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ममता-अखिलेश की मुलाकात से थर्ड फ्रंट का जिन्न बाहर, INC के बिना BJP फतह मुमकिन?

Akhilesh Yadav और Mamata Banerjee के बीच 'शिष्टाचार भेंट' कोलकाता में लेकिन इसकी गूंज दिल्ली तक सुनाई दी

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क्या कांग्रेस को अलग रखकर तैयार हुआ विपक्षी मोर्चा 2024 के आम चुनाव में बीजेपी और पीएम मोदी (PM Modi) का सामना कर सकता है? इधर कांग्रेस संसद के अंदर अडानी मुद्दे पर पीएम मोदी को घेरने की कोशिश कर रही है और उधर अखिलेश यादव ने ममता बनर्जी से ऐसी 'शिष्टाचार भेंट' की, कि खुद कांग्रेस सकते में आ गयी.

कांग्रेस के बिना बीजेपी का सामना करने के लिए 'एकजुट' विपक्ष की तैयारी चल रही है. इतना ही नहीं ममता बनर्जी इस महीने ओडिशा भी जाएंगी और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के साथ बैठक करेंगी. इसके बाद अन्य क्षेत्रीय दलों के नेताओं से बातचीत करने के लिए उनका अगला ठिकाना नई दिल्ली होगी.

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सवाल है कि अखिलेश यादव और ममता बनर्जी के बैठक से यह संकेत कैसे मिला कि नए मोर्चे की तैयारी हो रही है? क्या 2024 के चुनाव के पहले तीसरे मोर्चे की संभावना है? अगर तीसरे मोर्चा बनता भी है तो कांग्रेस-बीजेपी में किसे फायदा और किसे नुकसान होने की ज्यादा संभावना है?

इन्हीं सवालों का जवाब खोजने की कोशिश करते हैं. सबसे पहले बात अखिलेश यादव और ममता बनर्जी के बैठक की.

ममता और अखिलेश के बीच की मुलाकात 'शिष्टाचार भेंट' से कहीं ज्यादा

समाजवादी पार्टी ने शनिवार को कोलकाता में अपनी दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक शुरू की, जिसके दौरान उसने तीन हिंदी भाषी राज्यों- छत्तीसगढ़,मध्य प्रदेश और राजस्थान- में इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों और लोक सभा चुनावों के लिए पार्टी की नीतियों और रणनीतियों पर चर्चा शुरू की.

इस बैठक से एक दिन पहले ममता और अखिलेश के बीच की मुलाकात 'शिष्टाचार भेंट' से कहीं ज्यादा थी. तृणमूल कांग्रेस ने बैठक के बाद स्पष्ट कर दिया कि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के राजनीतिक रुख को देखते हुए उसके साथ किसी तरह के तालमेल की जरूरत नहीं है और यह फैसला मुख्यमंत्री और पार्टी सुप्रीमो ममता बनर्जी की अध्यक्षता में यहां उनके आवास पर तृणमूल के शीर्ष नेतृत्व की बैठक में लिया गया.

लोकसभा में तृणमूल नेता सुदीप बंद्योपाध्याय ने बैठक के बाद संवाददाताओं से कहा कि बीजेपी के एक आदर्श विपक्ष के रूप में कांग्रेस की भूमिका संदिग्ध है. पश्चिम बंगाल में, तृणमूल कांग्रेस और राज्य सरकार के लिए समस्याएं पैदा करने के लिए कांग्रेस की CPI और बीजेपी दोनों के साथ समझ है. एक तरफ कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर तृणमूल कांग्रेस का समर्थन मांगेगी तो दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल में राज्य स्तर पर हमारा विरोध करेगी. दोनों चीजें साथ-साथ नहीं चल सकतीं.

