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वतन के लिए फांसी चढ़ जाने वाला क्रांतिकारी कवि,अंग्रेजों के खिलाफ बनाई थी पार्टी

Ram Prasad Bismil ने अपने पिता से हिंदी और पास में रहने वाले एक मौलवी से उर्दू सीखी थी.

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चर्चा अपने क़त्ल का अब दुश्मनों के दिल में है,

देखना है ये तमाशा कौन सी मंज़िल में है?

साहिले-मक़सूद पर ले चल ख़ुदा-रा नाख़ुदा,

आज हिंदुस्तान की कश्ती बड़ी मुश्किल में है.

ये मिसरे स्वतंत्रता सेनानी और बगावत से सराबोर कवि रामप्रसाद बिस्मिल (Ram Prasad Bismil) ने उस वक्त लिखा था, जब हिंदुस्तान पर अंग्रेजों का कब्जा हुआ करता था और भारत के लोग आजादी की जंगें लड़ रहे थे. हम आपको बताएंगे कि बिस्मिल ने किस तरह से अपने सियासी और अदबी हुनर से हिंदुस्तान के लोगों में आजादी की आग भरी, उन्होंने किस तरह से कई-कई बार अंग्रेजों के सामने मुश्किलें खड़ी की और साल 1925 में किस तरह से काकोरी कांड को अंजाम दिया गया.

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11 जून, 1897 को उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के शाहजहांपुर (Shahjahanpur) में जन्मे हिंदुस्तान के सबसे चर्चित और सम्मानित स्वतंत्रता सेनानियों में से एक राम प्रसाद बिस्मिल, अपने इंकलाबी लहजे के अलावा साहित्य और अदबी हुनर के लिए पहचाने जाते हैं.

राजपूत तोमर परिवार में जन्मे बिस्मिल को कई ज़ुबानों का इल्म था. उन्होंने अपने पिता से हिंदी और पास में रहने वाले एक मौलवी से उर्दू सीखी थी.

वो हिंदी और उर्दू जबान में 'अज्ञात', 'राम' और 'बिस्मिल' जैसे कई नामों से लिखते रहे, जिसमें से उनका 'बिस्मिल' पेननेम सबसे ज्यादा मशहूर हुआ.

दुनिया से ग़ुलामी का मैं नाम मिटा दूंगा,

एक बार ज़माने को आज़ाद बना दूंगा.

बेचारे ग़रीबों से नफ़रत है जिन्हें, एक दिन,

मैं उनकी अमीरी को मिट्टी में मिला दूंगा.

ऐ प्यारे ग़रीबो! घबराओ नहीं दिल में,

हक़ तुमको तुम्हारे, मैं दो दिन में दिला दूंगा.

साल 1918 में रामप्रसाद बिस्मिल ने 'मैनपुरी की प्रतिज्ञा' उन्वान से एक कविता लिखी. पूरे यूनाइटेड प्रोविंसेज में इसका पैम्फलेट बांटवाया गया. इसी दौर के आस-पास बिस्मिल ने कुछ ऐसी एक्टिविटीज में हिस्सा लिया, जिसकी वजह से हुकूमत के अधिकारियों ने उनकी तलाशी शुरू की. जब वो कहीं नजर आए, तो उनका पीछा किया गया और वो यमुना नदी में कूद गए. इस घटना के बाद वो कुछ दिनों तक अंडरग्राउंड रहे और पूरे जोश के साथ अपनी कलम चलाते रहे.

कुछ दिनों बाद बिस्मिल ने 'मन की लहर' नाम से कुछ कविताओं का कलेक्शन जारी किया, जिसकी एक कविता के कुछ हिस्से इस तरह हैं...

सर फ़िदा करते हैं कुरबान जिगर करते हैं,

पास जो कुछ है वो माता की नज़र करते हैं ,

खाना वीरान कहाँ देखिए घर करते हैं!ma

खुश रहो अहले-वतन! हम तो सफ़र करते हैं ,

जा के आबाद करेंगे किसी वीराने को !

जब बिस्मिल ने साथियों के साथ मिलकर बनाई अलग पार्टी

फरवरी 1920 में जब मैनपुरी षड़यंत्र मामले के सभी कैदियों को रिहा कर दिया गया, तो बिस्मिल अपने घर शाहजहांपुर लौटे. यहां उन्होंने कांग्रेस की रहनुमाई में चलने वाले 'असहयोग आंदोलन' के लिए समर्थन जुटाने का काम किया, लेकिन 'चौरी चौरा' घटना होने के बाद बिस्मिल ने अपनी खुद की पार्टी बनाने का फैसला किया.

