बच्चों के छोटे हाथों को चांद सितारे छूने दो
चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएंगे
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें,
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए.
ये नसीहत शायर निदा फाजली (Nida Fazli) ही दे सकते थे जो धारा के विपरीत चलने की जुर्रत रखते थे. आज हम आपको बताएंगे एक ऐसे जिंदादिल शायर के बारे में जिन्होंने अपना परिवार छोड़ दिया लेकिन देश नहीं छोड़ा. बताएंगे कि निदा फाजली ने धर्म और मजहब की जटिलता, पाकिस्तान (Pakistan) और हिंदुस्तान (Hindustan) की चुभने वाली समानता और सामाजिक ताने-बाने को किस नजरिए से देखा और लिखा.
12 अक्तूबर 1938 को दिल्ली (Delhi) में पैदा हुए निदा फाजली उर्दू और हिन्दी के एक ऐसे शायर, गीतकार, लेखक और पत्रकार के रूप में पहचाने गए, जिनकी लेखनी में संतों जैसी सादगी, एक फकीर सी शान और शहद जैसी मिठास महसूस होती है. निदा साहब का असली नाम मुक़तिदा हसन था.
देश के लिए छोड़ा परिवार
1947 में हिंदुस्तान के बंटवारे के बाद निदा फाजली के पिता ने पाकिस्तान जाने का फैसला किया. ये बात सुनकर निदा साहब घर से भाग निकले क्योंकि वो पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे. उन्होंने अपने परिवार को छोड़ दिया लेकिन हिंदुस्तान में रहना पसंद किया. इसके बाद निदा साहब ने अकेले ही जिंदगी की सारी जंगें लड़ीं. परिवार साथ न होने की पीड़ा ही शायद निदा फाजली के उस गजल में निकली जिसमें वो मां के लिए लिखते हैं.
निदा साहब एक बार पाकिस्तान गए, उन्होंने वहां के हालात पर नजर डाली और हिंदुस्तान वापस आने के बाद निदा साहब ने दोनों मुल्कों में जो समानताएं देखी उस पर लिखा.
निदा फाजली साहब ने अपनी शायरी के बारे में कहा था कि मेरी शायरी न सिर्फ अदब और उसके पाठकों के रिश्ते को जरूरी मानती है बल्कि उसके सामाजिक सरोकार को अपना मयार भी बनाती है. मेरी शायरी बंद कमरों से बाहर निकल कर चलती फिरती जिंदगी का साथ निभाती है. उन हलकों में जाने से भी नहीं हिचकिचाती जहां रोशनी भी मुश्किल से पहुंच पाती है. मैं अपनी जबान तलाश करने सड़कों पर, गलियों में, जहां शरीफ लोग जाने से कतराते हैं, वहां जाता हूं. जैसे मीर, कबीर और रहीम की जबानें. मेरी जबान न चेहरे पर दाढ़ी बढ़ाती है और न पेशानी पर तिलक लगाती है.
और ये तो सिर्फ निदा साहब ही लिख सकते थे-
“उठ उठ के मस्ज़िदों से नमाज़ी चले गए, दहशतगरों के हाथ में इस्लाम रह गया”
निदा फाजली ने उर्दू शायरी और संगीत लिखने के अलावा हिंदी दोहे भी लिखे. उनके दोहे का अंदाज ऐसा है कि पढ़कर कबीर दास की याद आ जाती है. निदा साहब ने अपने दोहों के जरिए भी सामाजिक संदेश देने की कोशिश की है.
निदा फाजली ने धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं और अखबारों में भी काम किया. उनका पहल काव्य-संग्रह “लफ्जों का पुल” नाम से प्रकाशित हुआ. उनके शानदार कामों के लिए 2013 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से नवाज़ा.
उर्दू और हिंदी दोनों भाषाओं के पाठकों को अपने कलाम के जरिए सुकून पहुंचाते हुए 08 फरवरी 2016 को निदा फाजली साहब ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. लेकिन उनके जाने के बाद भी उनकी गजलें हमें बताती हैं, कि दुनिया में हम कभी मुकम्मल नहीं होते हैं, कुछ ना कुछ बचा ही रह जाता है...
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