कुछ ऐसी ही बात समाजवादी पार्टी ने भी की है. वरिष्ठ SP नेता किरणमय नंदा ने टीएमसी सुप्रीमो ममता बनर्जी से मुलाकात के बाद न्यूज एजेंसी पीटीआई से कहा, ''यह फैसला किया गया है कि टीएमसी और एसपी बीजेपी से लड़ने के लिए एकजुट होंगे. दोनों पार्टियां कांग्रेस से भी दूरी बनाए रखेंगी.''

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TMC और SP के साथ और कौन आ सकता है?

सुदीप बंद्योपाध्याय ने जानकारी दी है कि ममता बनर्जी अखिलेश यादव के साथ बैठक के बाद इसी महीने ओडिशा जाएंगी और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के साथ बैठक करेंगी. इसके बाद मुख्यमंत्री बनर्जी अन्य क्षेत्रीय दलों के नेताओं से बातचीत करने के लिए नई दिल्ली पहुंचेंगी. इस पूरे कवायद को मिशन 2024 के लिए तीसरा मोर्चा तैयार करने के रूप में देखा जा रहा है जिसमें विपक्ष यूनाइटेड तो है लेकिन 'बिग ब्रदर' कांग्रेस के बिना.

हालांकि संयुक्त मोर्चा तैयार करने के लिए सिर्फ ममता बनर्जी हाथ नहीं बढ़ा रहीं हैं. समाजवादी पार्टी ने पिछले दिनों ही यूपी में नीतिश कुमार की जेडीयू से गठबंधन की घोषणा की थी. उससे पहले अखिलेश यादव खुद केसीआर द्वारा पार्टी का नाम बदले जाने के बाद बीआरएस की पहली रैली मैं शामिल होने तेलंगाना पहुंचे हुए थे और उसी मंच ने बीजेपी को घेरा था.

अखिलेश यादव 2024 में बीजेपी का सामना करने के लिए क्षेत्रीय पार्टियों को सबसे बड़ा हथियार बता रहे हैं और उस कड़ी में कांग्रेस का नाम जोड़ने से गुरेज कर रहे हैं. इस प्रस्तावित विपक्षी मोर्चे में कांग्रेस की भूमिका पर पीटीआई से बात करते हुए अखिलेश यादव ने कहा कि यह कांग्रेस को तय करना है कि वह इसमें है या नहीं.

"विपक्षी गठबंधन या मोर्चा बनाने का प्रयास जारी है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव (अपने दम पर) प्रयास कर रहे हैं. मुझे विश्वास है कि आने वाले दिनों में, एक विपक्षी गठबंधन आकार लेगा, जो बीजेपी के खिलाफ लड़ेगा.. कई राज्यों में बीजेपी की तुलना में कांग्रेस का अस्तित्व नहीं है, लेकिन क्षेत्रीय पार्टियां भगवा खेमे के खिलाफ जमीन पर जी जान से लड़ रही हैं और मुझे उम्मीद है कि वे सफल होंगी.. यह एक बड़ी लड़ाई का सवाल है और कांग्रेस खुद इस लड़ाई में अपनी भूमिका तय करेगी"
अखिलेश यादव

हरियाणा में पूर्व उप प्रधानमंत्री चौधरी देवी लाल के 109वें जन्मदिन पर आयोजित रैली में भी तीसरे मोर्चे की एकता देखने को मिली थी जिसमें कांग्रेस नहीं थी. INLD की बुलाई 'देवी लाल सम्मान रैली' में शरद पवार, नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव, सीताराम येचुरी और सुखबीर सिंह बादल सहित कई शीर्ष विपक्षी नेता मौजूद रहे.

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तीसरे फ्रंट की जरूरत क्यों महसूस हो रही?

सवाल है कि ममता बनर्जी और अखिलेश यादव जैसे नेताओं को तीसरे मोर्चे की जरूरत क्यों महसूस हो रही है? इसका जवाब सुदीप बंद्योपाध्याय के बयान में खोजा जा सकता है. उन्होंने मीडिया से बात करते हुए यह दावा किया है कि "कांग्रेस एक आदर्श राष्ट्रीय विपक्षी पार्टी की भूमिका नहीं निभा रही है, वह क्षेत्रीय दलों की भावनाओं का सम्मान किए बिना बिग बॉस की भूमिका निभाने की कोशिश कर रही है."

