको "उर्दू गजल का मास्टर" भी कहा जाता है. मीर की तुलना गालिब के साथ भी जाती है लेकिन गालिब खुद मीर की तारीफ करने के लिए जाने जाते थे.
पिता से विरासत में मिली कर्ज चुकाने की जिम्मेदारी
मीर तकी मीर को उनके पिता से विरासत में कर्ज अदा करने की जिम्मेदारी मिली. कहा जाता है कि उनके पिता ने मरने से पहले, मीर और उनके सौतेले भाई हाफिज मुहम्मद हसन को बुलाया. उन्होंने हाफिज को यह कहते हुए तीन सौ किताबें दीं कि एक फकीर के रूप में उनके पास देने के लिए और कुछ नहीं है. उसके बाद उनके पिता ने मीर की ओर रुख करते हुए कहा कि बेटा, मुझे बाजार के लोगों के तीन सौ रुपये देने हैं, यह कर्ज आपको चुकाना होगा.
'खुदा-ए-सुखन' यानी 'शायरी के खुदा' कहे जाने वाले मीर तकी मीर को उनकी क्लासिक गजलों के लिए जाना जाता है. उनकी कई गजलें हिंदी सिनेमा की फिल्मों में नजर आईं.
फिल्म 'एक नजर' में 'पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है', फिल्म 'बाजार' में 'दिखाई दिए यूं' और फिल्म 'मंडी' का 'जबाने बदलते हैं' जैसे गाने मीर तकी मीर साहब की याद दिलाते हैं.
आवेगी मेरी क़ब्र से आवाज़ मेरे बा'द
उभरेंगे इश्क़-ए-दिल से तिरे राज़ मेरे बा'द
जीना मिरा तो तुझ को ग़नीमत है ना-समझ
खींचेगा कौन फिर ये तिरे नाज़ मेरे बा'द
बैठा हूं 'मीर' मरने को अपने में मुस्तइद
पैदा न होंगे मुझ से भी जांबाज़ मेरे बा'द
मीर तकी मीर की जिदगी का आखिरी पल लखनऊ में गुजरा. यहां लगभग 90 बरस की उम्र में उर्दू के इस जांबाज शायर ने आखिरी सांस ली.
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