बिस्मिल, अशफाकउल्ला खान, सचिंद्र नाथ बख्शी और जोगेश चंद्र चटर्जी ने मिलकर HRA यानी हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की शुरुआत की. आगे चलकर चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह का भी समर्थन मिला.

काकोरी कांड

इसके बाद दौर आया अगस्त 1925 का...इसी साल लखनऊ से 15 किलोमीटर दूर स्थित काकोरी में HRA ने ट्रेन डकैती की पहली बड़ी कार्रवाई की. शाहजहांपुर और लखनऊ के बीच एक ट्रेन चलती थी, जिसमें अक्सर लखनऊ से ब्रिटिश राजकोष में जमा किए जाने वाले ट्रेजरी बैग जाते थे. राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाकउल्लाह खान सहित करीब दस क्रांतिकारियों ने इस ट्रेन को लूटा. उनका मानना ​​था कि यह पैसा वैसे भी हिंदुस्तानियों का ही है और इसको लूटकर आज़ादी के लिए की जा रही गतिविधियों को वित्तपोषित किया जाएगा. ट्रेन से 4600 रूपए के ट्रेजरी बैग लूटकर वो लोग लखनऊ भाग गए.

हालांकि इस वारदात से अंग्रेज़ी हुकूमत बेहद नाराज़ हुई और इसमें शामिल क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया.
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बिस्मिल, अशफाक और लाहिड़ी को सजा-ए-मौत

18 महीने के लंबे ट्रायल के बाद 19 दिसंबर 1927 को रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खान और राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को अंग्रेजी हुकूमत ने मौत की सजा सुनाई. राम प्रसाद बिस्मिल इस दौर में क्या सोच रहे थे और लोगों से क्या अपील करना चाहते थे, वो उनकी आखिरी कविता में नजर आता है...

मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या,

दिल की बर्बादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या.

मिट गईं जब सब उम्मीदें मिट गए जब सब ख़याल ,

उस घड़ी गर नामावर लेकर पयाम आया तो क्या.

ऐ दिले-नादान मिट जा तू भी कू-ए-यार में,

फिर मेरी नाकामियों के बाद काम आया तो क्या.

रामप्रसाद बिस्मिल को अंग्रेजी हुकूमत ने भले ही फांसी की सजा देकर उनकी सांसें रोक दी लेकिन उनके कलम और जुबान से निकले अल्फाज, उनकी कविताएं विरासत की तरह आज भी जिंदा हैं.

ये कविताएं न सिर्फ हिंदुस्तानियों को आजादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए हौंसला दीं बल्कि इससे सामाजिक असर भी पड़ा.

जो लोग ग़रीबों पर करते हैं सितम नाहक़,

गर दम है मेरा क़ायम, गिन-गिन के सज़ा दूंगा.

हिम्मत को ज़रा बांधो, डरते हो ग़रीबों क्यों?

शैतानी क़िले में अब मैं आग लगा दूंगा.

बंदे हैं ख़ुदा के सब, हम सब ही बराबर हैं,

ज़र और मुफ़लिसी का झगड़ा ही मिटा दूंगा.

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मौजूदा हिंदुस्तान के लिए दस्तखत है अशफाक-बिस्मिल की दोस्ती

रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाकउल्ला ख़ान के बीच गहरी दोस्ती थी, जो नफरत से झुलस रहे मौजूदा हिंदुस्तान के लिए सद्भाव का एक दस्तखत है. फांसी से ठीक पहले लिखे गए अपने आखिरी खत में रामप्रसाद बिस्मिल ने वतन के लिए हिंदू-मुस्लिम एकता की पुकार की थी. इस खत में वो लिखते हैं...

अगर अशफाक जैसा समर्पित मुसलमान क्रांतिकारी आंदोलन में राम प्रसाद जैसे आर्य समाज का दाहिना हाथ हो सकता है, तो अन्य हिंदू और मुसलमान अपने तुच्छ स्वार्थों को भूल कर एक क्यों नहीं हो सकते? देशवासियों से मेरी एक ही गुजारिश है कि अगर उन्हें हमारे मरने का रत्ती भर भी दुःख है, तो वे किसी भी तरह से हिंदू-मुस्लिम एकता बनाएं. यही हमारी ख्वाहिश है और वही हमारा स्मारक हो सकता है.

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