एक अन्य टीएमसी नेता, चंद्रिमा भट्टाचार्य ने कहा, “कांग्रेस हर जगह गड़बड़ कर रही है. यहां, यह हमारी सरकार को गिराने के लिए बीजेपी और सीपीआई के साथ गठबंधन कर रही है. हम कांग्रेस का समर्थन क्यों करें?”

इसके अलावा कई क्षेत्रीय नेता ऐसे हैं जो यह मानते हैं कि कांग्रेस अगर संयुक्त विपक्ष को लीड करती है तो उन्हें अपनी महत्वकांक्षाओं पर ब्रेक लगाना पड़ेगा. यह कोई कोई रहस्य की बात नहीं है कि ममता बनर्जी विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश होना चाहती थीं. साथ ही अरविंद केजरीवाल और नीतीश कुमार भी गाहे-बगाहे ऐसे सुर छेड़ते रहे हैं.

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साथ रहने की कांग्रेस की कोशिश बेकार? बीजेपी खुश होगी

कांग्रेस को दरकिनार कर अखिलेश यादव और ममता बनर्जी के बीच यह मुलाकात निश्चित रूप से विपक्षी एकता के लिए अच्छी खबर नहीं है. यह अडानी मुद्दे पर मोदी सरकार को घेरने के कांग्रेस के अभियान को भी विफल कर सकता है. अगर ममता बनर्जी और अखिलेश यादव ने कहा होता कि वे नरेंद्र मोदी को हराने के लिए एक साथ आ रहे हैं, तो इससे एकता की प्रक्रिया मजबूत होती लेकिन दोनों का खुले तौर पर कांग्रेस की आलोचना करना और दूरी बनाए रखने की बात करना विपक्षी एकता पर चोट है.

और ऐसी स्थिति में बीजेपी से अधिक खुश और कोई नहीं हो सकता. चुनाव-दर-चुनाव विपक्ष में फुट का फायदा बीजेपी को हुआ है. ऐसा ही त्रिपुरा में देखने को मिला.

त्रिपुरा में भगवा पार्टी ने 32 सीटों के साथ सत्ता में वापसी की है. भले ही इसे अकेले के दम पर स्पष्ट बहुमत है लेकिन वोट परसेंट पर नजर डालें तो साफ दिखता है कि 2018 की तुलना में उसके वोट शेयर को बड़ा डेंट मिला है. बीजेपी का वोट प्रतिशत करीब 43% से घटकर 39% पर आ गया है. कांग्रेस, सीपीआई (एम) और टिपरा मोथा ने मिलकर चुनाव लड़ा होता तो बीजेपी को कड़ी टक्कर मिल सकती थी, लेकिन आपसी फूट की वजह से ऐसा नहीं हो सका.

और ऐसा नहीं है कि कांग्रेस अन्य विपक्षी पार्टियों की शंकाओं को दूर करने के लिए कुछ नहीं कर रही है. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने चेन्नई में कहा कि कांग्रेस विपक्षी मोर्चे का नेतृत्व करने पर अड़ी हुई नहीं है. राहुल गांधी ने भी अपने लंदन दौरे के दौरान कहा, 'विपक्षी दलों के साथ काफी तालमेल चल रहा है और उनके बीच बातचीत भी हो रही है.'

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत की राजनीति में विपक्षी एकता हमेशा पेचीदा पेचीदा मामला रहा है. इसमें समय भी लगता है, लेकिन यह राहुल गांधी और कांग्रेस के लिए अपना नेतृत्व दिखाने और प्रतिकूल परिस्थितियों को अवसर में बदलने का अवसर भी है.

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