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वाजिद अली शाह: अवध के आखिरी नवाब को अपने लखनऊ के लिए क्यों तड़पना पड़ा था?

Nawab Wajid Ali Shah साहित्य और अदबी हुनर के अलावा अवाम के प्रति अपने जिम्मेदारियों को लेकर सजग थे.

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दर-ओ-दीवार पे हसरत से नज़र करते हैं

ख़ुश रहो अहल-ए-वतन हम तो सफ़र करते हैं

- वाजिद अली शाह अख़्तर

यह शेर है अवध के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह (Wajid Ali Shah) का है, जिसको उन्होंने लखनऊ (Lucknow) से विदा होते वक्त कहा था. इन लाइनों में वाजिद अली शाह की अपने वतन यानी अवध (Awadh) से मोहब्बत बखूबी बयां होती है. आइए जानते हैं कि वाजिद अली शाह की अदब में किस तरह की दिलचस्पी थी, कैसे उन्होंने अपने प्यारे लखनऊ से विदा होने के बाद 31 साल, कोलकाता के मटियाबुर्ज में जिंदगी गुजारी और यहां पर एक छोटा अवध बनाया.

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1237 हिजरी को हुई थी पैदाइश

‌वाजिद अली शाह की पैदाइश 30 जुलाई 1822 यानी जीकाद 1237 हिजरी को लखनऊ में हुई थी. उनका पूरा नाम मिर्ज़ा कैसर जहां वाजिद अली शाह था. उन्होंने अपने नाम में तखल्लुस के तौर पर 'अख़्तर' जोड़ रखा था. उनके पिता अवध के चौथे बादशाह अमजद अली शाह थे.

Nawab Wajid Ali Shah साहित्य और अदबी हुनर के अलावा अवाम के प्रति अपने जिम्मेदारियों को लेकर सजग थे.

वाजिद अली शाह की शायरी

(ग्राफिक्स- साकिब)

वाजिद अली शाह कविता और संगीत के प्रेमी थे, उन्हें मुशायरों का बेहद शौक था. वो बादशाह बनने से बहुत पहले ही अदीब और संगीतकार बन चुके थे. उन्होंने 18 साल की उम्र में ही दो दीवान और तीन मसनवियां लिख डाली थीं.

अवाम की फिक्र करते थे वाजिद अली शाह

साहित्य और अदबी हुनर के अलावा नवाब वाजिद अली शाह अवाम के प्रति अपने दायित्वों को लेकर जिम्मेदार थे. उन्होंने कई सुधारात्मक कदम उठाया. उनके दौर में अनाज के भाव जनता के हितों को नजर में रखते हुए निर्धारित किए जाते थे. वो अपनी एक गजल में लिखते हैं...

Nawab Wajid Ali Shah साहित्य और अदबी हुनर के अलावा अवाम के प्रति अपने जिम्मेदारियों को लेकर सजग थे.

वाजिद अली शाह की शायरी

(ग्राफिक्स- साकिब)

वाजिद अली शाह ने अपनी सल्तनत को सशक्त बनाने की कोशिश की. उन्होंने घुड़सवार सेना और पैदल सेना रेजिमेंटों की स्थापना की, ज्यूडिशियल सिस्टम में सुधार किया.

डॉ. राजनारायण पाण्डेय, वाजिद अली शाह और परीखाना में लिखते हैं कि

बादशाह वाजिद अली शाह की सुशासन व्यवस्था ईस्ट इंडिया कम्पनी के हुक्मरानों को फूटी आंखों नहीं सुहा रही थी और वे जल्द से जल्द अवध को अपनी झोली में डाल लेना चाहते थे.
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1857: वाजिद अली शाह की नजरबंदी और बेगम हजरत महल की हिम्मत

साल 1857 में अंग्रेजों के द्वारा की जा रही कार्रवाईयों की वजह से बगावत की आग एक भड़क उठी और इसकी जद में समूचा उत्तरी भारत आ गया. अंग्रेजों को डर था कि कहीं वाजिद अली शाह भी बागियों से न शामिल हो जाएं, इसलिए उन्हें कोलकाता के फोर्ट विलियम में नजरबंद कर दिया गया. उनकी बेगम हजरत महल बड़ी हिम्मत और बहादुरी के साथ लखनऊ का मोर्चा संभाले हुए थीं. उन्होंने वाजिद अली शाह को कैद से छुड़ाने की कोशिश की लेकिन कामयाब नही हो सकीं. बगावत खत्म होने के बाद ही उन्हें छुड़ाया गया.

Nawab Wajid Ali Shah साहित्य और अदबी हुनर के अलावा अवाम के प्रति अपने जिम्मेदारियों को लेकर सजग थे.

