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"यह धरती कितना देती है..." हिंदी साहित्य के युग प्रवर्तक कवि की कहानी

Sumitranandan Pant को आधुनिक हिन्दी साहित्य का 'एक युग प्रवर्तक कवि' कहा गया है.

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भारत माता ग्रामवासिनी

खेतों में फैला है श्यामल

धूल भरा मैला सा आंचल,

गंगा यमुना में आंसू जल,

मिट्टी की प्रतिमाउदासिनी.

हिंदी साहित्य के 'विलियम वड्रर्सवर्थ' कहे जाने वाले सुमित्रानंदन पंत (Sumitranandan Pant) ने प्रकृति पर क्या खूब लिखा है. पंत के इस तरह के शानदार योगदान की वजह से ही उनको आधुनिक हिन्दी साहित्य का 'एक युग प्रवर्तक कवि' कहा गया. गांधीवादी कवि सुमित्रानंदन पंत को ‘प्रकृति का सुकुमार कवि’ कहा गया. उनका जन्म उत्तराखण्ड (Uttarakhand) के बागेश्वर जिले के कौसानी (Kausani) में 20 मई 1900 को हुआ था. वो एत ऐसे साहित्यकारों में गिने जाते हैं, जिन्होंने प्रकृति के बारे में बड़े ही बेहतरीन तरीके से लिखा है.

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मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे,

सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,

रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी

और फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूंगा!

पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,

बन्ध्या मिट्टी नें न एक भी पैसा उगला!-

सपने जाने कहां मिटे, कब धूल हो गये!

मैं हताश हो बाट जोहता रहा दिनों तक

यह धरती कितना देती है! धरती माता

कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को!

नही समझ पाया था मैं उसके महत्व को,

बचपन में छिः स्वार्थ लोभ वश पैसे बोकर!

गांधी जी के आंदोलन में शामिल होने के लिए छोड़ी पढ़ाई

छायावाद के आधार स्तंभों में से एक सुमित्रानंदन पंत पढ़ाई के दौरान ही साल 1921 में महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन में शामिल हुए और कॉलेज छोड़ दिया. इसके बाद वो हिंदी, संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेज़ी भाषा-साहित्य के स्वाध्याय में लग गए.

पंत छोटी उम्र से ही कविताएं लिखने लगे थे. ‘युगांतर’, ‘स्वर्णकिरण’, ‘कला और बूढ़ा चांद’, ‘सत्यकाम’, ‘मुक्ति यज्ञ’, और ‘मेघनाद वध’ आदि उनके प्रमुख काव्य-संग्रह हैं.

झारखंड सेंट्रल यूनिवर्सिटी में हिंदी प्रोफेसर उपेंद्र सत्यार्थी, सुमित्रानंदन पंत को सामाजिक चेतना और यथार्थ का कवि कहते हैं. वो कहते हैं कि

पंत का नाम आते ही लोग उन्हें प्रकृति से जोड़ जेते हैं लेकिन इसके अलावा भी उनमें कई ऐसी चीज़ें थीं, जिसको बहुत कम लोग जानते हैं. वो एक सामाजिक चेतना के भी कवि थे.

वो आगे कहते हैं कि शुरुआती दौर में पंत की लेखनी में प्रकृति के जिक्र मिलते हैं लेकिन जैसे-जैसे वो आगे बढ़ते हैं, उनकी कविताओं में सामाजिक यथार्थ भी नजर आने लगता है.

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सुमित्रानंदन पंत को साल 1960 में 'कला और बूढ़ा चांद' काव्य-संग्रह के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार और 1968 में ‘चिदंबरा’ काव्य-संग्रह के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया. इसके भारत सरकार ने उनको पद्मभूषण से सम्मानित किया और उनके नाम डाक टिकट भी जारी किया गया.

हिंदी प्रोफेसर उपेंद्र सत्यार्थी कहते हैं कि 1936 के आस-पास के दौर में पंत छायावादी दर्शन से गांधीवादी और मानवतावादी दर्शन की ओर जाते नजर आते हैं. उनकी यात्रा प्रकृति और प्रेम से जरूर शुरू होती है लेकिन आगे बढ़ते हुए ये मानवतावादी, सामाजिक यथार्थ और अरविंदो के दर्शन से प्रभावित होते हैं.

जीना अपने ही में एक महान कर्म है,

जीने का हो सदुपयोग, यह मनुज धर्म है.

अपने ही में रहना, एक प्रबुद्ध कला है,

जग के हित रहने में, सबका सहज भला है.

जग का प्यार मिले, जन्मों के पुण्य चाहिए,

जग जीवन को, प्रेम सिन्धु में डूब थाहिए.

ज्ञानी बनकर, मत नीरस उपदेश दीजिए,

लोक कर्म भव सत्य, प्रथम सत्कर्म कीजिए.

उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में 28 दिसम्बर, 1977 को सुमित्रानंदन पंत ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया.

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