ADVERTISEMENTREMOVE AD

Mohan Rakesh: मिडिल क्लास और रिश्तों की गिरहों को खोलने वाला नाटककार

Mohan Rakesh ने पहली नौकरी 1944 से 45 के दौरान 500 रूपये के मासिक वेतन पर एक फिल्म कंपनी में बतौर कहानीकार शुरू की.

छोटा
मध्यम
बड़ा

हममें से हर कोई अधूरा है. अधूरा है क्योंकि अधूरी हसरतें हैं. हम हमेशा पूर्णता की खोज में आधे-अधूरे रहते हैं. इस बात को जिस लेखक ने बड़ी महारत के साथ समझाया. वो हैं मोहन राकेश. हिंदी लेखक और नाटककार मोहन राकेश (Mohan Rakesh) का जन्म 8 जनवरी 1925 को पंजाब के अमृतसर में हुआ था. 'संगीत नाटक अकादमी' से सम्मानित मोहन राकेश पेशे से वकील थे लेकिन साहित्य और संगीत में खास रुचि रखते थे. वो मुख्य रूप से अपने नाटक 'आषाढ़ का एक दिन','आधे अधूरे' और ‘लहरों के राजहंस’ के लिए जाने जाते हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

उन्होंने कहानी के क्षेत्र में सफल लेखन के बाद नाट्य-लेखन में नए रास्ते खोले. हिंदी नाटकों में भारतेंदु हरिश्चंद्र और जयशंकर प्रसाद के बाद का दौर उन्हीं के नाम से जाना जाता है.

मोहन राकेश ने अपने नाटकों के जरिए हिंदी को पहली बार अखिल भारतीय स्तर पर ही नहीं बल्कि दुनिया में भी पहचान दिलाई. इब्राहीम अलकाजी, ओम शिवपुरी, अरविन्द गौड़, श्यामानंद जालान, राम गोपाल बजाज और दिनेश ठाकुर जैसे जाने-माने इंडियन डायरेक्टर्स ने मोहन राकेश के नाटकों का निर्देशन किया.

पिता की अर्थी उठाने के लिए बेचनी पड़ी मां की चूड़ी

मोहन राकेश के परिवार की आर्थिक स्थिति बेहद दयनीय थी. वो किराए के मकान में रहते थे. पिता की मौत के बाद मकान मालिक ने अर्थी उठने तक से रोक दिया था. ऐसे हालात में उनके मां की चूड़ियां बेची गईं, उसके बाद पिता की अर्थी उठाई गई.

मोहन राकेश अपनी डायरी में अपने मां के बारे में लिखते हैं...

“मां का जीवन कितना अनात्मरत और निःस्वार्थ है, जैसे उनका अपना आप है ही नहीं, जो है घर के लिए है, मेरे लिए है. अम्मा धरती की तरह शांत रहती हैं, मेरे हर आवेश, उद्वेग को वे धरती की तरह सह लेती हैं, सच में मेरी मां बहुत बड़ी हैं.

मोहन राकेश ने अपनी पहली नौकरी साल 1944 से 45 के दौरान पांच सौ रूपये के मासिक वेतन पर एक फिल्म कंपनी में बतौर कहानीकार शुरू की. इस दौरान उन्होंने अपनी पहली पटकथा फिल्म ‘दिन ढले’ लिखी थी. साल 1957 से 1962 के बीच मोहन राकेश के दो अहम नाटक ‘अषाढ़ का एक दिन’ और उपन्यास ‘अंधेरे बंद कमरे’ पब्लिश हुए.

अछूते मुद्दों पर की बात

हरियाणा सेंट्रल यूनिवर्सिटी के हिंदी प्रोफेसर बीरपाल सिंह क्विंट से बात करते हुए कहते हैं कि हिंदुस्तान की आजादी के बाद जीवन के जो पहलू हमें दिखाई नहीं दे रहे थे, उनको उघाड़कर मोहन राकेश ने रखा. अपनी कहानियों में मोहन राकेश ने समाज के उन अछूते प्रश्नों और मुद्दों पर बात की जिनपर कोई बात नहीं करना चाहता था.