वाजिद अली शाह की शायरी

(ग्राफिक्स-साकिब)

नवाब वाजिद अली शाह के बारे में एक किस्सा काफी मशहूर है. कहा जाता है कि जब 1857 में अंग्रेजों ने उनके लखनऊ के महल पर हमला बोला तो वो वहां से इसलिए नहीं भाग पाए क्योंकि कोई नौकर उन्हें जूतियां पहनाने वाला नहीं था. और आखिरकार वो पकड़  लिए गए.

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अंग्रेजों ने वाजिद अली शाह को अवध की सत्ता से बेदखल करके कोलकाता के मटियाबुर्ज इलाके में भेज दिया. यहां पर कैद से छूटने के बाद उन्होंने नई जिंदगी जीना शुरू किया. उन्होंने फिर से खुद को शायरी की तरफ मोड़ा. कोलकाता में रहते वक्त उन्होंने एक गजल लिखी, जिसमें वो लखनऊ के खूबसूरत नजारे को याद करते हुए कहते हैं...

Nawab Wajid Ali Shah साहित्य और अदबी हुनर के अलावा अवाम के प्रति अपने जिम्मेदारियों को लेकर सजग थे.

वाजिद अली शाह की शायरी

(ग्राफिक्स-साकिब)

मटियाबुर्ज में छोटा अवध

वाजिद अली शाह ने मटियाबुर्ज को छोटा लखनऊ (अवध) बनाने की कोशिश की और लखनऊ की  ही तर्ज पर इमारतें बनवाईं. इमाम बाड़ा और मंजिलें, जिनसे लखनऊ की यादें जुड़ी थीं, वो मटियाबुर्ज में भी नजर आने लगीं. मटियाबुर्ज में उनकी रातें मुशायरों, मजलिसों और महफिलों के साथ गुजरा करती थीं.

वाजिद अली शाह के आखिरी पांच सालों की कमाई उनकी मसनवी “सबात-उल-क़ुलूब” है, जिसमें उनकी सलाहियतें खुल कर सामने आई हैं.
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नवाज वाजिद अली शाह के बारे में और ज्यादा जानकारी के लिए हमने बात की लखनऊ से ताल्लुक रखने वाले सीनियर जर्नलिस्ट शम्स-उर-रहमान अल्वी साहब से, वो नवाब वाजिद अली शाह के बारे क्या कहते हैं...

Nawab Wajid Ali Shah साहित्य और अदबी हुनर के अलावा अवाम के प्रति अपने जिम्मेदारियों को लेकर सजग थे.
वाजिद अली शाह ने अवाम में ऐसी चीजें पेश की, जिसके जरिए लोगों में सांप्रदायिक सौहार्द पैदा हुआ. कथक की रवायत उन्हीं के दौर में शुरू हुईं.
शम्स-उर-रहमान अल्वी, सीनियर जर्नलिस्ट

शम्स-उर-रहमान अल्वी आगे कहते हैं कि हिंदुस्तान में ऐसे बहुत कम बदशाह हुए हैं, जिनको इंतकाल के बाद भी लोगों से इतनी ज्यादा मोहब्बत मिली हो. लोग आज भी लखनऊ ही नहीं बल्कि पूरे उत्तर प्रदेश और अवध में उनको याद करते हैं, ऐसे हुक्मरां के तौर पर, जो अवाम के बीच में आते थे. कोई भी त्योहार होते थे, हिंदुओं के, मुसलमानों के या जो लोकल त्योहार होते थे...उसमें वो गोमती नदी के किनारे आते थे, लोगों के साथ शामिल होते थे और तरह-तरह की चीजें होती थीं.

वाजिद अली शाह ने भारत की तहजीब को आगे बढ़ाया, चाहे मुहर्रम हो या होली हर तरह के त्योहारों में शामिल होकर सबको एक करके साझा तहजीब की बुनियाद रखी. इन सभी चीजों को अंग्रेज पसंद नहीं करते थे, इसी वजह से उनके खिलाफ कई नैरेटिव बनाए गए और निगेटिव बनाने की कोशिशें हुईं.
शम्स-उर-रहमान अल्वी, सीनियर जर्नलिस्ट

लखनऊ वापस नहीं आ सके वाजिद अली शाह

अवध से कोलकाता जाने के बाद वाजिद अली शाह अपने दिल-ओ-जान से प्यारे लखनऊ वापस नहीं आ सके. 21 सितम्बर, 1887 को मटियाबुर्ज में उन्होंने जिंदगी की आखिरी सांस ली, लेकिन आज भी लखनऊ और मटियाबुर्ज में वाजिद अली शाह के सल्तनत की शनाख्त देखने को मिलती ही है.

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