प्रोफेसर बीरपाल बताते हैं - मोहन राकेश के नाटक संवाद धर्मिता के लिए जाने जाते हैं. उन्हें जो ठीक लगता था उसे उसी तरह से कहते थे. उनका नाटक आधे-अधूरे से हम समझ सकते हैं कि हम हमेशा पूर्णता की खोज में आधे-अधूरे रहते हैं. मोहन राकेश के लेखन और जिंदगी से ये सीखा जा सकता है कि हम जिन स्थितियों में हैं उन्हें स्वीकार करें, उनसे कुछ सीखें और अपना बेहतर से बेहतर देने की कोशिश करें.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

मोहन राकेश की पत्नी अनीता राकेश अपनी किताब ‘चंद सतरें और’ में लिखती हैं कि

घर उन्हें डराता रहा और रेस्तरा-डाकबंगलों की जिंदगी ही रास आती रही. वो आदमी बाहर से जितना इनफॉर्मल लगता था, मन से उतना ही फॉर्मल था. उसे अन्दर से समझना बड़ी तपस्या थी. जिनके साथ नजदीक थे, वे भी इससे अधिक नहीं जान सके.

मध्यवर्गीय समाज के टूटन का जिक्र

झारखंड सेंट्रल यूनिवर्सिटी के हिंदी प्रोफेसर उपेंद्र सत्यार्थी क्विंट से बात करते हुए कहते हैं कि मोहन राकेश जी मध्य वर्ग के बीच लोकप्रिय लेखकों में सबसे ज्यादा प्रासंगिक लेखक हैं. आधे-अधूरे में मध्यवर्गीय समाज के टूटन और विघटन को उन्होंने रेखांकित किया था, जो आज भी समाज में मौजूद है. इसलिए मध्यवर्गीय दास्तान को समझने के लिए मोहन राकेश को पढ़ना बहुत जरूरी है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

हिंदुस्तान बंटवारे का दर्द

मोहन राकेश की कहानी 'मलबे का मालिक' में हिंदुस्तान के बंटवारे का दर्द और टीस देखने को मिलती है.

मोहन राकेश लिखते हैं....

"तंग बाजारों में से गुजरते हुए वे एक-दूसरे को पुरानी चीजों की याद दिला रहे थे- देख, फतहदीना, मिसरी बाजार में अब मिसरी की दुकानें पहले से कितनी कम रह गई हैं. उस नुक्कड़ पर सुक्खी भठियारन की भट्ठी थी, जहां अब वह पान वाला बैठा है.यह नमक मण्डी देख लो, ख़ान साहब! यहां की एक-एक ललाइन वह नमकीन होती है कि बस!

बहुत दिनों के बाद बाजारों में तुर्रेदार पगड़ियां और लाल तुर्की टोपियां दिखाई दे रही थीं. लाहौर से आए हुए मुसलमानों में काफी संख्या ऐसे लोगों की थी, जिन्हें विभाजन के समय मजबूर होकर अमृतसर छोड़कर जाना पड़ा था."

ADVERTISEMENTREMOVE AD
मोहन राकेश ने स्त्री-पुरुष, पति-पत्नी, बाप-बेटे के बीच के रिश्तों के टूटन को अपनी कहानियों और नाटकों में बड़ी बारीकी से पकड़ा है. उनकी कहानी 'एक और जिंदगी' में पति और पत्नी के बीच टूटता हुआ बच्चा इसका एक उदाहरण है.
उपेंद्र सत्यार्थी, हिंदी प्रोफेसर, झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय
मोहन राकेश अपने जीवन में मित्रों को खास महत्त्व देते थे. वे खुद कहते थे कि उनके जीवन में पहला स्थान उनके लेखन, द्वितीय स्थान उनके मित्रों का है. और आखिरी में उनका परिवार आता है.

1971 में मोहन राकेश को नेहरु फेलोशिप मिली और उन्होंने ‘नाटक और शब्द’ विषय पर शोध कार्य का शुरू किया लेकिन इसके पूरा होने से पहले ही वो इस दुनिया को अलविदा कह गए.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×